सोचो, किसी दिन सूरज मर गया तो...
भले ही देशों की सीमाएं बंट गई हों, समुद्र के भीतर तक सीमारेखाएं खींच दी गई हों, लेकिन पृथ्वी नहीं बंटी है, आकाश नहीं बंटा है, सूरज नहीं बंटा है, हवाएं नहीं बंटी है, समुद्र का पानी नहीं बंटा है। धरती हम सबकी है, आकाश हम सभी का है, सूरज हम में से हर एक का है, समुद्र की अथाह जलराशि हम सबकी है। कभी सफर में गौर किया है कि पृथ्वी-आकाश-वायु हमेशा हमारे साथ चलते हैं। सूरज भी तब तक हमारी ही रफ्तार से दौड़ता रहता है, जब तक वह डूब नहीं जाता। इसलिए अपने इन अभिन्न दोस्तों का ख्याल रखना हमारा फर्ज बनता है। हम यह काम राष्ट्रीय, अंतरराष्ट्रीय सरकारों पर ही नहीं छोड़ सकते। समुद्र पर सेतु तो राम की सेना ने बनाया था, लेकिन उसमें गिलहरी ने भी अपने बालों में लपेटी रेत लाकर योगदान किया था।
आज हालत ये है कि हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। नदियों का जल-स्तर बढ़ रहा है। देश में एक ही साथ बाढ़ और सूखे का प्रकोप नज़र आता है। समुद्र आसपास के निचले इलाकों को निगलने लगा है। द्वीप छोटे होते-होते गायब होते जा रहे हैं। और, यह सब हो रहा है ग्लोबल वॉर्मिग के चलते। वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ने से तापमान बढ़ रहा है। पहले विकसित देशों ने हालत बिगाड़ी। अब भारत, ब्राजील और चीन जैसे तेज़ी से बढ़ते देश इसे और बिगाड़ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के साल 2006 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक अगर मौजूदा नीतियां ही लागू रहीं तो साल 2050 तक कार्बन डाई ऑक्साइड को बढ़ाने में 70 फीसदी हिस्सा विकासशील देशों का होगा।
जो बिगड़ चुका है, उसे दुरुस्त करना मुश्किल है। लेकिन जो बिगड़ रहा है और जो बिगड़ने वाला है, उसे रोकने के उपाय किए जा सकते हैं। निजी वाहनों के बजाय सार्वजनिक वाहनों का इस्तेमाल बढ़ाया जाना चाहिए। वाहनों में पेट्रोल और डीजल के बजाय प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। दिक्कत ये है कि भारत में पर्यावरण संबंधी ज्यादातर नीतियां राज्यों के अधीन आती हैं। इसलिए इन पर राज्यों के बीच राजनीतिक सहमति बनानी ज़रूरी है। अमूमन ऐसी सहमति बनाने में दस साल लग जाते हैं। इसलिए इसकी शुरुआत जितनी जल्दी हो, कर देनी चाहिए।
मुश्किल ये भी है जो इस खतरे के बारे में सबसे कम जानते हैं, वो ही इसके सबसे पहले शिकार बननेवाले हैं। जी हां, किसानों पर ग्लोबल वॉर्मिंग की सबसे ज्यादा मार पड़ेगी। रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता खतरे को और विकराल बनाएगी। इसलिए उन्हें खाद का इस्तेमाल बदलना होगा। बारिश के सीजन में फर्क आने से फसलें चौपट हो सकती हैं। समुद्र के कोप से निचले इलाकों की जमीनें जलमग्न हो सकती हैं। मछुआरों की बस्तियां समुद्र के गाल में समा सकती हैं। तो, कहीं नदियों को बांधना होगा और कहीं हॉलैंड की तर्ज पर निचले इलाकों को बचाने के लिए बांध बनाने होंगे। पाकिस्तान से लेकर नेपाल और बांग्लादेश से नदियों के पानी पर समझौते करने होंगे।
संकट बड़ा विकट है। लेकिन एक बात साफ कर दूं कि इंसानी आबादी के बढ़ने से इसका कोई सीधा संबंध नहीं है। बात और मुद्दा जटिल है, लंबा है। इससे निपटना अकेले किसी के वश में नहीं है। हम सभी को इसे गुनना होगा, समझना होगा। अंत में प्रियंकर की शानदार कविता की शुरुआती पंक्तियां...
सबसे बुरा दिन वह होगा, जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा ‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
पृथ्वी मांग लेगी अपने नमक का मोल
मौका नहीं देगी किसी भी गलती को सुधारने का
क्रोध में कांपती हुई कह देगी जाओ तुम्हारी लीज़ खत्म हुई
यह भारत के भुज बनने का समय होगा...
आज हालत ये है कि हिमालय के ग्लेशियर पिघल रहे हैं। नदियों का जल-स्तर बढ़ रहा है। देश में एक ही साथ बाढ़ और सूखे का प्रकोप नज़र आता है। समुद्र आसपास के निचले इलाकों को निगलने लगा है। द्वीप छोटे होते-होते गायब होते जा रहे हैं। और, यह सब हो रहा है ग्लोबल वॉर्मिग के चलते। वायुमंडल में कार्बन डाई ऑक्साइड, कार्बन मोनो ऑक्साइड और मीथेन जैसी ग्रीनहाउस गैसों की मात्रा बढ़ने से तापमान बढ़ रहा है। पहले विकसित देशों ने हालत बिगाड़ी। अब भारत, ब्राजील और चीन जैसे तेज़ी से बढ़ते देश इसे और बिगाड़ रहे हैं। अंतरराष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (आईईए) के साल 2006 में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक अगर मौजूदा नीतियां ही लागू रहीं तो साल 2050 तक कार्बन डाई ऑक्साइड को बढ़ाने में 70 फीसदी हिस्सा विकासशील देशों का होगा।
जो बिगड़ चुका है, उसे दुरुस्त करना मुश्किल है। लेकिन जो बिगड़ रहा है और जो बिगड़ने वाला है, उसे रोकने के उपाय किए जा सकते हैं। निजी वाहनों के बजाय सार्वजनिक वाहनों का इस्तेमाल बढ़ाया जाना चाहिए। वाहनों में पेट्रोल और डीजल के बजाय प्राकृतिक गैस का इस्तेमाल किया जाना चाहिए। दिक्कत ये है कि भारत में पर्यावरण संबंधी ज्यादातर नीतियां राज्यों के अधीन आती हैं। इसलिए इन पर राज्यों के बीच राजनीतिक सहमति बनानी ज़रूरी है। अमूमन ऐसी सहमति बनाने में दस साल लग जाते हैं। इसलिए इसकी शुरुआत जितनी जल्दी हो, कर देनी चाहिए।
मुश्किल ये भी है जो इस खतरे के बारे में सबसे कम जानते हैं, वो ही इसके सबसे पहले शिकार बननेवाले हैं। जी हां, किसानों पर ग्लोबल वॉर्मिंग की सबसे ज्यादा मार पड़ेगी। रासायनिक उर्वरकों पर निर्भरता खतरे को और विकराल बनाएगी। इसलिए उन्हें खाद का इस्तेमाल बदलना होगा। बारिश के सीजन में फर्क आने से फसलें चौपट हो सकती हैं। समुद्र के कोप से निचले इलाकों की जमीनें जलमग्न हो सकती हैं। मछुआरों की बस्तियां समुद्र के गाल में समा सकती हैं। तो, कहीं नदियों को बांधना होगा और कहीं हॉलैंड की तर्ज पर निचले इलाकों को बचाने के लिए बांध बनाने होंगे। पाकिस्तान से लेकर नेपाल और बांग्लादेश से नदियों के पानी पर समझौते करने होंगे।
संकट बड़ा विकट है। लेकिन एक बात साफ कर दूं कि इंसानी आबादी के बढ़ने से इसका कोई सीधा संबंध नहीं है। बात और मुद्दा जटिल है, लंबा है। इससे निपटना अकेले किसी के वश में नहीं है। हम सभी को इसे गुनना होगा, समझना होगा। अंत में प्रियंकर की शानदार कविता की शुरुआती पंक्तियां...
सबसे बुरा दिन वह होगा, जब कई प्रकाशवर्ष दूर से
सूरज भेज देगा ‘लाइट’ का लंबा-चौड़ा बिल
यह अंधेरे और अपरिचय के स्थायी होने का दिन होगा
पृथ्वी मांग लेगी अपने नमक का मोल
मौका नहीं देगी किसी भी गलती को सुधारने का
क्रोध में कांपती हुई कह देगी जाओ तुम्हारी लीज़ खत्म हुई
यह भारत के भुज बनने का समय होगा...
Comments
प्रतीक ने सही कहा "कृपया इसपर भी एक पोस्ट लिखें कि ऐसे हालात में व्यक्तिगत स्तर पर आदमी क्या-क्या कर सकता है"
-- शास्त्री जे सी फिलिप
आज का विचार: चाहे अंग्रेजी की पुस्तकें माँगकर या किसी पुस्तकालय से लो , किन्तु यथासंभव हिन्दी की पुस्तकें खरीद कर पढ़ो । यह बात उन लोगों पर विशेष रूप से लागू होनी चाहिये जो कमाते हैं व विद्यार्थी नहीं हैं । क्योंकि लेखक लेखन तभी करेगा जब उसकी पुस्तकें बिकेंगी । और जो भी पुस्तक विक्रेता हिन्दी पुस्तकें नहीं रखते उनसे भी पूछो कि हिन्दी की पुस्तकें हैं क्या । यह नुस्खा मैंने बहुत कारगार होते देखा है । अपने छोटे से कस्बे में जब हम बार बार एक ही चीज की माँग करते रहते हैं तो वह थक हारकर वह चीज रखने लगता है । (घुघूती बासूती)