Wednesday 14 May, 2008

मंगल को मंदिर, शुक्र को मस्जिद, अल्ला-हो-अकबर

ये कौन-से अल्ला के बंदे हैं जो केवल फसाद फैलाने के लिए कोहराम मचा रहे हैं? जयपुर में कल शाम का धमाका मंदिरों के आसपास हुआ, कल मंगलवार था। 7 मार्च 2006 को भी मंगलवार था, जब बनारस के संकटमोचन मंदिर में विस्फोट हुए थे। 14 अप्रैल 2006 को दिल्ली की जामा मस्जिद में धमाके हुए तो उस दिन शुक्रवार था। मालेगांव की नूरानी मस्जिद के बाहर 8 सितंबर 2006 को बम फटे तो लोग जुमे (शुक्रवार) की नमाज पढ़कर बाहर निकल रहे थे। हैदराबाद की मक्का मस्जिद में 18 मई 2007 को हुए धमाकों का दिन भी शुक्रवार ही था। साफ है कि मंगलवार को मंदिरों और शुक्रवार को मस्जिदों के आसपास हमले करके आतंकवादी धर्म में आस्था रखनेवालों को शिकार बना रहे हैं। और, कमाल की बात है कि ये आतंकवादी खुद इस्लाम धर्म के कट्टर अनुयायी हैं, जेहादी हैं।

कमाल की बात यह भी है कि इनके चंगुल में कम पढ़े-लिखे और मदरसों से निकले मुस्लिम नौजवान ही नहीं आ रहे, बल्कि इंजीनियर से लेकर डॉक्टर जैसे अति-शिक्षित नौजवान भी इनके ‘पाक’ मकसद के लिए जान जोखिम में डाल रहे हैं। सवाल उठता है कि क्या किसी मध्य-युगीन धर्म के लिए आज के युग में कोई राजनीतिक स्पेस बचा रह गया है? इंटेलिजेंस ब्यूरो की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस मुद्दे पर प्रतिबंधित संगठन स्टूडेंट इस्लामिक मूवमेंट ऑफ इंडिया (सिमी) में फूट पड़ चुकी है और राजनीतिक इस्लाम की बात करनेवाला हिस्सा आतंक के सौदागरों से दूरी बना चुका है। सवाल ये भी है कि क्या हिंदू या मुस्लिम अवाम अब भी इतना मूर्ख रह गया है कि मंदिर या मस्जिद के आसपास हुए धमाकों की तोहमत एक-दूसरे मढ़ते हुए दंगों पर उतर आए? क्या पाकिस्तान के हुक्मरानों को अब भी सबक सीखने की ज़रूरत है कि आतंकवाद को पनाह देना खुद पर कितना भारी पड़ सकता है?

हमारी सरकार ऐसे धमाके होने पर पहले लश्कर-ए-तैयबा और जैश-ए-मोहम्मद का नाम लेती थी। अब इसमें और नया नाम जुड़ गया है बांग्लादेश को आधार बनाए हुए संगठन हरकत-उल-जेहाद-ए-इस्लामी (हुजी) का। हर विस्फोट के तार खट से पाकिस्तान और कश्मीर के आतंकवादियों से जोड़ दिए जाते हैं। लेकिन इस बार सरकार को ऐसा करने में मुश्किल हो रही है क्योंकि आंतरिक सुरक्षा एजेंसियों को सीमापार या कश्मीर घाटी से हमले से जुड़ी कोई बातचीत पकड़ में नहीं आई है। दिक्कत ये है कि हम अपनी सुरक्षा व्यवस्था को चाक-चौबंद नहीं कर रहे। जिस तरह हर धमाकों के बाद देश भर में रेड और हाई अलर्ट घोषित कर दिया जाता है, उस पर आतंकवादी अपनी पनाहगाहों में बैठकर हंसते होंगे।

असल में आंतरिक सुरक्षा मुख्यतया राज्यों का जिम्मा है। कानून-व्यवस्था को संभालने वाली पुलिस को चलाने और ढर्रे पर लाने का काम राज्य सरकारों का है। लेकिन हमारी पुलिस की हालत क्या है, इसका अंदाज़ा इसी से लगाया जा सकता है कि कल जयपुर में एक बम माणक चौक पुलिस स्टेशन के परिसर में रखा हुआ था। आतंकवादियों को हमारी पुलिस की ‘मुस्तैदी’ पर इतना यकीन था कि वे बेधड़क पुलिस थाने के परिसर में बम रखकर चले गए। आज आडवाणी बात कर रहे हैं कि पोटा जैसा कानून फिर से लाया जाए। लेकिन वो इस बात पर जानबूझकर परदा डाल रहे हैं कि हमारी पुलिस पोटा जैसे कानूनों का इस्तेमाल आतंकवादियों को पकड़ने के लिए कम और निरपराध लोगों पर आतंकवादी होने की मुहर लगाने के लिए ज्यादा करती है। आप ही बताइए, माणक चौक थाने की पुलिस अगर चौकन्नी रहती तो क्या उसके परिसर में कोई इतनी आसानी से बम रखकर चला जाता?

ऊंची रसूख वाले लोग पुलिस को जूतियां उठाने वाला नौकर समझते हैं, जबकि हमारे आप जैसे आम भारतीय नागरिक के लिए पुलिस अब भी माई-बाप बनी हुई है। जिसको जब चाहे, जिस भी मुकदमे में फंसा सकती है। इसके पीछे राजनेताओं का वरदहस्त है। नहीं तो डॉ. बिनायक सेन जैसे समर्पित सामाजिक कार्यकर्ता आज साल भर से सलाखों के पीछे नहीं होते और हमारी महामहिम राष्ट्रपति से लेकर प्रधानमंत्री और छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री 22 नोबेल पुरस्कार विजेताओं की अपील को यूं अनसुना नहीं कर सकते थे। हमारे नेता तो आतंकवाद पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक रहे हैं। लेकिन हमें इस बहाने कुछ बुनियादी सुधारों पर गौर करना होगा। अंग्रेज़ों के जमाने के 1861 के पुलिस एक्ट को बदलना, पुलिस को अवाम के प्रति समर्पित और चौकन्ना बनाना इन सुधारों का ही हिस्सा है।

10 comments:

Shiv said...

आतंकवाद को भी लोग सही ठहराने के लिए कहते रहते हैं कि अशिक्षा और आर्थिक विकास न होने की वजह से ऐसा हो रहा है. लेकिन इंजिनियर और डॉक्टर तक ऐसी करतूतों से जुड़े हुए हैं.

और सीमा के बाहर के संवादों को टेप करने का खेल कब तक चलता रहेगा. सीमा के बाहर संवाद की जरूरत किसे है? खासकर तब जब सबकुछ सीमा के अन्दर उपलब्ध है. पुलिस में सुधारों के लिए एक याचिका सुप्रीम कोर्ट में पन्द्रह सालों से पड़ी हुई है. अभी तक उसपर तमाम संबंधित पक्षों का हलफनामा तक दायर नहीं हो सका. राजनीतिज्ञों से कोई आशा है? खासकर तब, जब एक आतंकवादी को फांसी न हो, सब इसके इंतजाम में लगे हुए हैं. कहीं पर बम विस्फोट होने से पूरे देश में रेड अलर्ट घोषित करके सरकार पल्ला झाड़ लेती है. कुछ दिनों बाद फिर से कहीं और धमाके होंगे, तो जयपुर पीछे छूट जायेगा...आख़िर मुम्बई, हैदराबाद और बनारस पीछे छूट गए ही.

nadeem said...

ऐसे लोगों को जिहादी कहना जिहाद की तौहीन के अलावा कुछ नहीं है.इस्लाम में जिहाद का मुक़ाम बहुत ही आला है. दहशत फैलाकर जिहाद नहीं होता. ऐसे लोग किसी धर्मं विशेष के नहीं हो सकते.

और रही बात आतंरिक सुरक्षा की तो जब सयियाँ भये कोतवाल तो डर काहे का.

दिनेशराय द्विवेदी said...

आतंकवादियों का कोई धर्म नहीं। उन के लिए कोई दिन पवित्र नहीं। वे देखते हैं भीड़ हो, लोगों के जज्बे को भड़काया जा सके।
आतंकवाद का मकसद है समाज को बाँट कर अपना मतलब हल करना, समाज की एकजुटता ही इस का जवाब है।

राजेश कुमार said...

आंकड़े पेश कर आपने बहुत ही अच्छा काम किया है। आखिर ये आंतकवादी कौन हैं जो मंगलवाल को मंदिर में और शुक्रवार को मस्जिद में धमाके कराते हैं। असल में ऐसे लोगो का कोई ईमान धर्म नहीं होता। उनका एक ही धर्म होता है आंतक पैदा करना।

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी said...

इन सारे प्रश्नों का जवाब भी हमें ही तलाशना होगा। जिन्हे चुनकर भेज दिया, वे अब मौज ही करेंगे। चुनावी राजनीति का कुचक्र ही ऐसा है कि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर भी हम एक जैसा नहीं सोच पाते। एक जैसा ‘कर’ पाना तो और भी असम्भव है। अब हमें बिलकुल नयी जागरुकता विकसित करनी होगी ताकि राष्ट्रीय अस्मिता के प्रश्न पर हम एक साथ खड़े हो सकें।

Udan Tashtari said...

एकदम सधा हुआ विश्लेषण किया है आतंकवाद की समस्या का. सहमत हूँ आपसे.

Sandeep Singh said...

'आतंक' से भी ज्यादा भयावह है 'वाद' स्थापना की कवायद। जो वारदात की मंशा के पीछे छिपा होता है, जिसे वारदात के बाद बल मिलता है। अकसर हादसे के बाद एक पक्ष ऐसा सामने आता है जिसका हादसे से तात्कालिक सरोकार नहीं होता पर उसी का गाल बजाना सबसे ज्यादा होता है, और बेगुनाहों को शायद इसी मंशा की बलि चढ़ना होता है।

अजित वडनेरकर said...

सधा हुआ , धार दार विश्लेषण । हमेशा की तरह ।

Amit K Sagar said...

लेख पूरा पढता, इसकी ज़रूरत ही नहीं लगी, चूँकि लेख कमाल है! दरअसल आगाज़ का पहला सिरा आगाज़ के लिए ही सही लगा...फिर अगर सम्पूर्ण घटना को मेज़ पर रखा जाए...तो ये महज़ "खबर" नहीं और नाहीं कोई लेख हो सकता है...कुछ वक्तव्य बेहद प्रभावशाली. मगर वैसा कुछ भी नहीं जो "हल" दर्शाता हो...टेलीविज़न पर बिना ब्रेक का इक़ प्रोग्राम! जिनके घर उजड़े, उनके सिवा इस प्रोग्राम के बाद आराम ही आराम...नहीं तो क्या फरक पड़ता है...कोई दूसरा चेनल लगालो...जेहन-रिमोट कण्ट्रोल की तरह है न सबके पास अपने-अपने फायदों के विचार तो हैं ही...नहीं तो इजाद करने की कल्पना!; धर्म -औ" कर्म से (!) जोड़ती तो है मगर...आतंक आखिर क्यों?
(बयां करना चाहिए की "लेखक" की अभिव्यक्ति पर मैंने खुद से गुफ्तगू की है और कुछ नहीं...इस सहारे के लिए लाखों धन्यवाद...हर कोई इसी तरह (मैं) तो अपाहिज है...नहीं तो कुछ अपवादों को छोड़ दें, पायेंगे कि सब क्षदिक मस्ती की हानि के शगल को फटी कमीज़ की महफूज़ जेब में रखें- तो सब ही तो दुरुस्त हैं...फिर गलती कहाँ होती है धमाके में; अब मैं रोना चाहता हूँ कल के लिए चूँकि मेरे हिस्से के आंसू कल किसी धमाके में मेरे जाने के बाद किसी अन्यत्र लेख की आँख से न गिरें...नहीं तो दो-चार होके और भी रोने लगेंगे लोग...यही सहज है...सरल है...जिंदगी फ़कत इक़ खेल है...
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सादर;
अमित के. सागर

Anonymous said...

अनिल दादा,
बेहतरीन विश्लेषण है, और व्यवस्था का खोटापन हम आम जन ही भुगतते है.

भवदीय
रजनीश के झा
भडास