Wednesday 27 June, 2007

नहीं मालूम, कहां ठहरा है पानी

दुष्यंत कुमार ने लिखा था : यहां तक आते-आते सूख जाती हैं कई नदियां, हमे मालूम है पानी कहां ठहरा हुआ होगा। लेकिन ईमानदारी से मुझे नहीं मालूम कि पानी कहां ठहरा हुआ है। इसे 1857 के पहले स्वाधीनता संग्राम में किसानों की भागीदारी का असर कहिए या बाद में लगातार होते रहे किसान आंदोलनों का, हमारे नेताओं को आजादी से पहले ही भूमि सुधारों का महत्व समझ में आ गया था। यही वजह है कि आजादी के तुरंत बाद वरिष्ठ कांग्रेसी नेता जे सी कुमारप्पा की अगुआई में बनी कृषि सुधार समिति ने सिफारिश की थी कि खेती से सभी बिचौलियों को खत्म कर दिया जाए और जमीन जोतनेवालों को दे दी जाए; विधवाओं, नाबालिग और अपाहिजों के अलावा बाकी लोगों के लिए ज़मीन को बटाई पर देने पर रोक लगा दी जाए; छह साल से किसी जमीन पर खेती करनेवाले हर कास्तकार को उसका मालिक बना दिया जाए; कास्तकार को भूमि ट्राइब्यूनल द्वारा तय वाजिब कीमत पर जमीन को खरीदने का अधिकार दिया जाए और कृषि अर्थव्यवस्था ऐसी होनी चाहिए जिससे किसानों को विकास का मौका मिले।
पहली पंचवर्षीय योजना से ही जमींदारी उन्मूलन का सिलसिला शुरू हो गया। ज्यादातर राज्यों ने इस बाबत कानून बना दिए। 1948 में शुरुआत मद्रास से हुई। धीरे-धीरे सारे राज्यों में जमींदारी, महलवारी, जागीर, ईनाम जैसी व्यवस्थाएं खत्म कर दी गईं। नतीजतन करीब 46 लाख किसान जमीन के मालिक बन गए। उनकी सामाजिक और माली हालत में सुधार हुआ। राज्य सरकारों को खेती की जमीन से मालगुजारी भी पहले से ज्यादा मिलने लगी। साथ ही भूमि सुधार कानूनों को संविधान की नौवीं अनुसूची में डाल दिया, ताकि कोई इन्हें अदालत में चुनौती न दे सके। बल्कि नेहरू के जमाने में नौवीं अनुसूची भूमि सुधार कानूनों को अदालत की समीक्षा से बाहर रखने के लिए ही लाई गई थी।
भूमि सुधारों के अगले चरण में 1960 के दशक के दौरान सीलिंग कानून बना दिए गए। इसके लिए संविधान के निदेशक सिद्धांतों का सहारा लिया गया जिसमें कहा गया है कि संसाधनों का मालिकाना इस तरह तय किया जाना चाहिए जिससे आम हितों के खिलाफ संपत्ति और उत्पादन के साधन कुछ लोगों के हाथों में केंद्रित न हो जाएं। जब भूमि सुधार कानूनों से संपत्ति के मौलिक अधिकार को तोड़ने की बात हुई तो सरकार ने 42वां संविधान संशोधन लाकर संपत्ति के अधिकार को मौलिक अधिकारों की सूची से हटाकर महज एक वैधानिक अधिकार बना दिया।
आप कह सकते हैं कि जोतने वालों को जमीन देने के लिए इससे ज्यादा पुख्ता कानूनी इंतजाम और क्या हो सकते थे और अगर हकीकत में ये लागू नहीं हो सके तो समस्या इसके क्रियान्वयन की है। लेकिन भूमि सुधार कानूनो पर अमल न होने की समस्या की जड़ हमारे कानून में ही है। और इसका बीज ब्रिटिश शासन में ही 1935 में तब पड़ गया था जब तत्कालीन भारत सरकार ने भूमि को ‘स्टेट सब्जेक्ट’ बना दिया। आजादी के बाद अपना संविधान बना तो धारा 31-ए, बी, सी के तहत कृषि सुधारों का जिम्मा राज्यों को ही दिया गया। इस नीति में एक मूलभूत अंतर्विरोध था। वह यह कि अगर कृषि सुधारों की राष्ट्रीय नीति राष्ट्रीय स्तर पर केंद्र सरकार तय कर रही थी तो क्या इस नीति का अमल राज्यों पर छोड़ देना उचित था, ये अच्छी तरह जानते हुए कि राज्यों की राजनीतिक सत्ता पर ताकतवर भूस्वामियों की लॉबी का नियंत्रण है?
असल में कांग्रेस ने कृषि को लेकर शुरू से ही दोगली नीति अपनाई। एक तरफ तो इसने सिंचाई, कृषि अनुसंधान और मशीनीकरण के जरिए गांवों की समस्या हल करने की कोशिश की, दूसरी तरफ इसने भूमि सुधारों के अपने ही एजेंडे को लागू करने के लिए आधी-अधूरी कोशिश की क्योंकि ऐसा करने से किसानों का दमन करनेवाले सामंती और व्यापारिक बिचौलियों के हितों को चोट लगती।
जन संघर्ष तेज हो गए तो इसने थोड़ा कुछ किया। फिर मामला शांत होते ही कदम पीछे खींच लिए। यह साठ के दशक के उत्तरार्ध में फैले नक्सल आंदोलन का ही असर था कि इंदिरा गांधी ने राजाओं-महाराजाओं के प्रिवी पर्स खत्म कर दिए, गरीबी हटाओ का नारा दिया। नक्सल आंदोलन का निर्ममता से दमन किया गया, लेकिन बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया गया, उन्हें ग्रामीण इलाकों में शाखाएं खोलने का निर्देश दिया गया ताकि किसानों को महंगी लागत सामग्रियों के लिए आसान कर्ज मुहैया कराया जा सके। फिर किसान आंदोलन तेज हुए तो कर्ज माफ करने के मेले भी लगाए गए। जारी...