मौका नहीं तो ब्रह्मचारी, नहीं तो व्यभिचारी

एसपी की खूबियों से और हिंदी पत्रकारिकता में उनके योगदान से कोई भी इनकार नहीं कर सकता। हम एसपी के कद का अंदाजा इसी बात से लगा सकते हैं कि जब प्रभाष जोशी जैसे संपादक देवीलाल के दरबार में जगह पाने के लिए बेताब रहते थे, जब उदयन शर्मा कांग्रेस के टिकट पर लोकसभा का चुनाव लड़ने की जुगत भिड़ा रहे थे, जब संतोष भारतीय राज्यसभा में घुस रहे थे, तब एसपी ने हर राजनीतिक पार्टी और राजनेता से बराबर की दूरी बनाए रखी। मेरा बस यही कहना है कि उन्हें सुपर-ह्यूमन या आराध्य मानने के बजाय ऐतिहासिक संदर्भों में देखा जाए। खामियां उनमें भी थी और गलती वो भी करते थे। जैसे, मुझे याद है कि जब यमुना में भयंकर बाढ़ आई थी तो एंकरिंग करते वक्त उन्होंने पढ़ा था – बाढ़ ने लोगों की ज़िंदगी को सराबोर कर दिया है। अब आप ही बताइये कोई आपदा कैसे लोगों को सराबोर कर सकती है। सराबोर तो कोई खुशी करती है।
बाज़ार के दवाब में काम करना हर चैनल की मजबूरी है। एनडीटीवी इंडिया भी इससे परे नहीं है, न ही हो सकता है। यह सही है कि एनडीटीवी ने भूत-प्रेत नहीं दिखाने का नीतिगत फैसला कर रखा है। चैनल के एक्स-मैनेजिंग एडिटर दिबांग भी दावा करते रहे हैं कि एनडीटीवी इंडिया ने क्राइम शो और दूसरे सस्ती अभिरुचियों वाले शो न दिखाने का सचेत फैसला कर रखा है। लेकिन इस हकीकत से वो इनकार नहीं कर सकते कि एनडीटीवी समूह के मुखिया डॉ. प्रणव रॉय ने इस चैनल को लांच करने के मौके पर हुई प्रेस कांफ्रेंस में कहा था कि एनडीटीवी इंडिया इनफोटेनमेंट चैनल होगा और वो ब्रेकिंग न्यूज को छोटे शहरों तक ले जाएगा। ये भी सच है कि टीवी समाचारों की दुनिया में रोज का अलग और हफ्ते का अलग क्राइम शो सबसे पहले एनडीटीवी इंडिया ने ही शुरू किया था। प्राइम टाइम में शाम 8.30 बजे जब दूसरे चैनल मेट्रो की खबरें दिखाते थे, उस समय फिल्म का शो एनडीटीवी इंडिया ने ही शुरू किया था। असल में डॉ. रॉय ने दर्शकों के मनोभाव को समझते हुए जितनी शानदार और इनोवेटिव कंसेप्ट पेश की, उसे अगर दिबांग की डी-कंपनी ने लागू किया होता तो एनडीटीवी इंडिया को देश का नंबर-एक न्यूज़ चैनल बनने से कोई रोक नहीं सकता था।
दिक्कत ये हुई कि क्राइम शो के लिए खबरें नहीं मिलीं। दिबांग एंड कंपनी की खास-म-खास क्राइम रिपोर्टर हफ्ते भर बासी 'एक्सक्लूसिव' खबरें लाती थी। तो क्राइम शो को तो बंद होना ही था। छोटे शहरों की खबरों में बराबर पिटते रहे तो आप दिल्ली और राज्यों की मुर्दा राजनीतिक खबरें दिखाने लगे। एंटरटेनमेंट के शो में रात बाकी की धाक आपने जमाई, लेकिन फिल्मी शो में पिट गए तो 8.30 बजे खबरदार करने लगे। दूसरे चैनल आपके इनफोटेनमेंट और छोटे शहरों की ब्रेकिंग न्यूज़ की कंसेप्ट को लागू करके टीआरपी की दौड़ में आपसे कोसों आगे निकल गए तो आप गंभीर चैनल और गंभीर खबरों का राग अलापने लगे। ये तो वही बात हुई कि मौका नहीं मिला तो ब्रह्मचारी बन गए और मिल गया होता तो व्यभिचारी बनने से नहीं चूकते।
अच्छा हुआ एनडीटीवी को दिबांग से निजात मिल गई। यह शख्स न तो रिपोर्टरों को कोई आइडिया दे पाता था और न ही डेस्क पर कोई उत्साह पैदा कर पाता था। टीम भावना की इसने जिस तरह ऐसी-तैसी की, उसी का नतीज़ा है कि आज एनडीटीवी इंडिया का ये हश्र हुआ है। दिबांग में न तो ड्राइव था और न ही लीडरशिप की कोई दूसरी और काबिलियत। जिन भी दूसरे चैनलों ने टीम बनाने की ज़रा-सा भी कोशिश की है, लीडरशिप ने ड्राइव लेने का कौशल दिखाया है, वे लगातार कामयाबी की तरफ बढ़ रहे हैं। उनकी कामयाबी की वजह सिर्फ ये नहीं है कि वो सेक्स और क्राइम दिखाते हैं। बल्कि सच तो ये है कि आम मध्यवर्गीय घरों को बांधनेवाले उनके शो ही उन्हें सबसे ज्यादा टीआरपी देते हैं। जारी...

Comments

बढ़िया विश्लेषण है.

और ऊपर फूल के परागकणों के चित्र का तो कहना ही क्या.
धन्यवाद रवि रतलामी जी, बहुत दिनों बाद आई आपकी प्रतिक्रिया। स्वागत है...
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जारी रखें भैय्या!!
अच्छा लग रहा है यह विश्लेषण!!

दर-असल मीडिया जो सबका विश्लेषण करता है , उसका ऐसा आंतरिक विश्लेषण पब्लिक को सुहाएगा ही!!
वस्तुगत और जमीनी विश्लेषण!
बसंतजी,
टिप्पणी के लिए धन्यवाद. परन्तु टिप्पणी की भाषा बदल दें तो मेहरबानी होगी.
Udan Tashtari said…
हमें अंदरुनी बातों का ज्ञान न होते हुये भी यह विश्लेषण अच्छा लगा. आभार.
Anonymous said…
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