हिचकते क्यों हैं, जमकर लिखिए
हिंदी ब्लॉगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। हज़ार तक जा पहुंची है। हो सकता है दो साल में बीस हज़ार तक जा पहुंचे। देश में इंटरनेट की पहुंच बढ़ने के साथ यकीनन इसमें इज़ाफा होगा। लेकिन मैं देख रहा हूं कि दिग्गज से दिग्गज लिक्खाड़ भी कुछ समय के बाद चुक जाते हैं। फिर जैसे कोई कुत्ता सूखी हुई हड्डी को चबाकर अपने ही मुंह के खून के स्वाद का मज़ा लेने लगता है, वैसे ही इनमें से तमाम लोग या तो आपस में एक दूसरे की छीछालेदर करते हैं या कोई दबी-कुचली भड़ास निकालने लगते हैं। लगता है कि इनके पास लिखने को कुछ है नहीं। विषयों का यह अकाल वाकई मुझे समझ में नहीं आता।
हमारी अंदर की दुनिया के साथ ही बाहर के संसार में हर पल परिवर्तन हो रहे हैं। मान लीजिए हम अपने अंदर ही उलझे हैं तो यकीनन बाहर के संसार को साफ-साफ नहीं देख पाएंगे। लेकिन अंदर की दुनिया में भी तो लगातार खटराम मचा रहता है। पुरानी सोच निरंतर नई जीवन स्थितियों से टकराती रहती है। संस्कार पीछा नहीं छोड़ते। नई चीजों के साथ तालमेल न बिठा पाने से खीझ होती रहती है। रिश्तों की भयानक टूटन से हम और हमारा दौर गुज़र रहा है। हमने ब्लॉग बनाया है तो यही साबित कर देता है कि इस टूटन की बेचैनी हमारे अंदर भी है। क्या ये अंदर की दुनिया आपको रोज़ नए-नए विषय नहीं देती?
हां, ये हो सकता है कि आत्म-प्रदर्शन आपको बुरा लगता हो। आप अपनी निजता की हिफाजत पूरी शिद्दत से करना चाहते हों। लेकिन नटनी जब बांस पर चढ़ गई तो काहे की शर्म। लिखने बैठ ही गए हैं तो अपने नितांत निजी अनुभवों का सामान्यीकरण करके पेश करने में क्या हर्ज है? ये ब्लॉग है, साहित्य का मंच नहीं। यहां तो आप कच्चा-पक्का कुछ भी लिख सकते हैं। आप जमींदार है, सूखा-गीला कुछ भी करें, आपकी मर्जी। असल में आप लिखते हैं तो बहुत से लोगों को संबल मिल जाता है कि और भी लोग हैं जो हमारी जैसी सोच और उलझनों से गुज़र रहे हैं।
कभी-कभी ये भी हो सकता है कि हमें लगे कि क्या लिखें, दूसरे भी यही कुछ लिख रहे हैं। जैसे मंच पर जब हमारे बोलने का नंबर आता है तो हम बोलने से यह कहते हुए आनाकानी करते हैं कि सब कुछ तो बोला जा चुका है। लेकिन हकीकत यह है कि हम सब कई मायनों में यूनीक हैं जैसे हरेक जेबरा पर पड़ी लकीरें कभी भी एक-सी नहीं होतीं। फिर हमें मंच पर भाषण थोड़े ही देना है! हमें तो अकेले में लिखना है। इसमें काहे की हिचक?
अब मान लीजिए कि आपने अंदर की दुनिया की उलझनें बहुत हद तक सुलझा ली हैं तो बाहर का संसार हर दिन नई चुनौतियां फेंकता है। हम सभी का नज़रिया अलग हो सकता है। हम बाहर के संसार के विभिन्न अंशों को अलग-अलग तरीके से देख सकते हैं, व्याख्यायित कर सकते हैं। सड़क से लेकर दफ्तर तक, मोहल्ले से लेकर शहर तक, राज्य से लेकर देश तक और देश से लेकर विश्व तक हज़ारों नहीं तो कम से कम दसियों चीज़ें तो घटती ही हैं। हम इनमें किसी भी सुविधाजनक विषय पर लिख सकते हैं। विषयों का अंबार है। फिर भी जल बीच मीन पियासी!!!
मैं तो अपने बारे में यही पाता हूं कि अंदर की दुनिया और बाहर के संसार की तब्दीलियां मुझे लगातार आंदोलित किए रहती हैं। इसीलिए कोई व्यक्तिगत फंसान न आए तो मैं तो रोज़ दो पोस्ट लिखने लगा हूं। सुबह की पोस्ट अंदर की दुनिया पर और शाम की पोस्ट बाहर के संसार पर। इसके बावजूद विषयों का बैक-लॉग बढ़ता ही जा रहा है। ऊपर से, ब्लॉग शुरू करने से पहले की टनों सामग्री अलग से माथे में धमाल मचाए रहती है।
बस एक ही बात मुझे समझ में आती है कि धंधे और नौकरी के दबाव में हमें लिखने की फुरसत नहीं मिलती होगी। लेकिन हमारे यहां यह भी तो कहा गया है कि ज़िंदगी जब तक रहेगी, फुरसत न होगी काम से, कुछ समय ऐसा निकालो, प्रेम कर लो राम से। ब्लॉग लिखना राम के प्रेम से कम नहीं है। एक बात और कि किसी और ने कहा हो या न कहा हो, मैं तो यही कहता हूं कि तनावों से भरी आज की ज़िंदगी में लिखना अपने-आप में किसी थैरेपी से कम नहीं है।
हमारी अंदर की दुनिया के साथ ही बाहर के संसार में हर पल परिवर्तन हो रहे हैं। मान लीजिए हम अपने अंदर ही उलझे हैं तो यकीनन बाहर के संसार को साफ-साफ नहीं देख पाएंगे। लेकिन अंदर की दुनिया में भी तो लगातार खटराम मचा रहता है। पुरानी सोच निरंतर नई जीवन स्थितियों से टकराती रहती है। संस्कार पीछा नहीं छोड़ते। नई चीजों के साथ तालमेल न बिठा पाने से खीझ होती रहती है। रिश्तों की भयानक टूटन से हम और हमारा दौर गुज़र रहा है। हमने ब्लॉग बनाया है तो यही साबित कर देता है कि इस टूटन की बेचैनी हमारे अंदर भी है। क्या ये अंदर की दुनिया आपको रोज़ नए-नए विषय नहीं देती?
हां, ये हो सकता है कि आत्म-प्रदर्शन आपको बुरा लगता हो। आप अपनी निजता की हिफाजत पूरी शिद्दत से करना चाहते हों। लेकिन नटनी जब बांस पर चढ़ गई तो काहे की शर्म। लिखने बैठ ही गए हैं तो अपने नितांत निजी अनुभवों का सामान्यीकरण करके पेश करने में क्या हर्ज है? ये ब्लॉग है, साहित्य का मंच नहीं। यहां तो आप कच्चा-पक्का कुछ भी लिख सकते हैं। आप जमींदार है, सूखा-गीला कुछ भी करें, आपकी मर्जी। असल में आप लिखते हैं तो बहुत से लोगों को संबल मिल जाता है कि और भी लोग हैं जो हमारी जैसी सोच और उलझनों से गुज़र रहे हैं।
कभी-कभी ये भी हो सकता है कि हमें लगे कि क्या लिखें, दूसरे भी यही कुछ लिख रहे हैं। जैसे मंच पर जब हमारे बोलने का नंबर आता है तो हम बोलने से यह कहते हुए आनाकानी करते हैं कि सब कुछ तो बोला जा चुका है। लेकिन हकीकत यह है कि हम सब कई मायनों में यूनीक हैं जैसे हरेक जेबरा पर पड़ी लकीरें कभी भी एक-सी नहीं होतीं। फिर हमें मंच पर भाषण थोड़े ही देना है! हमें तो अकेले में लिखना है। इसमें काहे की हिचक?
अब मान लीजिए कि आपने अंदर की दुनिया की उलझनें बहुत हद तक सुलझा ली हैं तो बाहर का संसार हर दिन नई चुनौतियां फेंकता है। हम सभी का नज़रिया अलग हो सकता है। हम बाहर के संसार के विभिन्न अंशों को अलग-अलग तरीके से देख सकते हैं, व्याख्यायित कर सकते हैं। सड़क से लेकर दफ्तर तक, मोहल्ले से लेकर शहर तक, राज्य से लेकर देश तक और देश से लेकर विश्व तक हज़ारों नहीं तो कम से कम दसियों चीज़ें तो घटती ही हैं। हम इनमें किसी भी सुविधाजनक विषय पर लिख सकते हैं। विषयों का अंबार है। फिर भी जल बीच मीन पियासी!!!
मैं तो अपने बारे में यही पाता हूं कि अंदर की दुनिया और बाहर के संसार की तब्दीलियां मुझे लगातार आंदोलित किए रहती हैं। इसीलिए कोई व्यक्तिगत फंसान न आए तो मैं तो रोज़ दो पोस्ट लिखने लगा हूं। सुबह की पोस्ट अंदर की दुनिया पर और शाम की पोस्ट बाहर के संसार पर। इसके बावजूद विषयों का बैक-लॉग बढ़ता ही जा रहा है। ऊपर से, ब्लॉग शुरू करने से पहले की टनों सामग्री अलग से माथे में धमाल मचाए रहती है।
बस एक ही बात मुझे समझ में आती है कि धंधे और नौकरी के दबाव में हमें लिखने की फुरसत नहीं मिलती होगी। लेकिन हमारे यहां यह भी तो कहा गया है कि ज़िंदगी जब तक रहेगी, फुरसत न होगी काम से, कुछ समय ऐसा निकालो, प्रेम कर लो राम से। ब्लॉग लिखना राम के प्रेम से कम नहीं है। एक बात और कि किसी और ने कहा हो या न कहा हो, मैं तो यही कहता हूं कि तनावों से भरी आज की ज़िंदगी में लिखना अपने-आप में किसी थैरेपी से कम नहीं है।
Comments
और झटके में चला जाता है वह शायद ही लौटता हो.
विषयों का कहाँ अभाव है?
पूरी ईमान्दारी से कहता हूं कि ब्लौग से पहले भी और कई महत्वपूर्ण काम हैं.
इसीलिये नही लिख पाता तो भी कोई अफसोस नहीं होता.
समय मिल गया तो लिख लिखा लिया, नहीं तो कोई बात नहीं.
बहुत अच्छा ! अब एकाध दो लेख इस बात पर भी लिख डालों कि अन्य लोग भी कैसे इस रास्ते पर चलें -- शास्त्री जे सी फिलिप
मेरा स्वप्न: सन 2010 तक 50,000 हिन्दी चिट्ठाकार एवं,
2020 में 50 लाख, एवं 2025 मे एक करोड हिन्दी चिट्ठाकार!!
ये तो सही कहा आपने, अच्छे-अच्छे लिक्खाड़ भी कुछ महीनों बाद ढीले पड़ जाते हैं। शुरु में सभी लोग धड़ाधड़ लिखते हैं लेकिन फिर धीमे पड़ने लगते हैं।
--गुरु जी यह ब्रह्म वाक्य है.गांठ बांध ली है.
बहुत सही बात कह रहे हैं.विषयों का कब आभाव है.