व्योम भाई, आप हिंदुवादी मानव-विरोधी क्यों हो?
वाकई यह मेरे गले नहीं उतरता कि जितने भी ‘हिंदुवादी’ हैं वे दबे-कुचले गरीब लोगों के साथ खड़े होने से इतने बिदकते क्यों हैं? एक गरीब महिला जो शायद माओवादी न रही हो, उसकी लाश को अर्ध-सैनिक बल के दो जवान किसी ढोर-डांगर की तरह लटका कर ले जा रहे हैं। कहां तो घुघुती जी और शायदा की तरह इसके मानवीय पक्ष को महसूस करना चाहिए था और कहां हमारे ये तथाकथित ‘हिंदू’ लोग इसे देखकर फुंकारने लगे।
नहीं समझ में आता कि इसे देखकर सुरेश चिपलूनकर को क्यो कहना पड़ता है कि भारत के वीर सैनिकों को एक बार बांग्लादेश की सेना ने भी ऐसे ही लटकाकर भेजा था। संजय बेंगाणी अपना बेगानापन तोड़कर क्यों पूछ बैठते हैं कि माओवादी हमारे सैनिकों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? कोई इसी बहाने मानवतावादियों को गद्दार बता बैठता है।
एक व्योम जी हैं। मुझ पर उनका स्नेह रहा है। लेकिन कल लगाई दो तस्वीरों से ऐसे विचलित हुए कि अपनी स्थिति साफ़ करने लगे कि “हम तो भारत की ही तरफ थे, हैं और रहेंगे। आप इस देश का नमक खाकर जारी रखें गद्दारी। आपकी मर्जी। हां ब्लॉग का नाम ‘एक नक्सलवादी की डायरी’ रखें तो ज्यादा सार्थक रहेगा। डर-डर कर क्या समर्थन करना।” बेचारे इतने तिममिलाए कि बोल बैठे कि कभी समय मिले तो 76 शहीदों की लाशों के चित्र देखना। उस समय तो आपकी जबान नहीं खुली। हम सब समझते हैं।
व्योम जी, बडी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि आप कुछ नहीं समझते। महान व सुदीर्घ परंपरा वाले इस देश को नहीं समझते। असली राष्ट्रवाद और लोकतंत्र को नहीं समझते। किसी भयानक भ्रम के शिकार हैं आप और आप जैसे लोग। सत्ता के सामने दुम हिलाना और जनता के सामने दहाड़ लगाना आपका स्वभाव है। मुंह में राम, बगल में छूरी जैसी कहावत शायद इसी समुदाय के लिए बनाई गई थी। मुझे आप जैसे लोगों से देशभक्त या गद्दार होने का प्रमाणपत्र नहीं चाहिए। मेरी मां, मेरा घर-परिवार, मुझे नजदीक से जाननेवाले लोग और मैं खुद जानता हूं कि आज के इस दौर में अपने मुल्क और अवाम से मेरे जैसे निष्कपट व निःस्वार्थ प्रेम करनेवाले लोग गिने-चुने ही होंगे।
बंधुगण, मुझे जो काम करना है, मै करता रहूंगा। छात्र जीवन से कर रहा हूं और मरते दम तक करूंगा। लेकिन बुरा मत मानिएगा, मुझे आपका हिंदूवाद कतई समझ में नहीं आता। मैं भी एक धर्मनिष्ठ हिंदू परिवार से हूं। हालांकि मैं बाहरी पूजा-अर्चना या अनुष्ठानों में यकीन नहीं रखता, लेकिन गौतम बुद्ध और कबीर से लेकर विवेकानंद तक बराबर मुझे राह दिखाते रहते हैं। मेरा बस इतना कहना है कि इंसान और अवाम से प्रेम कीजिए, सारे धर्म अपने-आप सध जाएंगे। क्यों अंदर इतनी नफरत भरकर खुद का ही खून जलाते हैं?
नहीं समझ में आता कि इसे देखकर सुरेश चिपलूनकर को क्यो कहना पड़ता है कि भारत के वीर सैनिकों को एक बार बांग्लादेश की सेना ने भी ऐसे ही लटकाकर भेजा था। संजय बेंगाणी अपना बेगानापन तोड़कर क्यों पूछ बैठते हैं कि माओवादी हमारे सैनिकों के साथ कैसा व्यवहार करते हैं? कोई इसी बहाने मानवतावादियों को गद्दार बता बैठता है।
एक व्योम जी हैं। मुझ पर उनका स्नेह रहा है। लेकिन कल लगाई दो तस्वीरों से ऐसे विचलित हुए कि अपनी स्थिति साफ़ करने लगे कि “हम तो भारत की ही तरफ थे, हैं और रहेंगे। आप इस देश का नमक खाकर जारी रखें गद्दारी। आपकी मर्जी। हां ब्लॉग का नाम ‘एक नक्सलवादी की डायरी’ रखें तो ज्यादा सार्थक रहेगा। डर-डर कर क्या समर्थन करना।” बेचारे इतने तिममिलाए कि बोल बैठे कि कभी समय मिले तो 76 शहीदों की लाशों के चित्र देखना। उस समय तो आपकी जबान नहीं खुली। हम सब समझते हैं।
व्योम जी, बडी विनम्रता से कहना चाहता हूं कि आप कुछ नहीं समझते। महान व सुदीर्घ परंपरा वाले इस देश को नहीं समझते। असली राष्ट्रवाद और लोकतंत्र को नहीं समझते। किसी भयानक भ्रम के शिकार हैं आप और आप जैसे लोग। सत्ता के सामने दुम हिलाना और जनता के सामने दहाड़ लगाना आपका स्वभाव है। मुंह में राम, बगल में छूरी जैसी कहावत शायद इसी समुदाय के लिए बनाई गई थी। मुझे आप जैसे लोगों से देशभक्त या गद्दार होने का प्रमाणपत्र नहीं चाहिए। मेरी मां, मेरा घर-परिवार, मुझे नजदीक से जाननेवाले लोग और मैं खुद जानता हूं कि आज के इस दौर में अपने मुल्क और अवाम से मेरे जैसे निष्कपट व निःस्वार्थ प्रेम करनेवाले लोग गिने-चुने ही होंगे।
बंधुगण, मुझे जो काम करना है, मै करता रहूंगा। छात्र जीवन से कर रहा हूं और मरते दम तक करूंगा। लेकिन बुरा मत मानिएगा, मुझे आपका हिंदूवाद कतई समझ में नहीं आता। मैं भी एक धर्मनिष्ठ हिंदू परिवार से हूं। हालांकि मैं बाहरी पूजा-अर्चना या अनुष्ठानों में यकीन नहीं रखता, लेकिन गौतम बुद्ध और कबीर से लेकर विवेकानंद तक बराबर मुझे राह दिखाते रहते हैं। मेरा बस इतना कहना है कि इंसान और अवाम से प्रेम कीजिए, सारे धर्म अपने-आप सध जाएंगे। क्यों अंदर इतनी नफरत भरकर खुद का ही खून जलाते हैं?
Comments
Anil ji sabse pehle maine aapko parichey pada. Bharpoor boddhik shamta ka ehsas hua. Khud ko naye or aneko freemo me dekhna bhala kon nahi chahta. Kehte hain esi chahten rakhne walo ka pariwaar bahut bada hai. Bus kahun chhupa hai..
Samwaad : -
Apane ghar, apna karysthal, apne riston ki jagahen or shehr me jab hum ghumne nikalte hai or sabse pehli nazar humari kis chij par rukti hai? kahin usi par to nahi jo sabse uperi sateh par rkhi rhti hai? ya us chij par to nahi jo bahut asani se dikhti hai?
Mujhe lagta hai jaise shehr ko dekhne, pariwar ko dekhne or rishton par pehli nazar padne me humara bhawnatmak ehsas humara virodhi hona chahiye. Wo humara sathi na ho. Tab shayd hum kuch esa khud dikha payege jo anekon chehro or jiwan ka ehsas de.
Duniya bahut gatisheel or ghani hai jisme kai rup, behrup har roj khud ko naya dikhane ki chaht me nikal rhe hai.
Nyi rahon ke liye aapko badhai..
Lakhmi
लेकिन आपके दुर्भाग्य से ये लोग बीच-बीच में कुछ राज्यों में सत्ता में आते रहते हैं, लगातार उपस्थिति और बढ़त बनाये रखते हैं… क्योंकि वे लोगों यह समझाने में सफ़ल रहते हैं कि "नंदीग्राम-सिंगूर के हत्यारे घृणित नहीं हैं, टाइटलर-भगत-सज्जन भी घृणित नहीं हैं, राजीव गाँधी तो खैर मासूमियत की प्रतिमूर्ति ही हैं, मार्क्स-माओ की विचारधारा के घालमेल से निकले हुए नक्सलवादी भी घृणित नहीं हैं, इस देश में अगर कोई नफ़रत-आलोचना-अपमान-उपेक्षा का हकदार है तो वह है संघ-भाजपा-हिन्दुत्ववादी-नरेन्द्र मोदी इत्यादि"…
और जब तक विरोधियों के इस "ढोंग और पाखण्ड" को आम जनता के बीच कानाफ़ूसी के जरिये वे पहुँचाने में सफ़ल रहते हैं कम से कम तब तक तो उनका समूल नाश होने से रहा। आप भरपूर कोशिश करते रहिये… सभी को करना चाहिये। ठीक उसी प्रकार, जैसे हम भी अपने तरीके से "सेकुलरिज़्म" और "वामपंथ" के असली चेहरे को बेनकाब करने में कर ही रहे हैं…
रही बात नक्सलवादियों की लाशों को लाने के तरीके की - शायद आप अपेक्षा कर रहे होंगे कि घने जंगलों में जहाँ साधन-सुविधा तो दूर जीने के भी लाले पड़े हों, वहाँ हमारे जवान उनके लिये "ससम्मान" एम्बुलेंस, स्ट्रेचर, हार-फ़ूल वगैरह लेकर जाते?
बहरहाल आपको हार्दिक शुभकामनाएं कि आप अपनी डायरी लेकर लौटे तो सही… वरना मैं तो समझा था कि "अर्थ" और "काम" में डूब गये…। अब इधर ही बने रहिये…
तो हम मान लेते हैं कि आप जानते हैं कि युद्ध क्षेत्र विभीषण जगह होती है जहां सबसे आसानी से जो चीज़ मिलती है वह है मौत, बाकी सब तो जैसे-तैसे इंतज़ाम करना पड़ता है।
हमारे देश की त्रासदी है कि यहां देश पर कुर्बान हुये सैनिकों को भी इज्जत नहीं मिलती और उनके ताबूतों पर सौदे हो जाते हैं तो यह अपेक्षा करना बेवकूफी है कि देशद्रोही माओवादियों के लिये फूलों की ठठरियां दिलवाई जा सके। माओवादियों ने जिस तरह के पूर्ववती उदाहरण बनायें हैं उस पर अगर सेना भी चलने को मजबूर हो जाये तो आश्चर्य क्यों? जब माओवादी पूरे गांवो को मृत्यु की नींद सुला कर जाते हैं तो क्या साथ में शवदाह का सामान छोड़ जाते हैं?
सद्वभावना की अपे़क्षा बुरी बात नहीं है और दुश्मनों में भी यह होनी चाहिये पर जब यह दोनों तरफ से हो। कातिलों और नरभक्षियों पर दया की जिद मुझे समझ नहीं आती।
और अगर आप यह मुहिम चलायें कि माओवाद ग्रस्त इलाकों में युद्ध में मारे जाने वाले लोगों के लिये सही इंतजाम हो तो इसका बुरा कोई नहीं मानेगा। शायद आपकी किस्मत में ही हमारे देश के शहीद सैनिकों के लिये कुछ करना लिखा हो, क्योंकि माओवादीयों द्वारा थोपे गये इस युद्ध में शिकार तो वही हैं।
शहिष्ठुता की मूर्ति धर्म मे परसुराम के पुनर्जीवन की आवश्यकता प्रतीत होती है।
आप लाल झंडे वाले हो यह तो मैं पहले से जानता हूँ पर मैं भगवा झंडा वाला नहीं हूँ| जन्म और कर्म से हिन्दू हूँ जैसे कि आप हैं|
आपकी इतनी सारी पोस्टें पढी है और आपका प्रशंसक रहा हूँ पर आज जब देशद्रोहियों के पक्ष में लिखी गयी पोस्ट देखी तो आपके प्रति सारे भ्रम टूट गए|
आपकी जितनी आय है उससे देश के दसों आदिवासियों के चूल्हे जल सकते हैं| ज़रा मुम्बई से बाहर निकले और देखे कैसे आदिवासियों को मारा जा रहा है झूठे सपने दिखाकर| आप आदिवासियों को उजाड़ने के विरुद्द बात करते हैं| आपको पता है कि जिस दफ्तर में आप काम करते हैं और जहां आप रहते हैं औरजिस सडक पर चलते हैं वहां पहले आदिवासी रहते थे| उनको उजाड़कर आधुनिक मानव बसा है| आप शोषण के खिलाफ है न| फिर क्यों रहते हैं ऐसी जगह सारी सुख-सुनिधाओं के साथ| छोडिये मोबाइल और लैपटाप और अपनी वो कार और रहिये जंगल में| मलाई खाकर शोषण की बात करना अच्छा लगता है रघु जी|
आपने जो लाश की तस्वीर छापी है वह तो सलामत है| हमारे सिपाहियों के तो सर तक नहीं मिलते हैं| लाशों के नीचे बम लगा दिए जाते हैं ताकि जब फ़ोर्स लेने आये तो वे भी मारे जाए| ऐसे विस्फोटों से लाश के परखच्चे उड़ जाते हैं| क्या आप जानते है जमीन की सच्चाई रघु जी???
मेरे देश से नक्सलवाद कब का खत्म हो गया होता पर आप जैसे लोगों के कारण हत्यारों को शह मिली है| आप जैसे लोग उनके समर्थन में लिखते हैं|
हिन्दू वाली बात करके आप मुद्दे को भटका रहे हैं? मूल मुद्दा तो आपके द्वारा नक्सलवाद का खुला समर्थन है, दम हो तो उस पर जमे रहे|
अच्छा हुआ जो आपने यह पोस्ट लिखी| आज ब्लॉग जगत में फैले शत्रु समर्थकों की कम से कम पहचान तो होगी और हमारे खुफिया विभाग को सहायता मिलेगी|
जैसे........
१.सरकार, पुलिस, अधिकारीगण बदला नहीं लेते(या उन्हें बदला नहीं लेना चाहिए।)। वे नियम बनाए रखने के लिए नियमानुसार काम ही कर सकते हैं।
२.अध्यापक विद्यार्थी से बदला नहीं लेते। अनुशासन बनाए रखने के लिए कोई नियमानुसार कार्यवाही करते हैं।
३. माता पिता बच्चे की धृष्टता के बदले वैसा ही नहीं करते। बच्चा जीभ चिढ़ाए तो वे भी जीभ नहीं चिढ़ाते। बच्चा उद्दंडता करे तो वे भी नहीं करते।
४.न्यायालय तेजाब फेंकने वालों को यह सजा नहीं देते कि उनके ऊपर भी तेजाब फेंका जाए। या बलात्कारी के साथ बलात्कार किया जाए। वे न्याय करते हैं बदला नहीं लेते।
५.जैसे को तैसा में आम नागरिक विश्वास रख सकता है और वह भी तब जब हमारी न्याय व्यवस्था उसे न्याय दिलाने में असमर्थ हो। जैसे को तैसा वाली विचारधारा सरकार अपने नागरिकों के लिए नहीं रख सकती। हाँ वह कानून द्वारा दंडित अवश्य कर सकती है।
अन्यथा किसी सरकार या व्यवस्था की आवश्यकता ही क्या होगी?
सभी जानते हैं कि सरकार, सेना या पुलिस के बुरे बर्ताव या बर्बरता से स्थिति सुधरती कभी नहीं हाँ अतिवादियों को और साथी अवश्य मिल जाते हैं। एक बड़ी संख्या ऐसे लोगों की है जिन्होंने सरकार के विरुद्ध मोर्चे को इसीलिए चुना क्योंकि उनके साथ व्यवस्था ने अन्याय किया था।
वैसे हमें व सरकार को निर्णय करना है कि हमें बदला लेना है या न्याय करना है, गलतियों को सुधारना है, अपराधियों को दंडित करना है और समस्या को सुलझाना है।
एक बात और, यह हिन्दु वाली बात कहाँ से आई? क्या मुसलमान अपराधियों से प्यार करते हैं या क्रिस्चियन? या आप सोचते हें कि वे ही अतिवादी, आतंकवादी होते हैं? यह तो अहिन्दुओं के साथ अन्याय हुआ।
घुघूती बासूती
वाह! कुछ ब्लॉगर भाई का हमारे न हिंदू तर्क परंपरा से नाता है, न सामान्य तहजीब से। (हा-हा..., ब्लॉग जगत का जंगल काल!)
नक्सलियों की लड़ाई हम से है? कब से? या उन राजनीतिक घिनौनी चालों से है जो जारी रहे, समस्या जारी रहनी चाहिए अन्यथा नेताओं की क्या जरूरत रह जाएगी?
नक्सल v/s राजनीति मत देखिए!
घाव देखिए, घाव के नीचे की सड़ांध मत देखिए!
गुस्सा देखिए, कारण मत देखिए!
विरोध का गला घोटिए, सुलझाइए मत!
अंधे बने रहिए आप कुछ ब्लॉगर भाई।
(Mired Mirage की clarity से बहुत सहमत)
अच्छा लगा जानकर कि कम से कम कुछ लोग हैं जो बिना किसी खास रंग का चश्मा लगाए चीजों को अब तक देख पा रहे हैं।
समय हो तो पढ़ें क़िस्मत के सितारे को जो रौशन कर दे http://shahroz-ka-rachna-sansaar.blogspot.com/2010/06/blog-post_18.html
शहरोज़
रही बात माओवाद या नक्सलवाद की। इस देश में एक परंपरा पड़ गई है। अगर कोई अपने अधिकार की मांग करता है, या उसके लिए आवाज उठाता है तो उसे विद्रोही और अपराधी मान लिया जाता है। जाति, धर्म के नाम पर सत्ता हासिल करने वाले अपने स्वार्थ में कानून बदलवाने की सामर्थ्य रखते हैं, इसलिए वे कभी गैर कानूनी, गैर संवैधानिक काम करते ही नहीं। १९८४ से भोपाल गैस से पीड़ित लोग संविधान के दायरे में रहकर न्याय मांगते रहे, क्या मिला उन्हें? अगर वे भी हथियार उठा लेते तो?... स्वाभाविक है कि वे गैर कानूनी, गैर संवैधानिक, सेना और अर्धसेना विरोधी काम करते और सरकार उन पर गोलियां चलवाती। यही तो हो रहा है इस देश में.....
ab agar ghar me ghuse saanp ko marne pe aap use anaitik aur manavatavadi kritya karar dete hai to kya kahu.... aap jyada samajhdaaar hai ,bade hai ,anubhavi hai,sayad sach kehte ho
mera likhana bura laga ho to chhamaprarthi hu
baat kar dekhna chodiye pahle las me bhi pahchan batai or ab tippani me bhi hindu or muslim, apni mansikta thik rakhe sare log thik ho jayange. lekh ko padh kar lagta hai ki las maobadi na hokar hindu ki hoti to apki pratikriya suresh ji wali hoti.
jaise niche wale photo par kisi ki nazar nahi gai ho.
ardhsainik balo ko gherke maarna, kaha kee insaniyat hain.
Soye huye sainiko ko maarna kaun sa yudh hain,
Jaha pe naksali hai waha pe koun sa sushashan hain. Nakisali ilako mei kitni khushhaali hai ye sab jaante hain.
www.pradip13m.blogspot.com
आप जैसे निष्कपट, नि:स्वार्थ लोगों की नजर वैसे समाचारों, चित्रों पर क्यों नहीं पड़ती जिनके बारे में सुरेश चिपलूनकर या व्योम जी इशारा कर रहे हैं?
और ये बात भी किसी से कहने की जरूरत नहीं शीशे के सामने खडे होकर खुद से कहें कि हां मैं बेहतर इंसान हूं।