हम बातें कम, प्रवचन ज्यादा करते हैं
अभी हाल ही में एक जानेमाने टेलिविजन पत्रकार ने अपने ब्लॉग पर सवाल पूछा कि आपको यहां आने से क्या मिलता है तो एक-तिहाई पाठकों का जवाब था भाषणबाज़ी। अचानक मुझे इलहाम-सा हुआ कि मैं भी तो ज्यादातर यही करता हूं। अक्सर यही होता है कि या तो आप सामनेवाले को दीवार मानकर उससे बात कर रहे होते हैं या खुद से एकालाप कर रहे होते हैं। सामने वाले इंसान का प्रोफाइल क्या है, वह क्या जानता है और क्या नहीं जानता, उसके भावनात्मक शून्य क्या हैं? हमें इसकी कोई परवाह नहीं होती। हमें तो बस कुछ न कुछ लिखना होता है तो लिखते रहते हैं।
सोचता हूं कि मेरा ब्लॉग पढ़नेवाला मेरे सामने बैठा होता, तब भी क्या मैं उसे इसी अंदाज में भाषण पिलाता। शायद नहीं, क्योंकि उसके चेहरे के भाव बता देते कि मैं क्यों बकवास किए जा रहा हूं। तब मैं शायद इतनी लिबर्टी नहीं ले पाता। उससे बात करता, कोई आधी-अधूरी घुट्टी नहीं पिलाता। लेकिन आज तो बात करनी ही शायद सबसे ज्यादा मुश्किल हो गई है। जिससे आप बात करते हो, खुद उसके पास सुनाने को बहुत होता है, दिखाने को बहुत होता है। श्रोता कोई नहीं, सारे वक्ता ही वक्ता हैं।
यहीं पर गांधी जी की सुनी-सुनाई बात याद आ गई। वह कहा करते थे – बोलो कम, सुनो ज्यादा, पढ़ो ज्यादा और सोचो उससे भी ज्यादा। सोचता हूं, ब्लॉग पर कैसे इसे लागू कर सकता हूं। अगर सिर्फ सोचता रहूंगा तो कुछ लिख नहीं पाऊंगा क्योंकि सोच तो खटाखट पटरियां बदलती रहती है। चिनगारी की तरह फुदकती और उड़न-तश्तरी की तरह गायब हो जाती है। उसे थामकर साध पाना बड़ा मुश्किल होता है। सुनूं ज्यादा, मतलब ज्यादा से ज्यादा ब्लॉग पढूं। तो, यह संभव नहीं है। अपनी ही पोस्ट बिला नागा चढ़ा दूं, इसी के लिए समय निकालना पड़ता है। ऊपर से दूसरे ब्लॉगों को पढ़ने बैठ गया तो हो गया कल्याण।
फिर ये भी लगता है कि ब्लॉगों को पढ़ने का क्या फायदा, सरसरी निगाह से देख लेना ही काफी है। लेकिन सरसरी निगाह से किसी की विचार-प्रक्रिया कैसे पकड़ी जा सकती है। कैसे समझा जा सकता है कि विचार किस भावभूमि से निकल कर आ रहे हैं। और सामनेवाले को समझोगे नहीं तो बात क्या करोगे? बस, भाषणबाज़ी चलती रहेगी। फिर, हिंदी ब्लॉग की दुनिया का वही शास्त्रीय सवाल कि आप दूसरों का नहीं पढ़ोगे तो आपका लिखा कौन पढ़ेगा? आप टिप्पणी नहीं करोगे तो दूसरा क्यों टिप्पणी करेगा?
क्या इस समय हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया में जो लेखक है, वही पाठक हैं? इसका मतलब कि ज्यादा पाठक पाने हैं तो पहले ज्यादा से ज्यादा लेखक होने पड़ेंगे। सभी ब्लॉगर एक दूसरे को पढेंगे, टिप्पणियां पाने के लिए टिप्पणी करेंगे। क्या गजब की समानता होगी! आदर्श स्थिति में सभी हिंदी ब्लॉगों के पाठकों की संख्या बराबर होगी!! लेकिन सांप अपनी ही पूंछ को निगलता रहे, ऐसा कैसे और कब तक चलता रह सकता है?
कभी-कभार दोस्तों के फोन वगैरह से पता चलता है कि हिंदी ब्लॉगों के ऐसे भी पाठक है जो खुद ब्लॉगर नहीं हैं। ऐसे लोग इसे वैकल्पिक मीडिया के रूप में देख रहे हैं। ऐसा मीडिया जो व्यावसायिक या राजनीतिक हितों से नहीं संचालित होगा। ऐसा मीडिया जो बस सूचनाएं और विचार फेंकेगा नहीं, उनको शेयर करेगा। पराया नहीं, अपना-सा होगा, सगा-सा होगा। भाषण नहीं देगा, बातें करेगा पूरे दुनिया-जहान की, जिसमें अंदर का भाव संसार होगा तो बाहर का उलझा संसार भी। जहा हर गुत्थी को सुलझाने की ईमानदार कोशिश होगी। न तो लफ्फाजी होगी और न ही प्रवचन।
वैसे, हम खुद क्या चाहते हैं, इसे समझ लें तो शायद यही दूसरों को, अपने पाठकों को समझने की कुंजी साबित हो जाए। (आ गया न प्रवचन पर!!!) हमारे लिए कंपनियों की तरह सर्वे कराना तो संभव नहीं है कि उपभोक्ता की मांग क्या है, उसका टेस्ट क्या है, वह हमसे चाहता क्या है?
सोचता हूं कि मेरा ब्लॉग पढ़नेवाला मेरे सामने बैठा होता, तब भी क्या मैं उसे इसी अंदाज में भाषण पिलाता। शायद नहीं, क्योंकि उसके चेहरे के भाव बता देते कि मैं क्यों बकवास किए जा रहा हूं। तब मैं शायद इतनी लिबर्टी नहीं ले पाता। उससे बात करता, कोई आधी-अधूरी घुट्टी नहीं पिलाता। लेकिन आज तो बात करनी ही शायद सबसे ज्यादा मुश्किल हो गई है। जिससे आप बात करते हो, खुद उसके पास सुनाने को बहुत होता है, दिखाने को बहुत होता है। श्रोता कोई नहीं, सारे वक्ता ही वक्ता हैं।
यहीं पर गांधी जी की सुनी-सुनाई बात याद आ गई। वह कहा करते थे – बोलो कम, सुनो ज्यादा, पढ़ो ज्यादा और सोचो उससे भी ज्यादा। सोचता हूं, ब्लॉग पर कैसे इसे लागू कर सकता हूं। अगर सिर्फ सोचता रहूंगा तो कुछ लिख नहीं पाऊंगा क्योंकि सोच तो खटाखट पटरियां बदलती रहती है। चिनगारी की तरह फुदकती और उड़न-तश्तरी की तरह गायब हो जाती है। उसे थामकर साध पाना बड़ा मुश्किल होता है। सुनूं ज्यादा, मतलब ज्यादा से ज्यादा ब्लॉग पढूं। तो, यह संभव नहीं है। अपनी ही पोस्ट बिला नागा चढ़ा दूं, इसी के लिए समय निकालना पड़ता है। ऊपर से दूसरे ब्लॉगों को पढ़ने बैठ गया तो हो गया कल्याण।
फिर ये भी लगता है कि ब्लॉगों को पढ़ने का क्या फायदा, सरसरी निगाह से देख लेना ही काफी है। लेकिन सरसरी निगाह से किसी की विचार-प्रक्रिया कैसे पकड़ी जा सकती है। कैसे समझा जा सकता है कि विचार किस भावभूमि से निकल कर आ रहे हैं। और सामनेवाले को समझोगे नहीं तो बात क्या करोगे? बस, भाषणबाज़ी चलती रहेगी। फिर, हिंदी ब्लॉग की दुनिया का वही शास्त्रीय सवाल कि आप दूसरों का नहीं पढ़ोगे तो आपका लिखा कौन पढ़ेगा? आप टिप्पणी नहीं करोगे तो दूसरा क्यों टिप्पणी करेगा?
क्या इस समय हिंदी ब्लॉगिंग की दुनिया में जो लेखक है, वही पाठक हैं? इसका मतलब कि ज्यादा पाठक पाने हैं तो पहले ज्यादा से ज्यादा लेखक होने पड़ेंगे। सभी ब्लॉगर एक दूसरे को पढेंगे, टिप्पणियां पाने के लिए टिप्पणी करेंगे। क्या गजब की समानता होगी! आदर्श स्थिति में सभी हिंदी ब्लॉगों के पाठकों की संख्या बराबर होगी!! लेकिन सांप अपनी ही पूंछ को निगलता रहे, ऐसा कैसे और कब तक चलता रह सकता है?
कभी-कभार दोस्तों के फोन वगैरह से पता चलता है कि हिंदी ब्लॉगों के ऐसे भी पाठक है जो खुद ब्लॉगर नहीं हैं। ऐसे लोग इसे वैकल्पिक मीडिया के रूप में देख रहे हैं। ऐसा मीडिया जो व्यावसायिक या राजनीतिक हितों से नहीं संचालित होगा। ऐसा मीडिया जो बस सूचनाएं और विचार फेंकेगा नहीं, उनको शेयर करेगा। पराया नहीं, अपना-सा होगा, सगा-सा होगा। भाषण नहीं देगा, बातें करेगा पूरे दुनिया-जहान की, जिसमें अंदर का भाव संसार होगा तो बाहर का उलझा संसार भी। जहा हर गुत्थी को सुलझाने की ईमानदार कोशिश होगी। न तो लफ्फाजी होगी और न ही प्रवचन।
वैसे, हम खुद क्या चाहते हैं, इसे समझ लें तो शायद यही दूसरों को, अपने पाठकों को समझने की कुंजी साबित हो जाए। (आ गया न प्रवचन पर!!!) हमारे लिए कंपनियों की तरह सर्वे कराना तो संभव नहीं है कि उपभोक्ता की मांग क्या है, उसका टेस्ट क्या है, वह हमसे चाहता क्या है?
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