कहीं आप सब कुछ बता तो नहीं देते

मुझे याद है कि मेरे बचपन में मेरे कई साथी दूसरों की चिट्ठियां पढ़ लिया करते थे। वह मुझे कतई पसंद नहीं था। लेकिन मुझे तब और भी आश्चर्य हुआ जब दूसरों की प्राइवेट चिट्ठियां पढ़नेवाले लोग बच्चों में शामिल नहीं किए जा सकते। वे तरुण थे, अनुभवी थे। फिर दूसरों की निजी ज़िंदगी में, चोरी से किया गया, यह हस्तक्षेप क्यों? जब मैं इस प्रवृत्ति को जवानों और बड़े-बूढ़ों में देखता हूं, तब मुझे हंसी तो आती ही है, साथ-साथ चिढ़ भी।
चिढ़ इसलिए कि मुझे महसूस होता है कि यह प्रवृत्ति किसी अस्वस्थ, वृथा-जिज्ञासु मन की द्योतक है, कि वह दूसरों में सहज विश्वास नहीं कर पाती, इसीलिए ताक-झांक करना आवश्यक समझती है, कि वह इसीलिए चोरी-चोरी दूसरों के निजी पत्र, दूसरों की डायरियां पढ़ जाना आनंदप्रद समझती है।
मैंने ऐसे लोग देखे हैं जो यह काम बहुत चतुरतापूर्वक करते हैं। साथ ही मैंने यह भी पाया है कि उनकी प्रवृति रहस्य-भेद की प्रवृत्ति होती है। महत्वपूर्ण बात रहस्य है जो उनका अपना कल्पित किया गया है। इस रहस्य के प्रति वे प्रवृत्तिवश खिंचते चले जाते हैं, और तब उन्हें यह परवाह नहीं होती कि वे वस्तुत: दूसरों के जीवन में हस्तक्षेप कर रहे हैं – ऐसा हस्तक्षेप जो बहुत ही टुच्चा, बहुत अकारण, बहुत अकारथ और अत्यंत दीन है।
प्रत्येक व्यक्ति उजागर होने पर भी कहीं कुछ अंधेरे में रखता ज़रूर है, जैसे पैंट के नीचे चड्ढी पहनना। लेकिन यदि लोगों की जिज्ञासा चड्ढियों जैसे अंडरवेयरों में ही हो, तब गुस्सा आना स्वाभाविक ही होता है। यह चिढ़ तब तो और ज़ोरदार हो जाती है जब रहस्यभेदी व्यक्ति अपना जाना-पहचाना हो। तब लगता है कि हर आलमारी के हर दराज में हाथ डालकर देखने की उसकी इच्छा एबनॉर्मल है, अस्वास्थ्य का लक्षण है।
ऐसे लोग मौजूद हैं और मौजूद रहेंगे। वे आपके भी आसपास होंगे। लेकिन आप उन लोगों को क्या कहेंगे जो जानबूझकर अपने अंडवेयरों को दूसरों के सामने नमूनों के समान पेश करते हों। वे अपनी प्राइवेट से प्राइवेट चिट्ठियां आपके सामने धर देंगे। अगर उन्हें कोई महत्वपूर्ण और गुप्त प्रेमपत्र प्राप्त होंगे तो आप विश्वास रखिए कि वे आपको पढ़ने को मिल जाएंगे। बस केवल एक ही शर्त है, वह यह कि आप मिलनसार हों। देखिए, फिर आप पर कितना गहरा विश्वास करते हैं।
यह गहरा विश्वास जितना सहज होता है, उतना ही शीघ्र वह लुप्त हो जाता है। सच मानिए, वे आप पर वस्तुत: कतई विश्वास नहीं करते, यानि कि आप उनके हृदय के निकट नहीं पहुंचे हैं। अगर आप कहीं उनके उस विश्वास का बदला लेने लगें तो आप पाएंगे कि वस्तुत: उनका वह विश्वास, विश्वास नहीं था, केवल एक उच्छ्वास था। एक क्षणिक उच्छ्वास!
आज तक मुझे इन लोगों को मन समझ में नहीं आया है। मेरे ख्याल से, अपनी गुप्त रखने योग्य बातें उद्घाटित करने की सहज लालसा के पीछे उनके आत्म-प्रदर्शन की भावना काम करती है। एक हीन प्रकार की आत्म-प्रदर्शन भावना।
- गजानन माधव मुक्तिबोध की डायरी का एक पन्ना

Comments

मुक्तिबोध की डायरी निजी तो नहीं थी? पढ़कर अजीब सा लग रहा है..इसी बात के लिए वे दुखी थे.. वही काम कर दिया क्या हमने?

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