सिमट रहा है भगवान तो सिमटने दो न!

“तुम कहां के और मैं कहां की... और हम मिले तो कहां आकर और किन हालात में!! कोई दूर-दूर तक ऐसा सोच भी नहीं सकता था। मैं भगवान को नहीं मानती। लेकिन कोई तो ताकत है जो हमें देख रही है, हमारी किस्मत की डोर जिसके हाथों में है। उसे भगवान कह लो या कोई अदृश्य ताकत।”
उस जैसी घोर नास्तिक और कर्मकांड-विरोधी लड़की के ये शब्द मुझे अच्छी तरह याद हैं। ऐसा ही तो होता है, जहां कोई ओर-छोर पकड़ में नहीं आता, कोई तर्क नहीं सूझता, वहां उस गैप में हम भगवान को फिट कर देते हैं। बीज मिट्टी से होते हुए, फिर पौधे से होते हुए जब फूल बन जाता है तो हम मिट्टी के फूल बन जाने के चमत्कार पर मुदित हो जाते हैं, बोल पड़ते हैं – कोई तो है सृष्टि रचयिता।
हम फिजिक्स में भी यही करते हैं। जब किन्हीं दो चीजों के बीच ठीक बराबरी नहीं बन पाती तो दोनों के आनुपातिक घट-बढ़ के रिश्ते में एक कांस्टैंट लगा देते हैं। E = mc*c, जहां सी प्रकाश की गति है और कांस्टैंट है। लेकिन रिश्ता जैसे-जैसे बारीकी से परिभाषित होता चलता है वैसे-वैसे ये कांस्टैंट घटता जाता है। ये अलग बात है कि अनिश्चितता अनंत समय तक बनी रहेगी, इसलिए कांस्टैंट भी अनंत समय तक बना रहेगा और शायद भगवान का स्पेस भी।
हम जहां तक देख सकते हैं, वहां तक बखूबी देखते हैं। बाकी भगवान पर डाल देते हैं। लेकिन देखने की सीमा भी तो सीमित नहीं है। छत पर एंटिना लगाएंगे तो दूरदर्शन दिखेगा, केबल लगाएंगे सौ-सवा सौ चैनल दिखेंगे, डीटीएच और आईपीटीवी तक जाएंगे तो चैनल मनमाफिक होने के साथ और ज्यादा हो जाएंगे।
मुझे आश्चर्य होता है जब फिजिक्स के प्रोफेसर विज्ञान और ईश्वर को साथ-साथ स्थापित करते हैं। आइंसटाइन तक को अपने पक्ष में लाकर खड़ा कर देते हैं। इसमें इलाहाबाद विश्वविद्यालय के मेरे दो गुरु नरेंद्र सिंह गौड़ और मुरली मनोहर जोशी शामिल हैं। लेकिन ये वो लोग हैं जिनमें वैज्ञानिक की अदम्य तड़प नहीं होती। वे एक हद तक जाने के बाद थककर चुक जाते हैं। यात्रा छोड़कर बीच में थियराइजेशन करने बैठ जाते हैं और विज्ञान, दर्शन और अपने पूर्वाग्रहों को गड्डम-गड्ड कर देते हैं। इसीलिए ये लोग प्रोफेसर से पुजारी और नेता तो बन जाते हैं, लेकिन वैज्ञानिक कभी नहीं बन सकते। वैज्ञानिक बनने के लिए ऋषि की तपस्या चाहिए, कठोर साधक की साधना चाहिए।
शंकराचार्य तक ने कहा था कि अविद्या के मिटते ही जीव और परमात्मा एक हो जाते हैं। यह अविद्या, यह अज्ञान कैसे और कब मिटता है? ऐसे और तब, जब हमारा समय जहां तक हमें अधिकतम दिखा सकता है, हम वहां तक देख लेते हैं, समझ लेते हैं। बस्स, सुषुम्ना नाड़ी खुल जाती है, सहस्रार कमल खिल जाता है। हम कबीर के शब्दों में कहने लगते हैं – संतो आई ज्ञान की आंधी, भ्रम की टाटी सभी उड़ानी, माया रही न बांधी रे।
अंत में भगवान के मिटते जाने का एक और संकेत। हमारे वैज्ञानिक कोशिका का मेम्ब्रेन बना रहे है, इसके बाद इसमें डीएनए की संरचना में शामिल न्यूक्लियोटाइड को सही अनुपात में डाला जाएगा और इस क्रम में ऐसा मेटाबोलिज्म बना लिया जाएगा, जो वातावरण से अपनी खुराक खींचकर उसे ऊर्जा में तब्दील कर लेगा। वैज्ञानिकों ने अभी हाल ही में दावा किया है कि वे तीन से दस साल में इस तरह का कृत्रिम जीवन बनाने में कामयाब हो जाएंगे। साफ-सी बात है, हम प्रकृति को नहीं बदल सकते हैं, लेकिन उसके नियमों को समझकर ‘क्रिएटर’ ज़रूर बन सकते हैं।

Comments

ghughutibasuti said…
अच्छा लेख । 'तुम कहाँ के मैं कहाँ की' इस तरह की बातों में हम यह मान कर चल सकते हें कि जो हुआ रेन्डम (अटकलपच्चू ) हुआ । बीज के फूल और फूल से फिर बीज बनने की प्रक्रिया तो बच्चों को भी सिखाई जाती है ।
यह भी तो कह सकते हैं कि जब कोई प्रश्न अनुत्तरित रह जाए तो यह कहने की बजाए कि 'मुझे इसका उत्तर नहीं पता, या अभी इसका उत्तर खोजा जा रहा है' हम सारी समस्या भगवान पर डाल निश्चिन्त हो जाते हैं । अपने अग्यान को छिपाने के लिए भगवान एक ढाल है ।
घुघूती बासूती
प्रिय अनिल,

लेख पढ के अच्छा लगा. काफी सटीक तरीके से लिखते हो. लिखते रहो, मुझ जैसे आस्तिक सबसे पहले आप जैसे नास्तिकों का लेख पढते है जो सटीक तरीके से लिखना जानते हैं.

हम आपसे सहमत हो पाये या नहीं, हम बहुत कुछ सीख जरूर पाते हैं. एक आस्तिक के द्वारा एक नास्तिक के जीवन में इससे बडा क्या योगदान होगा. अत: इस लेख के लिये मेरा अभार स्वीकार करें. आगे भी पढता रहूंगा -- शास्त्री जे सी फिलिप

हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
Pratyaksha said…
"साफ-सी बात है, हम प्रकृति को नहीं बदल सकते हैं, लेकिन उसके नियमों को समझकर ‘क्रिएटर’ ज़रूर बन सकते हैं। "

शायद ये भी डेस्टाईंड हो , कौन जाने । किसी कॉस्मिक़ खेल का नया प्रोग्रेशन ।
Devi Nangrani said…
हम वहां तक देख लेते हैं, समझ लेते हैं। बस्स, सुषुम्ना नाड़ी खुल जाती है, सहस्रार कमल खिल जाता है।
अनिल जी
ग ह्राइयों त्क डूब्ने मेज़ स्फ़्ल प़्र्यास खूब आच़्छअ ल्ग. लिख्ते र्हॊ.
देवी ्नग्रानी

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