इतिहास नहीं, हमारे लिए तो मिथक ही सच
इतिहास के प्रोफेसरों के लिए राम-कृष्ण भले ही काल्पनिक चरित्र हों, लेकिन मेरे जैसे आम भारतीय के लिए राम और कृष्ण किसी भी चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, अकबर, औरंगजेब या बहादुर शाह जफर से ज्यादा प्रासंगिक हैं। राम अयोध्या में जन्मे हों या न हों, कृष्ण द्वारकाधीश रहे हों या न हों, लेकिन हमारे लिए ये किसी भी ऐतिहासिक हस्ती से कहीं ज्यादा मतलब के हैं। गौतम बुद्ध, महावीर, कबीर तो इतिहास के वास्तविक चरित्र रहे हैं, जिनके जन्म से लेकर मरने तक के साल का पता है, लेकिन हमारे लिए इनकी ऐतिहासिक नहीं, बल्कि मिथकीय अहमियत ज्यादा है। रामचरित मानस की चौपाइयां, गीता के श्लोक, बुद्ध की जातक कथाएं और कबीर-रहीम के दोहे हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी को सजाते-संवारते हैं।
हमारे लिए इतिहास तो स्कूल-कॉलेज और विश्व विद्यालय में पढ़ाया जानेवाला एक उबाऊ विषय भर है जिसे हम पास होने के लिए रटते रहे हैं। वह कहीं से हमारे भीतर कोई इतिहास बोध नहीं पैदा करता। ऐसा नहीं होता कि इतिहास पढ़कर हम अपनी पूरी सभ्यता की निरंतरता से परिचित हो जाएं। इतिहास का पढ़ा-पढ़ाया कुछ सालों बाद जेहन से कपूर की तरह काफूर हो जाता है।
बस मोटामोटी जानकारी बची रहती है कि अशोक का हृदय परिवर्तन कलिंग के युद्ध के बाद हुआ था, मुसलमानों से भारत पर हमला किया था, मुगलों से कई सदियों तक भारत पर शासन किया, अंग्रेजों से दो सौ सालों तक हमें गुलाम बनाए रखा और फिर गांधीजी की अगुआई में हमने आज़ादी हासिल की। 1857 में मंगल पांडे हुए थे। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। तात्या टोपे भी थे, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद भी। बस, इतिहास हमारे लिए यहीं कहीं आकर खत्म हो जाता है।
असल में हमारे ‘इतिहास’ के साथ विकट समस्या है। यह गुजरे कल की सच्चाई को सामने लाने के बजाय छिपाने का ज्यादा काम करता है। जैसे हमें कभी नहीं बताया गया कि भारत में मंदिर और मठों का निर्माण ईसा-पूर्व चौथी शताब्दी के आसपास बौद्ध दर्शन के असर को काटने के लिए हुआ। बौद्ध मठों का जवाब थे देवी-देवताओं के मंदिर। मुझे भी नहीं पता चलता अगर अभय तिवारी ने कुछ दिनों पहले इस हकीकत से वाकिफ नहीं कराया होता। इससे पहले तो हिंदू लोग वरुण, अग्नि, इंद्र, सूर्य और चंद्र जैसी प्राकृतिक शक्तियों की ही पूजा करते थे। आज भी अंधविश्वासों की मुखालफत करनेवाले लोग कहते हैं कि हमें प्रकृति को मानना चाहिए और प्राकृतिक शक्तियों की ही आराधना करनी चाहिए। उन्हें याद दिलाना पड़ता है कि हिंदू धर्म में मूलत: तो ऐसा ही था।
अगर प्राचीन इतिहास को सही तरीके से पढ़ाया गया होता तो आज अधिकांश भारतीय यह नहीं मानते कि लाखों साल पहले द्वापर युग में कृष्ण और त्रेता युग में राम ने अवतार लिया था। बताते हैं कि जिन लोगों मे राम और कृष्ण के सगुण रूप की रचना की होगी, उन्होंने ऐसा करते वक्त गौतम बुद्ध और उस समय के प्रतापी राजाओं की शक्ल को ध्यान में रखा था। विष्णु, राम और कृष्ण हमारे मिथकों में, कल्पना में रहे होंगे, लेकिन उन्होंने साकार रूप लिया गौतम बुद्ध के आने के बाद। फिर कैसे ये लोग दो-ढाई लाख साल पुराने हो सकते हैं?
लेकिन यह सब कहीं भी भारतीय लोक-स्मृति में दर्ज नहीं है। राम और कृष्ण भले ही मिथकीय चरित्र हों, लेकिन उनकी छवि हमारे डीएनए में छपी हुई है। अगर राम नहीं थे तो राजा जनक भी नहीं रहे होंगे। लेकिन जब भी महायोगी की बात आती है तो जनक का जिक्र होना लाज़िमी है।
मिथकों की बातें भले ही गलत हों, लेकिन जब तक सही इतिहास के ज्ञान से उनको विस्थापित नहीं किया जाएगा, तब तक वे ही हमारे लिए अतीत की असली छवियां बनी रहेंगी। जब भी कोई कहेगा कि राम और कृष्ण काल्पनिक चरित्र हैं, रामसेतु एक प्राकृतिक संरचना है, उसे राम की अगुआई में वानरसेना ने नहीं बनाया था तो हम तुनक कर खड़े हो जाएंगे। अरे, आप कुछ दे तो रहे नहीं हो, ऊपर से सब कुछ छीने लिए जा रहे हो!! ऐसा कैसे हो सकता है?
हमारे लिए इतिहास तो स्कूल-कॉलेज और विश्व विद्यालय में पढ़ाया जानेवाला एक उबाऊ विषय भर है जिसे हम पास होने के लिए रटते रहे हैं। वह कहीं से हमारे भीतर कोई इतिहास बोध नहीं पैदा करता। ऐसा नहीं होता कि इतिहास पढ़कर हम अपनी पूरी सभ्यता की निरंतरता से परिचित हो जाएं। इतिहास का पढ़ा-पढ़ाया कुछ सालों बाद जेहन से कपूर की तरह काफूर हो जाता है।
बस मोटामोटी जानकारी बची रहती है कि अशोक का हृदय परिवर्तन कलिंग के युद्ध के बाद हुआ था, मुसलमानों से भारत पर हमला किया था, मुगलों से कई सदियों तक भारत पर शासन किया, अंग्रेजों से दो सौ सालों तक हमें गुलाम बनाए रखा और फिर गांधीजी की अगुआई में हमने आज़ादी हासिल की। 1857 में मंगल पांडे हुए थे। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। तात्या टोपे भी थे, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद भी। बस, इतिहास हमारे लिए यहीं कहीं आकर खत्म हो जाता है।
असल में हमारे ‘इतिहास’ के साथ विकट समस्या है। यह गुजरे कल की सच्चाई को सामने लाने के बजाय छिपाने का ज्यादा काम करता है। जैसे हमें कभी नहीं बताया गया कि भारत में मंदिर और मठों का निर्माण ईसा-पूर्व चौथी शताब्दी के आसपास बौद्ध दर्शन के असर को काटने के लिए हुआ। बौद्ध मठों का जवाब थे देवी-देवताओं के मंदिर। मुझे भी नहीं पता चलता अगर अभय तिवारी ने कुछ दिनों पहले इस हकीकत से वाकिफ नहीं कराया होता। इससे पहले तो हिंदू लोग वरुण, अग्नि, इंद्र, सूर्य और चंद्र जैसी प्राकृतिक शक्तियों की ही पूजा करते थे। आज भी अंधविश्वासों की मुखालफत करनेवाले लोग कहते हैं कि हमें प्रकृति को मानना चाहिए और प्राकृतिक शक्तियों की ही आराधना करनी चाहिए। उन्हें याद दिलाना पड़ता है कि हिंदू धर्म में मूलत: तो ऐसा ही था।
अगर प्राचीन इतिहास को सही तरीके से पढ़ाया गया होता तो आज अधिकांश भारतीय यह नहीं मानते कि लाखों साल पहले द्वापर युग में कृष्ण और त्रेता युग में राम ने अवतार लिया था। बताते हैं कि जिन लोगों मे राम और कृष्ण के सगुण रूप की रचना की होगी, उन्होंने ऐसा करते वक्त गौतम बुद्ध और उस समय के प्रतापी राजाओं की शक्ल को ध्यान में रखा था। विष्णु, राम और कृष्ण हमारे मिथकों में, कल्पना में रहे होंगे, लेकिन उन्होंने साकार रूप लिया गौतम बुद्ध के आने के बाद। फिर कैसे ये लोग दो-ढाई लाख साल पुराने हो सकते हैं?
लेकिन यह सब कहीं भी भारतीय लोक-स्मृति में दर्ज नहीं है। राम और कृष्ण भले ही मिथकीय चरित्र हों, लेकिन उनकी छवि हमारे डीएनए में छपी हुई है। अगर राम नहीं थे तो राजा जनक भी नहीं रहे होंगे। लेकिन जब भी महायोगी की बात आती है तो जनक का जिक्र होना लाज़िमी है।
मिथकों की बातें भले ही गलत हों, लेकिन जब तक सही इतिहास के ज्ञान से उनको विस्थापित नहीं किया जाएगा, तब तक वे ही हमारे लिए अतीत की असली छवियां बनी रहेंगी। जब भी कोई कहेगा कि राम और कृष्ण काल्पनिक चरित्र हैं, रामसेतु एक प्राकृतिक संरचना है, उसे राम की अगुआई में वानरसेना ने नहीं बनाया था तो हम तुनक कर खड़े हो जाएंगे। अरे, आप कुछ दे तो रहे नहीं हो, ऊपर से सब कुछ छीने लिए जा रहे हो!! ऐसा कैसे हो सकता है?
Comments
आपके पीछे चल पड़ते हैं, विकास का मुद्दा गौण हो जाता है .
होना तो चाहिये कि एक विशेष समिति इसके ऊपर निगरानी करे कि हमारा यह प्रयास सही दिशा में जा रहा है या नहीं ? याकि सिर्फ़ एक खाने कमाने का जरिया या भविष्य का स्कैम बन कर रह न जाये .
पर जब कुछ अभूतपूर्व होता है तो उसका समय के साथ मिथक बनने लगता है. सेडीमेण्ट्री चट्टानों की तरह! इसी कारण से मिथक महत्वपूर्ण हैं.