Tuesday 4 September, 2007

एक जोड़ी काबिल मेहनती सपने

दो लोग, नहीं, एक जोड़ा दिल्ली महानगर में आया नौकरी खोजने। वो काबिल भी थे और मेहनती भी। दो साल अनिश्चितता और अवसाद से जूझते रहे। और, जब नौकरी मिली, तब तक इतना मंथन कर चुके थे कि नौकरी की सीमा और निरर्थकता उनकी समझ में आ गई। फिर...वो दिल्ली छोड़कर कहीं दूर ज़िंदगी जीने चले गए। क्या करेंगे, कैसे करेंगे, यह बात अब दीगर हो चुकी थी।
दो अलग-अलग पृष्ठभूमि से आए थे वे दोनों। दोनों का अपना अतीत था। मां-बाप, भाई-बहन, रिश्तेदारियां थी। खान-पान, रहन-सहन, पसंद-नापसंद सब अलग। क्या करते, अलग-अलग भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थितियों से साबका जो पड़ा था उनका। इसलिए उनके सपनों में अलग-अलग छवियां, अलग-अलग बिम्ब आते थे। लेकिन कई साल साथ रहने के बाद दोनों एकाकार होने लगे। एक दिन उनके चेहरों के अंदर का चेहरा एक हो गया। उनके बाहरी चेहरे भी एक-दूसरे से बहुत हद तक मिलने लगे। जो भी उन्हें देखता, या तो भाई-बहन कहता या मेड फॉर ईच अदर।
अद्भुत तर्कपरायणता थी दोनों के बीच। वह जो सोचता था, उसे वह बोलती थी और वह जो सोच रही होती थी, उसे पूरी शिद्दत के साथ वह पेश कर देता। और मज़े की बात ये है कि दोनों परस्पर विरोधी बातें बोल रहे होते थे। यानी, दूसरे की विरोधी बात उसके नहीं, दूसरे के मुंह से निकलती थी।
ये सच है कि दो ही नहीं, हज़ारों-लाखों लोगों के आंखें खोलकर देखे जाने वाले ख्वाब एक हो सकते हैं। लेकिन दो लोग सोते वक्त भी क्या एक ही सपना देख सकते हैं? सपने का रंग एक, सपने के बिम्ब एक! शायद नहीं। वैसे, लाखों में घटनेवाला संयोग कुछ भी हो सकता है। लेकिन अलग-अलग सोच और पृष्ठभूमि से आए लोगों के सपने और छवियां एक नहीं हो सकतीं।
मगर, उन दोनों के साथ यह भी हो गया। साथ-साथ रहते-रहते अचानक एक दिन दोनों के सपनों का रंग एक हो गया, सपनों के बिम्ब समान हो गए, यहां तक कि सपने भी एक हो गए। उसी तरह जैसे सुबह-सुबह पत्ते पर पड़ी ओस की दो बूंदें आपस में मिलकर एक हो जाती हैं। हां, उन्होंने फिर एक दूसरे के सपने कभी नहीं देखे। वैसे भी आंख से एकदम सटी हुई चीज़ कहां दिखती है! जब तक आप किन्हीं स्थितियों के, लोगों के प्रभाव में रहते हैं, तब तक आपको उनके सपने नहीं आते। सपने तभी आते हैं जब एक दूरी संबंधित चीज़ों से आपकी बन चुकी होती है।
तो, मैं कह रहा था कि दोनों पत्ते पर पड़ी ओस की बूंदों की तरह एक हो गए। लेकिन बूंदें तो एक होने के बाद नीचे धरती पर गिरती हैं, जहां भुरभुरी मिट्टी उन्हें सोख लेती है। पर, वे न तो नीचे गिरे और न ही मिट्टी ने उन्हें सोखा। उन्होंने दूर आसमान में उड़कर कहीं अपना घोंसला बनाया। दोनों वहीं कहीं रहने लगे। धरती पर आते थे तो उसी तरह जैसे सीगल चिड़िया समुद्र की सतह पर उतरे बिना ही बस झपट्टा मारकर उड़ जाती है।

2 comments:

DesignFlute said...

एक सपनीली, आशावादी पोस्ट. मेहनत भी, नौकरी की निरर्थकता भी और अपने बूते पर खड़े रहने का माद्दा भी.एकाकार होने के साथ सीगल -सी फक़ीरी भी. आपने बड़ी नाइन्साफी की है इस पोस्ट के साथ. एक पूरी कहानी होनी चाहिए!

अनुराग द्वारी said...

अजन्मा की बातों से बिल्कुल सहमत हूं ... प्लॉट जब इतना शानदार लिखा गया है तो कहानी की बेसब्री आप समझ ही सकते हैं ...