बेसिकली क्या है? हम हैं, हमारे लोग हैं, हमारा परिवार है और हमारी, हम सबकी ज़रूरतें हैं। बाकी सब तो इन्हीं ज़रूरतों को पूरा करने का धंधा है। कोई हमारे खाने-पीने रहने की ज़रूरत पूरी करता है, कोई मनोरंजन की ज़रूरत पूरी करता है। हम भी अपने और अपने परिवार के अलावा दूसरों की ज़रूरतें पूरी करते हैं। चीजें और सुविधाएं सीमित हैं। इससे भी बड़ी बात है कि हम सभी में भारी ग्रीड है, लालच है। इसको कंट्रोल करने के लिए काम-धंधे बना दिए गए, मुद्रा बना दी गई। काम के बदले हमें नोट मिलते हैं ताकि हम अपनी और अपनों की ज़रूरतें पूरी कर सकें। यही सब ज़ीरो-सम गेम चल रहा है। और क्या है?
अच्छा काम, बुरा काम, ऊंचा ओहदा, नीची पोस्ट। ये सब कुछ खाली-पीली का चोंचला है। इसलिए कि एक दूसरे को काट कर आगे बढ़ने की आदम चाहत बनी रहे। लोग सक्रिय रहें, ज़िंदगी में गति बनी रहे। साहित्य, संस्कृति, सिनेमा, विज्ञापन सभी हमारी ज़रूरतों की थाह लेते हैं। सर्वे कराते है ताकि हमारी सटीक ज़रूरतों की पहचान हो सके ताकि वो उसे भुनाकर अपने हिस्से के नोट कमा सके। अपने अफसरों, कर्मचारियों को बांट सकें जिससे ये सभी अपनी और अपनों की जरूरतें पूरी कर सकें। और क्या है?
ज्यादा नोट आपके पास होंगे तो आपकी महीन-महीन सोफिस्टिकेटेड ज़रूरतें सामने आ जाती हैं। शरीर की प्राकृतिक खुशबू या बदबू की जगह कोई महंगा परफ्यूम लगाते हैं। रसोई का खाना न खाकर फाइव स्टार होटल में लंच और डिनर करते हैं। फिल्म या टेलिविजन शो न देखकर आप अपने प्राइवेट शो करवाते हैं। डांस, शराब और नशे की पार्टियां आयोजित करते हैं। आपकी पोजीशन सेफ रहे, इसके लिए सत्ता में बैठे लोगों को साधते हैं। अपने बाल-बच्चों का भविष्य सुरक्षित बनाने के लिए उन्हें हार्वर्ड, ऑक्सफोर्ड या कैम्ब्रिज में पढ़ाते हैं। छोटे से बड़े सबके लिए यही मारामारी है। और क्या है?
सब कुछ इफरात होता तो हम आज भी जंगल में रह रहे होते। कोई परिवार न होता। कोई बीवी नहीं होती। मां-बाप की सही शिनाख्त नहीं होती। सब अपने-अपने में मस्त रहते। खाते-पीते सोते। सीजन आने पर सेक्स करते। संतति को आगे बढ़ाते। न दोस्त होते, न रिश्तेदार। न सेलिब्रिटी होते, न ही होता आम और खास का विभाजन। टेलिविजन पर न कुसुम होती, न नच बलिए और न ही फिल्मों के शहंशाह और बादशाह। तब अंताक्षरी का कोई शो भी नहीं होता। ज़रूरतों को खत्म करने का प्रवचन देनेवाले बाबाओं की जमात नहीं होती। न्यूज़ चैनल्स तो होते ही नहीं। सबके सब तो हमारी ज़रूरतों को ही भुनाते हैं। और क्या है?
जो ताकतवर होता, उससे सब डरते। लेकिन डरपोक से डरपोक भी अपना गुज़ारा कर लेता। नहीं तो क्या होता? मर जाता, यही न! जीना-मरना, स्वर्ग-नरक, भगवान-यमदूत सब कुछ चोंचला है। सब हम्हीं ने बनाया है ताकि व्यवस्था बनी रहे। समाज बना रहे। ज़रूरतों के हिसाब से ज्यादातर लोगों की ज़रूरतें पूरी होती रहे। बस्स...और क्या है?
मतदाता जागरूकता गीत
4 weeks ago
2 comments:
सही धारा में बह रहे हैं अनिल भाई.. आनन्द है..
अइसा क्या? वेरी डिप्रेसिंग! पन अपन कू तो कब्बी अइसा एंगिल में दिखाइच नईं? आपकू कइसा दिखा?
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