एक दिन भरभरा कर गिर पड़ा राष्ट्रवाद
अमेरिका में कैलिफोर्निया प्रांत के माउंटेन व्यू शहर में घर पर डिनर किया, टोक्यो में ब्रेकफास्ट, सिंगापुर में लंच, फिर डिनर के वक्त बेंगालुरू जा पहुंचा। मौसी के घर जाकर सबसे मिला। अगले दिन वापस अमेरिकी प्रवास के लिए रवाना। फिर वीकेंड में पहुंच गया कनाडा के ओंटारियो प्रांत के यॉर्क मिल्स शहर में अपने भारतीय दोस्त से मिलने। भारत में जन्मा, अमेरिका में नौकरी। दोस्त सारी दुनिया में बिखरे हुए। काम के सिलसिले में सिंगापुर से लेकर थाईलैंड, चीन और जापान में बराबर आना-जाना। फ्रांस और जर्मनी का भी दौरा लगता रहता है। हर देश के रीति-रिवाज अलग, बोली अलग, संस्कृति अलग। फिर भी वह भारतीय है। भारतीय राष्ट्रवाद उसकी रगों में दौड़ता है।
लेकिन कभी-कभी वह सोचता है कि भारतीय राष्ट्रवाद का रंग हिंदुत्व के केसरिया रंग की तरफ क्यों झुका हुआ है। ये झुकाव बौद्ध और जैन धर्म की तरफ क्यों नहीं है? भारतीय राष्ट्रवाद बौद्ध धर्म की शरण में भी तो जा सकता था। अगर भारत के ब्रिटिश विरोधी संघर्ष ने धर्म के संदर्भों में बौद्ध धर्म की दिशा पकड़ी होती तो शायद भारत आज दुनिया के सबसे विकसित देशों में शुमार होता। हम अब तक सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में बाह्मणवाद का खात्मा कर चुके होते।
फिर सोचता है, ग्लोबलाजेशन के इस दौर में किसी तरह के राष्ट्रवाद का कोई मतलब भी रह गया है क्या? हां, अपने रीति-रिवाज, खाने-पीने रहने की संस्कृति, दीवाली, होली, दशहरा और रक्षा बंधन के त्योहारों को वह चाहकर भी नहीं भुला सकता। शादी तो उसने अमेरिका में ही की अपनी मर्जी से, लेकिन बेंगालुरू में मौसी के यहां आया तो मंडप में दोबारा पूरी भारतीय पद्धति से सात फेरे लिए।
क्या वाकई आज की दुनिया उसके लिए वसुधैव कुटुंबकम् जैसी नहीं हो गई है? कहते भी हैं कि अब दुनिया गोल नहीं, फ्लैट हो गई है। इस तरह की ऊहापोह उसके मन में निरंतर चलती रहती है। इसी तरह एक शाम वह अकेला बैठा सोच रहा था कि अचानक उसका राष्ट्रवाद उसके भीतर से ऐसे भरभराकर गिर पड़ा, जैसे शरीर में लगा गीली मिट्टी का लेप सूखने पर, ज़रा-सा हिलो तो तड़क-तड़क कर गिर जाता है। उसे लगा कि वह रहा होगा कभी भारतीय, अब तो वह एक ग्लोबल सिटिजन है, सारी दुनिया जिसकी कर्मभूमि है, जिसका एक छोटा-सा हिस्सा भारत भी है।
लेकिन कभी-कभी वह सोचता है कि भारतीय राष्ट्रवाद का रंग हिंदुत्व के केसरिया रंग की तरफ क्यों झुका हुआ है। ये झुकाव बौद्ध और जैन धर्म की तरफ क्यों नहीं है? भारतीय राष्ट्रवाद बौद्ध धर्म की शरण में भी तो जा सकता था। अगर भारत के ब्रिटिश विरोधी संघर्ष ने धर्म के संदर्भों में बौद्ध धर्म की दिशा पकड़ी होती तो शायद भारत आज दुनिया के सबसे विकसित देशों में शुमार होता। हम अब तक सामाजिक जीवन के हर क्षेत्र में बाह्मणवाद का खात्मा कर चुके होते।
फिर सोचता है, ग्लोबलाजेशन के इस दौर में किसी तरह के राष्ट्रवाद का कोई मतलब भी रह गया है क्या? हां, अपने रीति-रिवाज, खाने-पीने रहने की संस्कृति, दीवाली, होली, दशहरा और रक्षा बंधन के त्योहारों को वह चाहकर भी नहीं भुला सकता। शादी तो उसने अमेरिका में ही की अपनी मर्जी से, लेकिन बेंगालुरू में मौसी के यहां आया तो मंडप में दोबारा पूरी भारतीय पद्धति से सात फेरे लिए।
क्या वाकई आज की दुनिया उसके लिए वसुधैव कुटुंबकम् जैसी नहीं हो गई है? कहते भी हैं कि अब दुनिया गोल नहीं, फ्लैट हो गई है। इस तरह की ऊहापोह उसके मन में निरंतर चलती रहती है। इसी तरह एक शाम वह अकेला बैठा सोच रहा था कि अचानक उसका राष्ट्रवाद उसके भीतर से ऐसे भरभराकर गिर पड़ा, जैसे शरीर में लगा गीली मिट्टी का लेप सूखने पर, ज़रा-सा हिलो तो तड़क-तड़क कर गिर जाता है। उसे लगा कि वह रहा होगा कभी भारतीय, अब तो वह एक ग्लोबल सिटिजन है, सारी दुनिया जिसकी कर्मभूमि है, जिसका एक छोटा-सा हिस्सा भारत भी है।
Comments
एक देश से दूसरे देश में आसानी से आना जाना और नौकरी कर लेना ही यदि 'भूमण्डलीकरण' है तो यह पहले और भी आसान हुआ करता था। Bरिटेन के आधीन दुनिया ज्यादा भूमण्दलीकृत थी। और यदि बौद्ध धर्म की तर्फ झुकाव करने से विकास आ सकता तो श्रीलंका और भूटान को सबसे विकसित देश होना चाहिये था। और केवल समानता और असमानता ही विकास की कसौटी होती तो अमेरिका (काला-गोरा) सबसे निर्धन होता और सोवियत संघ (साम्यवाद) सबसे धनी.
भविष्य में भारत वापस जाने की, समय समय पर भारत जाते रहने की, हर बात को भारत से कम्पेयर करने की मानसिकता तो हमेशा साथ होती है, एकदम भीतर धंसी. बाकि सब तो उथला सा लगता है इनके सामने.
शायद ये मेरी सोच हो.