Wednesday 12 September, 2007

मनमोहन जी, ऐसे मुफ्तखोर नहीं हैं किसान

कांग्रेस हाईकमान दुखी है। दुखी इस बात से है कि अकोला में कपड़ा मंत्री और पूर्व बीजेपी नेता शंकर सिंह वाघेला ने विदर्भ के किसानों को काहिल बता डाला। कॉटन फेडरेशन के इसी समारोह में महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख ने किसानों को ‘कलाकार’ बता डाला कि वे कपास का वजन बढ़ाने के उस पर पानी झिड़क देते हैं या कपास के बीच में पत्थर भर देते हैं। लेकिन ये दोनों ही गांव-देहात से आते हैं। खेती-किसानों को समझते हैं। वाघेला ने किसानों का काहिल कहा तो अपना समझकर उन्हें ललकारने के लिए कहा। देशमुख ने भी उन्हें अपना समझते हुए पहले कहा कि किसानों को कर्ज के बोझ से घबराकर खुदकुशी नहीं करनी चाहिए, चुनौती मानकर उसका सामना करना चाहिए। बाद में कलाकार वाली बात कह डाली।
खैर, वाघेला और देशमुख ने संवेदनहीनता का परिचय दिया है और उनकी खिंचाई होनी चाहिए, उनसे जवाब मांगा जाना चाहिए। लेकिन हमारे प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने किसानों के साथ जिस परायेपन और असंवेदनशीलता का परिचय दिया है, उस पर किसी का ध्यान ही नहीं जा रहा। मनमोहन सिंह का कहना है कि किसानों को मुफ्त बिजली मिल रही है, इसलिए वे पंपसेटों से अनाप-शनाप पानी खींच रहे हैं और धरती के भीतर से ज्यादा पानी खींचने से पर्यावरण को खतरा पैदा हो रहा है। प्रधानमंत्री कल दिल्ली में भूजल पर आयोजित राष्ट्रीय सम्मेलन में बोल रहे थे।
मनमोहन सिंह जी, इस तरह की बात कहकर आपने दिखा दिया कि आप हमेशा बाबू के बाबू ही रहेंगे और किसानों के बारे में आपकी समझ बेहद खोखली है। हमारे किसान प्रकृति की गोद मे रहते हैं तो उसे मां की तरह पूजते भी हैं। तालाब बनाना, पेड़ लगाना उनके खून में है, परंपरा में है। इसके लिए उन्हें किसी सरकार के फरमान या एनजीओ की सलाह की ज़रूरत नहीं होती। वो इतने मूर्ख नहीं हैं कि मुफ्त बिजली मिलने के कारण फसल में इतना पानी डाल दें जितनी उसे चाहिए ही नहीं। वो जानते हैं कि गन्ने और धान को ज्यादा पानी चाहिए और अरहर, गेहूं, मटर या तिलहनों को कम पानी चाहिए होता है।
मनमोहन सिंह जी, आपको फटेहाल किसानों से दमड़ी वसूलनी है, बिजली की कीमत लेनी है तो साफ कहिए। घुमा-फिराकर क्यों कह रहे हैं? किसानों को मुफ्तखोर क्यों कह रहे हैं? बिजली से लेकर पानी और तमाम सुविधाओं की कीमत वसूलना आपके आर्थिक सुधार कार्यक्रम का पुराना एजेंडा है तो खुलकर कहिए। मुंह में राम, बगल में छूरी तो लेकर मत चलिए। चलिए, कपड़ा मंत्री, मुख्यमंत्री और अब आपने किसानों के बारे में कांग्रेस और सरकार की सोच साफ कर दी। इसके लिए आप तीनों का बहुत-बहुत शुक्रिया।

अंत में कुछ आंकड़े फेंकना चाहता हूं, जिनके बीच का सच आप खुद ढूंढकर निकाल सकते हैं और आम किसानों के प्रति सरकार की नीयत को समझ सकते हैं। केंद्रीय कृषि मंत्रालय के मुताबिक वित्त वर्ष 2006-07 में कृषि क्षेत्र को 2,03,297 करोड़ रुपए का कर्ज दिया गया, जबकि लक्ष्य 1,75,000 करोड़ रुपए का था। यह राशि पिछले वित्त वर्ष 2005-06 में दिए गए 1,80,486 करोड़ रुपए के कर्ज से 22,811 करोड़ रुपए यानी 13 फीसदी ज्यादा है। लेकिन इसी रिपोर्ट के मुताबिक लघु और सीमांत किसानों को कर्ज देने के मामले में संतोषजनक प्रगति नहीं हुई है। और, कृषि मंत्री शरद पवार के मुताबिक देश के 82 फीसदी किसानों के पास ढाई एकड़ से कम ज़मीन है। ध्यान दें, इन्हीं किसानों को सरकारी जुबान में लघु और सीमांत किसान कहा जाता है।

3 comments:

Sanjay Tiwari said...

यह भी ठीक नहीं है कि किसान को कर्जदार बनाने को सफलता के तौर पर देखा जाए. इस पर विस्तार से और नये सिरे से सोचने की जरूरत है.

राजेश कुमार said...

सिर्फ किताबी नेताओं को देश का प्रधान मंत्री नहीं बनाना चाहिये। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के बयानों से यही लगता है कि उन्हें खेती की जानकारी है ही नहीं। प्रधानमंत्री जी, अमेरिका के परमाणु के बिना जीवित रहा जा सकता है लेकिन भारतीय किसानों के अन्न के बिना जीवित रहना अंसभव है।

बसंत आर्य said...

चलिए सबने अपनी कह दी जरा किसानो से भी तो पूछ कर देखिए