चीन और भारत बराबर भ्रष्ट हैं
चीन विकास के बहुत सारे पैमानों पर भारत से आगे हो सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार के पैमाने पर दोनों दुनिया में इस साल 72वें नंबर पर हैं। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट में यह बात कही गई है। लेकिन ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के प्रमुख हुग्युत्ते लाबेले के मुताबिक उनका करप्शन परसेप्शंस इंडेक्स (सीपीआई) असली भ्रष्टाचार का पैमाना नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि दुनिया के विशेषज्ञ किसी देश को कितना भ्रष्ट मानते हैं। इन विशेषज्ञों का चयन कैसे किया जाता है, इसके बारे में ट्रासपैरेंसी इंटरनेशनल की साइट कुछ नहीं बताती।
इस बार 180 देशों का सीपीआई निकाला गया और इसमें न्यूज़ीलैंड, डेनमार्क और फिनलैंड 10 में 9.4 अंकों के साथ सबसे ऊपर हैं, जबकि सोमालिया और म्यांमार 1.4 अंक के साथ आखिरी पायदान पर हैं। इनके ठीक ऊपर 1.5 अंक के साथ अमेरिकी आधिपत्य वाले इराक का नंबर आता है। भारत और चीन के 3.5 अंक हैं। इतने ही अंकों से साथ इसी पायदान पर सूरीनाम, मेक्सिको, पेरू और ब्राजील भी मौजूद हैं। भारतीय महाद्वीप में हमसे ज्यादा भ्रष्ट क्रमश: श्रीलंका (3.2), नेपाल (2.5), पाकिस्तान (2.4) और बांग्लादेश (2.0) हैं। लेकिन श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान इस बात पर संतोष कर सकते हैं कि रूस 2.3 अंक के साथ उनसे ज्यादा भ्रष्ट है।
जानेमाने विकसित देशों में सबसे भ्रष्ट अमेरिका (7.2) है। उसके बाद फ्रांस (7.3), जर्मनी (7.8), इंग्लैंड (8.4) और कनाडा (8.7) का नंबर आता है। लेकिन ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के प्रमुख ने बड़ी दिलचस्प बात कही है कि विकसित देशों में भले ही भ्रष्टाचार कम हो, लेकिन विकासशील और गरीब देशों में इन्हीं देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भ्रष्टाचार फैलाने का जरिया बनती हैं। अपने देश में भ्रष्टाचार करें तो इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सकती, लेकिन गैर-मुल्कों में इनका खुला खेल फरुखाबादी चलता है। वैसे कितना अजीब-सा तथ्य है कि जहां जितनी गरीबी है, वहां उतना ही ज्यादा भ्रष्टाचार है। यानी गरीबी मिटाकर ही भ्रष्टाचार का अंतिम खात्मा किया जा सकता है। इसका उल्टा नहीं।
भारत की स्थिति में पिछले साल से थोड़ा सुधार हुआ है। साल 2006 में यह 3.3 अंक के साथ 163 देशों में 70वें नंबर पर था, जबकि साल 2007 में 3.5 अंक के साथ 180 देशों में इसका नंबर 72वां है। इसका इकलौता कारण राइट टू इनफॉरमेशन (आरटीआई) एक्ट को माना गया है। लेकिन आरटीआई के दायरे में केवल नौकरशाही आती है। इसके दायरे से न्यायपालिका बाहर है और नेता तो छुट्टा घूम ही रहे हैं, जबकि कोई भी भ्रष्टाचार बिना उनकी मिलीभगत के संभव नहीं है।
अच्छा संकेत यह है कि सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 में ऐसा संशोधन लाने की तैयारी में है जिससे संसद और विधानसभा के पीठासीन अधिकारियों को भ्रष्ट विधायकों और सांसदों के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने का अधिकार मिल जाएगा। वैसे आपको बता दूं कि भ्रष्टाचार हटाने के कदम किसी आम आदमी के दबाव में नहीं, बल्कि मध्यवर्ग और कॉरपोरेट सेक्टर के दबाव में उठाए जा रहे हैं। ये अलग बात है कि इनका बाई-प्रोडक्ट आम आदमी को भी मिल सकता है।
इस बार 180 देशों का सीपीआई निकाला गया और इसमें न्यूज़ीलैंड, डेनमार्क और फिनलैंड 10 में 9.4 अंकों के साथ सबसे ऊपर हैं, जबकि सोमालिया और म्यांमार 1.4 अंक के साथ आखिरी पायदान पर हैं। इनके ठीक ऊपर 1.5 अंक के साथ अमेरिकी आधिपत्य वाले इराक का नंबर आता है। भारत और चीन के 3.5 अंक हैं। इतने ही अंकों से साथ इसी पायदान पर सूरीनाम, मेक्सिको, पेरू और ब्राजील भी मौजूद हैं। भारतीय महाद्वीप में हमसे ज्यादा भ्रष्ट क्रमश: श्रीलंका (3.2), नेपाल (2.5), पाकिस्तान (2.4) और बांग्लादेश (2.0) हैं। लेकिन श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान इस बात पर संतोष कर सकते हैं कि रूस 2.3 अंक के साथ उनसे ज्यादा भ्रष्ट है।
जानेमाने विकसित देशों में सबसे भ्रष्ट अमेरिका (7.2) है। उसके बाद फ्रांस (7.3), जर्मनी (7.8), इंग्लैंड (8.4) और कनाडा (8.7) का नंबर आता है। लेकिन ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के प्रमुख ने बड़ी दिलचस्प बात कही है कि विकसित देशों में भले ही भ्रष्टाचार कम हो, लेकिन विकासशील और गरीब देशों में इन्हीं देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भ्रष्टाचार फैलाने का जरिया बनती हैं। अपने देश में भ्रष्टाचार करें तो इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सकती, लेकिन गैर-मुल्कों में इनका खुला खेल फरुखाबादी चलता है। वैसे कितना अजीब-सा तथ्य है कि जहां जितनी गरीबी है, वहां उतना ही ज्यादा भ्रष्टाचार है। यानी गरीबी मिटाकर ही भ्रष्टाचार का अंतिम खात्मा किया जा सकता है। इसका उल्टा नहीं।
भारत की स्थिति में पिछले साल से थोड़ा सुधार हुआ है। साल 2006 में यह 3.3 अंक के साथ 163 देशों में 70वें नंबर पर था, जबकि साल 2007 में 3.5 अंक के साथ 180 देशों में इसका नंबर 72वां है। इसका इकलौता कारण राइट टू इनफॉरमेशन (आरटीआई) एक्ट को माना गया है। लेकिन आरटीआई के दायरे में केवल नौकरशाही आती है। इसके दायरे से न्यायपालिका बाहर है और नेता तो छुट्टा घूम ही रहे हैं, जबकि कोई भी भ्रष्टाचार बिना उनकी मिलीभगत के संभव नहीं है।
अच्छा संकेत यह है कि सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 में ऐसा संशोधन लाने की तैयारी में है जिससे संसद और विधानसभा के पीठासीन अधिकारियों को भ्रष्ट विधायकों और सांसदों के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने का अधिकार मिल जाएगा। वैसे आपको बता दूं कि भ्रष्टाचार हटाने के कदम किसी आम आदमी के दबाव में नहीं, बल्कि मध्यवर्ग और कॉरपोरेट सेक्टर के दबाव में उठाए जा रहे हैं। ये अलग बात है कि इनका बाई-प्रोडक्ट आम आदमी को भी मिल सकता है।
Comments
देश की जीडीपी के 40 फीसदी से अधिक के बराबर काला धन है, जिसका एक बड़ा हिस्सा देश से बाहर के बैंकों में जमा है। हर क्षेत्र में शीर्ष स्तर पर जो भ्रष्टाचार है वह कभी उजागर नहीं होता। ऊपर से लेकर नीचे तक सिस्टम ऐसा बन गया है कि कोई देर तक ईमानदार बना नहीं रह पाता।
भ्रष्टाचार की गंगोत्री को उसके उदगम से ही साफ करना होगा, लेकिन कोई ईमानदार और दृढ़ इच्छा- शक्ति वाला व्यक्ति शीर्ष पर पहुंच नहीं सकता। यदि मनमोहन सिंह जैसा कोई व्यक्ति पहुंचेगा भी तो उसके पास जनाधार नहीं होगा, ताकि वह अपने दम पर परिवर्तन के लिए कड़े फैसले कर सके।
गरीबी कम करने के सीधे प्रयास नारेबाजी और कॉस्मेटिक हैं. असली फर्क सूचना तन्त्र के खुले पन और शिक्षा के स्तर में सुधार, औद्योगिक विकास आदि से होगा.