“हम भारत-अमेरिका परमाणु संधि पर संसद में बहस के लिए तैयार हैं। लेकिन सरकार संसद में बहस के दौरान पेश किए गए विचारों को मानने के लिए संवैधानिक तौर पर बाध्य नहीं है।” यह बयान किसका हो सकता है? आप कहेंगे कि सरकार के ही किसी नुमाइंदे का होगा। या तो खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का या विदेश मंत्री प्रणब मुखर्जी या बहुत हुआ तो संसदीय कार्यमंत्री प्रियरंजन दासमुंशी का। लेकिन आश्चर्यजनक किंतु सत्य है कि यह वक्तव्य विपक्ष के नेता और बीजेपी के लौह पुरुष लालकृष्ण आडवाणी का है।
संसद का शीतसत्र 15 नवंबर से शुरू हो रहा है। इसमें सरकार परमाणु करार पर बहस कराने को तैयार है। लेकिन वह नहीं चाहती कि इसकी शर्तों में कोई भी तबदीली हो। पहले बीजेपी और लेफ्ट पार्टियां इसके लिए तैयार नहीं थीं। दोनों ही मानती हैं कि यह भारत के संप्रभु हितों के खिलाफ है। वैसे, बीजेपी ने शुरू में ही साफ कर दिया था कि वह संधि के खिलाफ ज़रूर है, पर अमेरिका के साथ सामरिक रिश्तों के पक्ष में है। इसी बीच अमेरिका की तरफ से जमकर लॉबीइंग हुई। 25 अक्टूबर को अमेरिका राजदूत डेविड मलफोर्ड आडवाणी से मिले और छह दिन बाद ही 31 अक्टूबर को विपक्ष के नेता ने संधि और सरकार को बचानेवाला उक्त बयान दे डाला।
इससे अमेरिकी लॉबी का असर और बीजेपी की ‘लोच-क्षमता’ स्पष्ट हो जाती है। जो बीजेपी इस परमाणु करार को भारत के संप्रभु हितों के खिलाफ मानती रही है, वही अब कह रही है कि वह इस पर संसद में इसलिए व्यापक बहस चाहती है ताकि देश के लोग जान सकें कि यह महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधि कैसे अमल में लाई जाएगी और इससे जुड़ी शर्तें क्या हैं। पहले वह इस संधि की छानबीन के लिए संयुक्त संसदीय समिति बनाने की मांग कर रही थी। लेकिन अमेरिकी प्रतिनिधियों से मिलने के बाद उसने यह मांग पूरी तरह छोड़ दी है।
मजे की बात यह कि लेफ्ट पार्टियां भी धीरे-धीरे संधि के विरोध का स्वर धीमा करती जा रही हैं। पहले वे चाहती थीं कि संसद पर इस पर बहस हो और साथ ही वोटिंग भी कराई जाए क्योंकि सांसदों का बहुमत इस करार के खिलाफ है। लेकिन आज ही सीपीएम के महासचिव प्रकाश करात ने कह दिया कि वे संसद के शीतसत्र में भारत-अमेरिका परमाणु संधि पर बहस ऐसे नियम के तहत चाहते हैं कि जिसके तहत वोटिंग कराने की बाध्यता न हो।
मुझे समझ में नहीं आता कि क्या संसद सिर्फ बहस कराने का अखाड़ा है। अगर इतनी महत्वपूर्ण अंतरराष्ट्रीय संधि पर संसद की राय का सरकार के फैसले पर कोई असर नहीं पड़नेवाला तो हमारे इन लॉ-मेकर्स का फायदा क्या है? इधर लेफ्ट ही नहीं, बीजेपी खेमे की तरफ से भी कहा जा रहा है कि इस संधि का भारत की बिजली जरूरतों और उसमें परमाणु बिजली के योगदान से खास कोई लेनादेना नहीं है। ऐसे में अगर संसद की बहस से साबित हो गया कि परमाणु बिजली का शिगूफा संधि की असली शर्तों पर परदा डालने के लिए किया जा रहा है, क्या तब भी सरकार संवैधानिक रूप से इसे मानने और संधि की शर्तों को बदलवाने के लिए बाध्य नहीं होगी? हमारे नेता विपक्ष लालकृष्ण आडवाणी तो ऐसा ही मानते हैं।
मतदाता जागरूकता गीत
1 month ago
5 comments:
सर भारत के साथ परमाणु परीक्षण अप्रसार संधि पर दस्तखत न करने के लिए अमेरिकी कांग्रेस लगातार दबाव बनाए हुए थी...इस पूरी नीति को इरान के साथ आने वाली तेल पाइप लाइन की विफलता के साथ जोड़कर देखें तो साफ होता है कि कैसे उसने पड़ोसी देश के साथ आने वाली तेल पाइप लाइन पर संभावित संधि के आगाज से अमेरिका तिलमिला गया था। बहुत साफ है कि भारतीय उर्जा नीति पर भारतीय संसद नहीं अमेरिकी कांग्रेस में बहस हुई है। जियो पोलिटिकल मुद्दे को हम अगर केवल घरेलू मुद्दे से समझने की कोशिश करें तो बेहतर होगा। आप सही कह रहे हैं ऐसी संसद तो सुअरबाड़ा ही है..क्योंकि संसद की कार्रवाई भले ही टेलीविजन पर प्रसारित हो लेकिन इस तरह के मुद्दे पर कभी भी हमारे सांसदों ने कोई आपत्ति या समर्थन में ठोस बयान नहीं दिया है। अब निर्णय ऐसे ही लिए जाएंगे संप्रभुता तो भूल जाने वाली चीज है...
संसद सिर्फ़ बहस करने का अखाड़ा ही नही वरन जूतम पैजार का अखाड़ा भी है. वैसे मैंने तो सर ये भी पढ़ा था कि ये शगूफा बी जे पी वालों का ही छोडा हुआ है. और असल मे लेफ्ट और बी जे पी दोनों ही सरकार से थोडी मान मुनाव्वल करवाना चाहते है. सब नाटक है.
बिल्कुल, अगले सत्र में नूराँ-कुश्ती की सम्भावना ज्यादा लगती है।
अगले सत्र में जो संभावनायें हैं उसे हमारे यहाँ क्षेत्रिय भाषा में ढ़मर कड़ कड़ (नागपंचमी में कुश्ती के समय नगाड़े की धुन) कहते हैं जी. :)
भारतीय संविधान के मुताबिक वर्तमान स्थिति यही है कि किसी अंतर्राष्ट्रीय संधि में शामिल होने या किसी भी विदेशी राष्ट्र के साथ समझौते करने के मामले में केन्द्र सरकार न तो संसद के प्रति जवाबदेह है और न ही सुप्रीम कोर्ट के प्रति। जनता सूचना के अधिकार के तहत भी ऐसी कोई सूचना प्राप्त नहीं कर सकती, जिसके बारे में सरकार की यह राय हो कि इससे किसी विदेशी राष्ट्र के साथ सरकार के मित्रतापूर्ण संबंध प्रभावित होंगे।
यदि यह स्थिति बदलनी हो तो संविधान संशोधन की जरूरत पड़ेगी।
Post a Comment