तो मित्रों, आज से लिखना फिर से शुरू। ब्लॉग पर आपकी टिप्पणियां देखीं तो खुशी भी हुई और अफसोस भी। खुशी इस बात की कि आप लोगों को मेरा लिखा अच्छा लगता है और अफसोस इस बात का कि पूरे दस दिन तक मैं कुछ भी आपको नहीं दे सका। हालांकि यात्रा के दौरान इतनी सारी नई अनुभूतियों से टकराता रहा कि हर दिन दो-दो पोस्ट लिख सकता था। लेकिन एक तो निजी काम के लिए भागमभाग, ऊपर से लैपटॉप का न होना। इसके अलावा तीसरी बात यह है कि अभी तक ज्यादातर साइबर कैफे में विंडोज़ एक्सपी होने के बावजूद रीजनल लैंग्वेज में हिंदी को एक्टीवेट नहीं किया गया है। सो, तीन-चार जगह कोशिश करने पर जब हिंदी और यूनिकोड नहीं मिला तो चाहकर भी नहीं लिख सका।
लेकिन एक बात है कि सफर और दिल्ली प्रवास के दौरान इंसानी फितरत के बारे में काफी कुछ नया जानने का मौका मिला। कुछ मजबूरी और कुछ आदतन होटल में नहीं रुका। हिसाब यही रखा था कि जहां शाम हो जाएगी, वहीं जाकर किसी परिचित मित्र के यहां गिर जाएंगे। हालांकि कुछ मित्रों ने ऐसी मातृवत् छतरी तान ली कि कहीं और जगह रात को ठहरने ही नहीं दिया। फिर भी जिन तीन-चार परिवारों के साथ एकांतिक लमहे गुजारे, वहां से ऐसी अंतर्कथाएं मालूम पड़ीं कि दिल पसीज आया। लगा कि हर इंसान को कैसे-कैसे झंझावात झेलने पड़ते हैं और उसके तेज़ बवंडर में अपने पैर जमाए रखने के लिए कितनी जद्दोजहद करनी पड़ती है। कहीं-कहीं ऐसे भी किस्से सुनने को मिले, जिनसे पता चला कि दिल्ली के तथाकथित बुद्धिजीवी और क्रांतिक्रारी कितने ज्यादा पतित और अवसरवादी हो चुके हैं।
अपने तीन-चार कामों के लिए दिल्ली में इतनी भागदौड़ करनी पड़ी कि सृजन शिल्पी के अलावा किसी भी हिंदी ब्लॉगर से मिलना संभव नहीं हुआ। सृजन जी से भी आधे घंटे की भेंट हुई, वो भी इसलिए क्योंकि हम लोग एक साथ काम कर चुके थे और मैं याद नहीं कर पा रहा था कि इतना सुविचारित, प्रतिबद्ध और ईमानदार लेखन करनेवाले शख्स हैं कौन। खैर, ज़िंदगी सतत प्रवहमान है। ब्लॉग की दुनिया भी सतत बह रही है। दस दिनों तक मै लिख नहीं सका, इससे ज्यादा अफसोस इस बात का है कि मैं आप लोगों का लिखा हुआ पढ़ नहीं सका। जल्दी ही लैपटॉप ले लूंगा तो ये दिक्कत खत्म हो जाएगी।
12 comments:
अनिल जी, दिल्ली में एक रोज दोपहर के बाद आपकी झलक दिखी थी. शायद आंखों पर चश्मा था और कंधे में बैग. आप निजामुद्दीन ब्रिज के बाद जो नोयडा मोड आता है उसके आस-पास कहीं पर थे. रोड के किनारे. मैंने गाड़ी से आपको देखा था. तब सोचा था कि आप नहीं हो सकते. मेरा भ्रम होगा.
अब जब आपने दिल्ली में होने की बात की है तो मुझे यकीन हो चला है कि वो आप ही होंगे. क्या मैं सही हूं? बाकी अपनी व्यस्तता की कहानी तो आप बता ही चुके हैं.
चलिए आप लौटे तो सही!
गांव गये थे क्या?
लौटे तो सही !
आइए सर आप जमकर लिखेंगे तो, पीछे मैं भी कुछ-कुछ लिखता रहूंगा।
वापिस आए , खुशी है व स्वागत है ।
घुघूती बासूती
बहुत इंतजार करवाया आपने. लेकिन सुना है कि इंतजार का फल मीठा होता है तो सर अब मिठास फैलाइए और क्या.
शुभ स्वागतम !
आपका टिकट कंफर्म नहीं था, यह बात पहले बतला दिए होते तो कंफर्म करवाने की कोशिश कर सकते थे।
ख़ैर, अब ब्लॉग पर आपके लेखन का चूल्हा फिर से जल उठा है, यह देखकर खुशी है।
आपसे तकरीबन एक दशक बाद मिलना मेरे लिए भी बहुत सुखद रहा। काश, कि कभी देर तक गपियाना हो पाए।
बड़े दिन बाद आपका लौटा देखकर खुशी हुई!!
सचमुच बड़ा सूना सूना लग रहा था, कई कई बार आपके ब्लोग के चक्कर लगाये कि शायद आज कोई पोस्ट आई हो।
हमने आपके लिये एक पोस्ट भी लिखी, लगभग सब की टिप्पणीयां आई आपकी नहीं, तब लगा कि कहीं अनिल जी असवस्थ तो नहीं है?
एक बार फिर से आपका स्वागत है, बस अब दस दिनों की कसर पूरी कर दीजिये।
हां भूपेन जी, मुझे भी लगता है कि मैं ही रहा हूंगा क्योंकि मैं नोएडा की सड़क से मयूर विहार फेज-1 जा रहा था। शायद ये बात शुक्रवार 22 नवंबर की है।
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