Friday 14 September, 2007

मैं ही क्यों, तुम भी तो हो स्वार्थी नीच

तुम स्वार्थी हो, नीच हो, कमीने हो। सिर्फ अपनी ही देखते हो, अपना ही सोचते हो।
हां, हूं। अपनी ही देखता हूं, अपना ही सोचता हूं। तुम भी ऐसा ही करते/करती हो। हम-तुम ऐसे ही हैं क्योंकि हम इंसान हैं।
जी, हां। इंसान की बुनियादी फितरत ही आत्म-केंद्रित है। उसके लिए अपने अलावा किसी से कोई मतलब नहीं होता। किसी के साथ न्याय हो, अन्याय हो, उसे कोई फर्क नहीं पड़ता। जो चीज़ इंसान को संचालित करती है, आदिकाल से उसके मूलाधार में है, वह है उसका खुद से प्यार। हम सिर्फ अपने से प्यार करते हैं। ‘अपने’ के इस दायरे में जो-जो जितना आता जाता है, हम उसे-उसे उतना प्यार करने लग जाते हैं। मां-बाप बच्चों में अपना एक्सटेंशन देखते हैं, विस्तार देखते हैं, इसीलिए उनसे प्यार करते हैं।
हम दूसरों में जहां तक अपना अंश देख पाते हैं, दूसरे शब्दों में कहें तो जितना उसे अपना मान पाते हैं, बस उतना ही प्यार करते हैं। बीवी-बच्चों, यार-दोस्तों में हमारा यही एक्टेंशन काम करता है। जिस दिन यह अंश दिखना बंद हो जाता है, उस दिन हम बरबस कह उठते हैं – अरे, तुम्हें तो मैंने अपना समझा था, मगर तुम तो खालिस पराये निकले। बहुत सस्ते किस्म के शेर में बात कहूं तो लोग कह बैठते हैं – जिनके लिए हम मर गए उनका ये हाल है, ईंटें चुराके ले गए मेरी मज़ार से।
असल में आदमी का मूल स्वभाव है कि वह सत्ता, महत्वाकांक्षा, निजी फायदे-नुकसान और लोभ-लालसा से संचालित होता है और उसे बल-पूर्वक रोका न गया तो वह दूसरों का इस्तेमाल निजी हितों के लिए, अपनी इन मूल वृत्तियों को पूरा करने में करेगा। संयम महज कहने की बात है। वह उसके अंदर से नहीं आता, बाहर से थोपा जाता है।
इंसान बुनियादी तौर पर जिस सोच ये संचालित होता है वह यह है कि उसके पास जितना है, उसे वह और ज्यादा पाने के चक्कर में गंवाना नहीं चाहता। वह नहीं चाहता कि उसे या उसके परिवार को कोई आघात लगे। वह किसी भी सूरत में अपनी आज़ादी, अपनी ज़िंदगी नहीं खोना चाहता। आपने भी मरते हुए दादा-परदादा, दादी-परदादी या किसी दूसरे बूढ़े-बुढ़िया के किस्से देखे-सुने होंगे कि मरते वक्त कैसे उसने सारे घरवालों को पास बुला लिया और सारे गहने-जेवरात, रुपए-पैसे सब अपने अगल-बगल रख लिए।
सभ्यता के शुरुआती दौर में मानव को अपनी सारी ताकत और वक्त खुद को बचाने में, दूसरों से छीनने में लगाना पड़ता था। आज भी अक्सर होता यह है कि दूसरों को दबाना ही आपके आगे बढ़ने की शर्त होता है। लेकिन समूह में ऐसा बेरोकटोक कैसे चल सकता था? एक ही उपाय था कि लोग एक दूसरे से थोड़ी दूरी बनाकर चलें, एक घर छोड़ कर चलें। शायद यहीं से यह कहावत निकली होगी कि डायन भी एक घर छोड़कर चलती है।
इंसान की इसी स्वार्थपरता से ऐसी सामूहिक सत्ता की ज़रूरत बाहर निकलकर आई, जिसे सभी स्वीकार करें, मान्यता दें, उसके हुक्म को मानें। यहीं से निकली सरदार, मुखिया, राजा-महाराजा और सरकार की अवधारणा। राजा का ताकतवर होना ज़रूरी था, उसकी सेनाएं ज़रूरी थी ताकि वह बाहर के दुश्मनों से लड़ सके। सभी इंसान साथ आ गए ताकि हर कोई निर्भय होकर अपना स्वार्थ साध करे। सर्वे भवंति सुखिन: सर्वे संतु निरामया...
इस तरह खुद से प्यार करने की मूल वृत्ति इंसान को सामूहिकता तक ले गई, सरकार, कानून और संविधान के बंधन तक ले गई। परमार्थ की बातें सिर्फ व्यवस्था बनाने के लिए हैं। वहीं तक है जहां तक अपना स्वार्थ सधता है। इसलिए जब हम किसी को स्वार्थी, नीच और कमीने की उपाधि से नवाजें तो ठीक उसी पल हमें अपने अंदर झांक लेना चाहिए, इंसान के मूल-स्वरूप के बारे में सोच लेना चाहिए।
आज के लिए बस इतना ही, बाकी फिर कभी...

3 comments:

आभा said...

बिल्कुल सही कह रहे हैं आप

चंद्रभूषण said...

मुझे ऐसा नहीं लगता। यह सामान्य समय के लिए दी गई एक औसत इन्सान के स्वार्थ की परिभाषा है। इसके आधार पर गणितज्ञों, वैज्ञानिकों, साहित्यकारों और बड़े संकटों के समय सर्वस्व त्याग कर शहादत धारण करने वालों की कोई व्याख्या नहीं की जा सकती। लोहिया इसे अपनी चमड़ी से बाहर निकलने की प्रक्रिया करार देते हैं- जहां पहुंचकर जिंदा लोग अपने जीने का मतलब खोजते हैं।

कंचन सिंह चौहान said...

मानव मन का अच्छा चित्रण।