अनागत का भय, आस्था और वर्जनाएं
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लालबाग में हर तरफ श्रद्धालुओं का हुजूम। सैकड़ों कतार में तो सैकड़ों कतार से बाहर। सभी लालबाग के राजा के दर्शन को बेताब। महिलाएं बच्चों के साथ लाइन में लगी हैं। उनके पति भी आसपास मौजूद हैं। नौजवान लड़के-लड़कियां भी हैं। गली मे, सड़क पर कचरा बिखरा है। पानी बरसने से कीचड़ हो गई है। लेकिन बूढ़े बुजुर्ग ही नहीं, जींस-टीशर्ट पहने जवान लड़कियां और लड़के नंगे पांव सड़क पर चले आ रहे हैं। हाथों में नारियल और प्रसाद का चढ़ावा है। कई तरफ से लाउडस्पीकरों पर फुल वॉल्यूम पर गणपति की वंदना हो रही है। लोग हर गली-नुक्कड़ से उमड़े चले आ रहे हैं।
सड़क के किनारे कहीं लालबाग के राजा की तस्वीरें बिक रही हैं तो कहीं नारियल और चढ़ावे के दूसरे सामान। हर कोई इस आस्था के नकदीकरण की कोशिश में लगा है। कोई आज और अभी के लिए तो कोई भविष्य के लिए। बैंकों तक ने ग्राहक पटाने के लिए बैनर लगा रखे हैं तो स्टार प्लस ने किसी गणेशा फिल्म का विज्ञापन लगा रखा है। हर न्यूज चैनल की आउटस्टेशन ब्रॉडकास्टिंग (ओबी) वैन वहां मौजूद थी। पुलिस का सख्त पहरा था। कोई अघट न हो जाए, इसके लिए सारे इंतजाम थे।
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मुझे लगता था कि जीवन-स्थितियों के गद्यात्मक होते जाने के साथ ही जो आस्था हमें परंपरा और संस्कार से मिली है, वह कहीं निजी कोने में जाकर दुबक जाएगी और तार्किकता हावी हो जाएगी। लेकिन यथार्थ में तो मैं ठीक इसका उल्टा देख रहा हूं। नौजवान पीढ़ी पर यह आस्था उन्मत्त होकर सवार हो गई है। कौन-से अनागत का भय है जो इन्हें भगवान के आश्रय में लाकर खड़ा कर दे रहा है? ज़िंदगी में क्या वाकई इतनी अनिश्चितता है? क्या आम भारतीय वाकई अंदर से इतना अकेला है कि भगवान में ही उसे अपना सच्चा हमदर्द नज़र आता है?
फिर मुझे डेरा सच्चा के गुरु से लेकर स्वामी नारायण संप्रदाय के संन्यासियों और तांत्रिकों की करतूतें याद आने लगीं कि कैसे लोगों की आस्था का फायदा उठाकर तमाम संत और मठों के स्वामी अपनी वर्जनाएं निकालते हैं। लालबाग के राजा के दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ के बीच भी मुझे ऐसी वर्जनाएं घूमती-टहलती नज़र आईं। मुझे सालों पहले इलाहाबाद में छात्रों के कमरों के दृश्य याद आने लगे जहां हनुमान, गणेश या शंकर भगवान की फोटो के बगल में किसी अर्ध-नग्न मॉडल या हीरोइन की फोटो लगी रहती थी। अनागत का भय, आस्था और वर्जनाओं में ये कैसा समन्वय है? आखिर कैसा सह-अस्तित्व है ये?
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