Friday 25 May, 2007

एक विलंबित सांस

वह 18 मई का दिन था। मैंने मोहल्ले पर अविनाश जी के एक मार्मिक संस्मरण पर टिप्पणी क्या कर दी, वो ही नहीं उनकी प्रशस्ति करनेवाले भी विचलित हो गए। 19 मई से लेकर आज 24 मई तक बुखार में तप रहा था तो कुछ देख ही नहीं पाया कि कहां क्या चल रहा है, खासकर हिंदी ब्लॉग की सिमटी हुई दुनिया में। अब थोड़ा ठीक हो गया हूं तो सोचा, गलतफहमियों पर सफाई दे दी जाए। मैं साफ कर दूं कि बहस करने का मेरा कोई इरादा नहीं है, न ही मैं अपने प्रतिबद्ध होने या न होने की डुगडुगी बजाने जा रहा हूं क्योंकि मुझे अच्छी तरह पता है कि मै क्या हूं और मुझे खुद से, अपने देश से, समाज से क्या पाना और देना है। इसके लिए मुझे किसी वामपंथी-पोगापंथी बुद्धिजीवी की सीख की दरकार नहीं है।
ये सच है कि मैं अविनाश जी की केवल प्रोफेशनल पहचान से वाकिफ हूं। उनके आगे-पीछे के बारे में ज्यादा नहीं जानता। लेकिन शायद वो भी मेरे बारे में ज्यादा कुछ नहीं जानते, नहीं तो ऐसा नहीं लिखते कि, 'हम मानें कि हममें इतनी हिम्‍मत नहीं थी कि हम समाज बदलने की लड़ाई लड़ सकें। अगर ये हिम्‍मत होती, तो जो लड़ाई हमें अधूरी लग रही थी, उसे छोड़ कर लड़ाई का ही कोई दूसरा रास्‍ता खोजते। न कि अपने दाल-भात के जुगाड़ में लड़ाई से भाग खड़े होते।'
साथी, मुझ में ही नहीं, अस्सी के दशक में एक सच्चे लोकतांत्रिक भारत के ख्वाब को पूरा करने की लड़ाई के लिए अपना सारा करियर होम कर देनेवाले इलाहाबाद विश्वविद्यालय के कम से कम बीस नौजवानों (जिन्हें मैं नाम से जानता हूं) में हिम्मत तो इतनी थी कि उन्हें किसी माओ या चारु मजूमदार के नाम से प्रेरणा लेने की जरूरत नहीं थी। ये गांवों-कस्बों से आम परिवारों से ताल्लुक रखनेवाले वो नौजवान थे जिनको किसी लाल झंड़े का सम्मोहन नहीं था। वो, कांख भी ढंकी रहे और मुट्ठी भी तनी रहे, की दुनियादारी के साथ किसी अखबार के पत्रकार या संपादक बनने की जुगाड़पानी से कोसों दूर थे। लेकिन आज इनमें से इक्का-दुक्का लोग ही पुरानी क्रांतिकारी धारा के साथ जुड़े हुए हैं, वो भी एक विचित्र किस्म की, बड़ी-ही ट्रैजिक मजबूरी में।
हम लोग किसान परिवारों की कचोट लेकर इस आंदोलन में आए थे और इस सोच पर पहुंचे थे कि वर्तमान तंत्र न तो हमारी ख्वाहिशों को पूरा कर सकता है और न ही किसानों को सुंदर भविष्य दे सकता है। हमने बुद्धिजीवी बनकर दुकानें नहीं खोलीं। नक्सलवादी आंदोलन जब भयंकर तंद्रा से गुजर रहा था, तब हमने उसमें नयी ताजगी लाने का जोखिम उठाया। घर-बार छोड़ा। सालों-साल तक मजदूर कॉलोनियों और हरिजन-आदिवासी बस्तियों में रहकर उनके दुख-सुख बांटे, उनमें सुंदर भविष्य का सपना बुना, उन्हें अहसास कराया कि एक दिन ये मुल्क उनका भी होगा।
लेकिन जब चंद क्रांतिकारियों की जमात ने साबित कर दिया कि उनकी दुनिया इतनी संकीर्ण और छोटी है, कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद उनके लिए कोई वैज्ञानिक दृष्टि नहीं, बल्कि दुकानदारी की मजबूरी के निर्वाह का परचम है, तब हमें भी मजबूरी में निकलकर जिंदा रहने का जुगाड़ करना पड़ा। बड़ी-ही तकलीफदेह यात्रा थी यह। हम किसी विचारधारा के जरखरीद गुलाम नहीं थे कि उससे चिपके रहते और न ही इतने कायर और अपाहिज थे कि भ्रांतियो की पोटली ढोते चले जाते।
हम तो संत कबीर और बुद्ध की प्रेरणा लेकर आंदोलन में उतरे थे और आज भी उस सोच पर कायम हैं। इसलिए नहीं कि हमें अब भी मार्क्सवाद-लेनिनवाद के वैज्ञानिक दर्शन पर भरोसा है, बल्कि इसलिए कि आज भी मेरा ईमानदार मास्टर-किसान बाप खुशी से चहक नहीं सकता, मेरा भाई एमएससी-एजी करने के बावजूद घर पर चारपाई तोड़ रहा है, सत्तासीनों के लिए परेशानी खड़े करनेवाले हमारे गांवों के तमाम बहादुर नौजवानों को पुलिस एनकाउंटर में दिनदहाड़े गोलियों से भून दिया जाता है।
साथी, आपके लिए क्रांति एक बौद्धिक शगल हो सकता है, लेकिन हमारे लिए ये बुनियादी जरूरत है। ये अलग बात है कि शिक्षा और बाहरी दुनिया का जो एक्सपोजर हमें मिला है, उसमें हम बदलाव की लड़ाई का कोई रास्ता नहीं निकाल पा रहे।
अविनाशजी के अजीज भक्त निखिल आनंद गिरी को लगता है कि, 'आप जैसों के साथ समस्या ये है कि आप किसी के सार्थक प्रयासों की सराहना कर सकते हैं, खुद कोई पहल करने की बात ही छोड़िए।' यकीनन, सिस्टम के खिलाफ अकेले कफन बांधकर खड़े रहे होंगे अविनाशजी या उनमें जनवादी या प्रगतिशील होने की प्रशस्ति पाने की चाह होगी, ये सोचना भी बेमानी है। लेकिन अजीज गिरी, आपके पास वो दृष्टि कहां से आ गई कि आपने देख लिया कि मेरा मन कुंठा से भरा हुआ है। ये भी बता दूं कि मैंने न तो अंधेरे में तीर चलाया था और न ही अविनाश पर कोई व्य़क्तिगत निशाना साधा था। मैंने तो अविनाश जैसों की बात की थी।
फिलहाल, साईं इतना दीजिए जामे कुटुंब समाय, मैं भी भूखा न रहूं, साधु न भूखा जाए...इस सोच के साथ नौकरी कर रहा हूं। लगातार, इसी पढ़ाई-लिखाई और उधेड़बुन में लगा रहता हूं कि अपने हमवतन किसानों-नौजवानों के लिए इस मुल्क की सूरत को कैसे खूबसूरत बनाया जा सकता है। जिंदगी के ऊर्जा भरे दस-बारह साल स्वाहा करने के बाद इतना समझ चुका हूं कि क्रांति करने के लिए होलटाइमरी करने या खुदकुशी करने में कोई फर्क नहीं है। और, अपने हालात को बदलने के लिए कम से कम जिंदा रहना जरूरी है, इसलिए जिंदा हूं।

18 comments:

azdak said...

इस बेवजह के आक्रामक, आंदोलनकारी हल्‍ले में कहानी का अपना निजी पहलू आपने गहरी मार्मिकता व समझ के साथ सामने रखा है.. अच्‍छा लिखा!.. नज़र तीखी बनाए रखिए!

VIMAL VERMA said...

अरे अनिल भाई,ऐसे लोगो से तो बचने की ज़रुरत है. इनकी बात का बुरा मत मानिये. ’इनके”जिनकी आप बात कर रहे है.इन्होने इसको यानि ब्लाग को एक मसालेदार चैनल की तरह एक तरफ़ा सम्वाद ही करना सीखा है. टिप्पणी तो इनके लिए SMS की तरह है..की इस तरह की बात लिख कर ये सिर्फ़ हिट बटोरने के चक्कर मे है और आप है कि इन जैसो को अपना हिसाब दे रहे है जो मुझे लगता है गलत है.ये ही है असली राउन्ड हेड एन्ड पीक हेड का गेम खेलने वाले.इनके चरित्र को पहचानने की ज़रुरत है.. इनको और बोलने दीजिए..आप हमेशा अपनी धार बनाए रखिए और शान्तमन से अपना ब्लोग लेखन ज़ारी रखे.

उमाशंकर सिंह said...

अनिल जी, आपको मैं जितना जानता हूं उतने में ही ये कहने का हक़ रखता हूं कि आप विचारधारा और उसकी दूकानदारी के बीच का फर्क अगर अभी तक नहीं समझ पाए हैं तो जल्द समझ लें। मैं आपसे उम्र में छोटा हूं लिहाज़ा अनुभव में भी। पर इतना जता देना चाहता हूं कि विचारधारा का खम्भा गाड़ने और उसके बदले दूकानदारी करने वालों को आपसे बेहतर जानता हूं। इसलिए ऐसों की आलोचना पर आहत नहीं होता हूं जितना आप हुए प्रतीत होते हैं। ब्लाग एक नया माध्यम बनता जा रहा है वैचारिक दूकानदारी का। आप जैसे तो अपने विचार को शब्द रुप देते हैं लेकिन कई हैं जो दूसरों का माल बेच रहे हैं। कई नामवरों को छाप रहे हैं। ये उन ब्लागरों को को एक तरह की पहचान दे रहा है...उनको ज़िक्र में ला रहा है...कल को शायद कुछ 'अर्थ' भी दे जाए। वे वजह-बेवजह बहस चाहते हैं क्योंकि इससे उनकी सरसराहट सुनी जा सके। वैचारिक जंगल में उतर तो गए हैं पर शेर की तरह विचरने की बजाए परजीवी की तरह अपना पोषण तलाशते फिरते हैं। अपनी सोच से समाज को आगे ले जाने की बजाए परंपरागत शब्दाडंबरों का सहारा लेते नहीं थकते। करुण कथा का महत्व भी इनके लिए सिर्फ इतना प्रतीत होता है कि संवेदनशील लोगों की भावना हिट के रुप में बटोरी जा सकें। (विमल वर्मा जी ने अपनी टिप्पणी में हिटलोलुपता को और बेहतर ढंग से रखा है) ये हिन्दुस्तान और उसके हिन्दी मन को ये खूब झांसा देते हैं। ये अगर छोटे क्रांतिकारी भी होते तो पलायन कर महानगर में अपनी जीविका तलाशने-चलाने की बजाए उस करुण कथा के दोहराव की स्थिति को बदलने की कोशिश करते जिसको ब्लाग के शो रूम में सज़ा बेचने की कोशिश कर रहे हैं। आप आहत ना हों। आप और आप जैसों की कोशिश और विचार बेशक कोई बदलाव ना ला पाया हो लेकिन इससे उन कोशिशों और विचारों के पीछे की भावना का मोल कम नहीं होता।
लिखने को और भी लिख दूं... पर उम्मीद है कि जिनके लिए लिख रहा हूं वो थोड़े कहे का ज़्यादा समझेगें।

शुक्रिया

राकेश खंडेलवाल said...

आपकी
विचारों से सहमत होते हुए यही कहूँगा के कीचड़ से बच कर निकलना ही उत्तम है. उसमें पत्थर फ़ैंकना बेकार है

अनूप शुक्ल said...

अच्छा लगा आपके बारे में काफ़ी कुछ जानकर। आप
लिखते रहें। बाकी साथी लोगों सही ही कहा है कि
उकसाऊ टिप्पणियों से आहत न हों।

Avinash Das said...
This comment has been removed by the author.
अभय तिवारी said...

बड़े भाग्यशाली हैं आप अविनाश.. एक ऐसा फ़ैन है आपके पास जो आपके साथ देवघर रहता है..फिर आप के ब्लॉग पर आपका प्रहरी बन कर खड़ा हो जाता है.. आपके सारे कीर्तिमानों को याद करता है.. गुनता है.. और दूसरों को भी हड़का हड़का के याद दिलाता है.. दूसरो को दो कौड़ी बराबर भी नहीं.. और आप को देवतुल्य मानता है.. आप पर पड़ी हर चोट का करारा पलट वार करता है.. ऐसे बिलबिला के जवाब देता है.. जैसे अविनाश आप नहीं वो खुद हो..और इतना विनम्र कि कभी आपसे सम्पर्क साधने की कोशिश भी नहीं करता.. निखिल आनन्द गिरि उर्फ़ अज़ीज़ जैसा सुन्दर नाम.. और चाहिये क्या एक ब्लॉगिये को.. भगवान ऐसा पंखा सब को दे..

अभय तिवारी said...

और एक व्यक्तिगत सलाह देना चाहूँगा आपको अविनाश इस तरह की बहस में आप अपने मित्रों से सुने हुए किसी के भी घरेलू वाकयों की बात न करें.. ये अच्छी बात नहीं..

Avinash Das said...

अभय जी, जंगल जहां ख़त्‍म होता है, वहीं से शुरू होता है घर। बड़े चतुर हैं आप। उकसाना जानते हैं। मैंने तो घरेलू वाकयों की कोई बात नहीं की। सबके घर-परिवार की अपनी कहानी होती है और अगर वो सार्वजनिक जीवन में है, तो कई बार उसकी कहानी निजी नहीं रह जाती। निजता, सार्वजनीनता एक हद के बाद घुल-मिल जाते हैं। इसके बावजूद कि आप कितना भी कुरेदें, मैं किसी के घरेलू वाकयों की कहानी नहीं सुनाने वाला। निर्मलता की आपकी चादर आपकी ही बनायी हुई है। किसी ने उसमें सूत नहीं दिया है- ये अब धीरे धीरे मेरे सामने साफ हो रहा है। लेकिन अनुरोध है कि आप मार्मिकता और नाटकीयता में अंतर समझने की कोशिश करें।

Avinash Das said...

और हां, भरोसा करें, मैं सचमुच नहीं जानता कि ये निखिल आनन्द गिरि कौन हैं। मैं उनका आभारी हूं कि उन्‍होंने इस मुस्‍तैदी से मुझ पर नज़र रखा है।

चंद्रभूषण said...

pyare bhai, vichar ko dhara banayen, dweep nahin. dusaron ko jodne ke bajay apnon ko bhagaana bachkani baat hai. anil, abhai, avinash, teenon ko mai niji taur par jaanta hun aur pure bharose ke saath kah raha hun ki yah kadvahat kisi galatfahmi ka natija hai. ye sabhi log apna kafi kuch kho kar janta ke sath khade hone vale hain. insan ko parakhne ki isase badi kasauti aur kya ho sakti hai?baki jo kuch bhi hai vah personal detail hai, jiska samman karte hue healthy bahas ki gunjaish banaye rakhni chahiye.

अभय तिवारी said...

आप कह रहे हैं कि मैं उकसाना जानता हूँ.. तो मैं इसे अपनी उपलबधि मानूँगा.. मुझे पता नहीं था कि ये भी मैं जानता हूँ.. लेकिन आप दूसरी तरफ़ ये भी कह रहे हैं कि मैं मार्मिकता और नाटकीयता का फ़रक नहीं जानता.. मैं जंगल और घर की हद भी नहीं जानता.. मैं कम जानता हूँ.. आप ज़्यादा जानते हैं.. आप अनिल रघुराज को भी खूब जानते हैं.. मगर अपने द्वार पर बैठे स्वामिभक्त कुत्ते को नहीं जानते.. जो सिर्फ़ आप के ब्लॉग पर ही जा कर बैठता है.. बाकी कहीं नहीं भौंकता..गजब है भाई.. इस दो तीन सौ लोगों की दुनिया में एक अजब दीवाना है आपका..इस बेगानी दुनिया में जहाँ भैया भैया कहने वाले लोग कब आपको सरे आम बेइज़्ज़त कर देंगे, कुछ पता नहीं.. आप हम से ये उम्मीद करते हैं कि ऐसे किसी निस्वार्थ भक्त के अस्तित्व पर भरोसा किया जाय.. बड़े भोले हैं आप..

Avinash Das said...

अभयजी, मोहल्‍ला इन दो-तीन सौ लोगों की दुनिया के बाहर भी पढ़ा जाता है।

अनिल said...

bhai anil ji! aapki marmik baton ko sunkar kai pahluon par socha aur kai muddon par ki gayi baat ko nirasha me raag alapna jaisa hi maine samajha.

dekhiye main kranti, pratibaddhta, jaise shabdon ko gazar mooli ki tarah chbane ka virodhi hu. aapko saabit karna hai ki aap bahut shantchitt hokar rachnadharmita me lage hain aur bina ki teen tikadam ke apna jeewan jee rahe hain aur isase alag koi baat karne wale ko aap utejak narebaaji kah ke niptana chahte hain pramod ji ke shabdon me इस बेवजह के आक्रामक, आंदोलनकारी हल्‍ले में कहानी का अपना निजी पहलू आपने गहरी मार्मिकता व समझ के साथ rakhne ka bhram paale hain to mujhe lagata hai ki samaj ke thahrav ke daur me to yah sahi lag sakta hai lekin bhari utthal putthal ke samay theek nahi hoga, aur aapne kaha bhi hai ki naxalbari ke daur ke prabhav ke karan aapke kai vyaktigat mitra jude hain yah baat deegar hai ki aaj we kahan hai.

dwandatmak bhautikvaad ke sandarbh me aapki kahi baton ka jawab fir kabhi lekin ek jaroori baat ki aaj ke ghor nonpolitical mahaul me fashion ban gaya hai ki aap pratibaddhta ko, vichardhara ko, badalaw ko common sense ke star par nakar dein aur power me baithe log jaardasht propogenda chalakar apko khush rakhne ka daawa bhi karte rahein.

aur vimal bhai jaise log smart vaktava dekar mahanta bodh me fanse rahte hai bajai ki sawalon s seedhe seedhe jojhne ke, yah pravitti behad khatrnaak hai. padhe likhe tabke ka yah kartavya hai ki aisi bahson me hissa lekar naye rashton ki talash kare.

अनिल रघुराज said...

अनु महोदय,
आपने बहुत अच्छा सोचा और सोचते रहिए। ऐसा करना आपके स्वास्थ्य के लिए नितांत जरूरी है क्योंकि एक खास प्रजाति को कुछ भी पचाने के लिए लंबे समय तक पागुर करना पड़ता है, भले ही वो गाजर, मूली ही क्यों न हो। क्या कीजिएगा, आपके सामने तो बीन की धुन भी आलाप लग सकती है और आलाप भी किसी का रंभाना।
द्वंद्वात्मक भौतिकवाद पर फिर कभी क्यों, अभी लिख मारिए न। हिंदुस्तान को किसी माओ त्सेतुंग की बड़ी जरूरत है। खैर, फिलहाल आपको मेरी सलाह है कि विमल या मुझ जैसे दूसरों को सीख देने के बजाय अपनी आंखों की कीचड़ को ही साफ कर लें, तो आपको शायद अपना चेहरा नजर आ जाएगा।
फिर भी आपके निष्कपट सुझावों के लिए शुक्रिया।

उमाशंकर सिंह said...

वैचारिक वर्चस्व की ऐसी लड़ाई अगर एलओसी पर छिड़ जाती तो शायद भारत-पाकिस्तान के बीच की समस्या ज़्यादा जटिल हो जाती। इसलिए अगर किसी ने अब तक ऐसा नहीं कहा है... तो मैं कह रहा हूं कि दुनिया भर की समस्याएं 'कलम-धारी-योद्धाओं' की देन है और उन्हें अब तक संभाला 'बंदूककारों' ने है। आख़िर बंदूकधारियों को अपनी रेंज का पता होता है और वो उसी हिसाब से निशाना लगाते हैं... पर कलमकार हद से बाहर जा कर खुद को साबित करने की कोशिश में जुटे नज़र आते हैं! गज़ब

azdak said...

ये सब कर क्‍या रहे हैं आप लोग? अच्‍छा लग रहा है?.. नुक्‍कड़ से चाय-समोसा ऑर्डर करूं? कि भरे पेट देर तक आपलोगों का यह सितार-हारमोनियम बजता रहे?.. हद है!

अनिल said...

anil ji! maine to ek sarthak samvaad jaari rakhne ke uddeshya ke liye tippani kiya tha khaskar yah samajnhte huye ki aandonon ki asafalta se upaji nirasha ke karan poori aisi ek trend humare samaj me maujood hai.khais aapne meri tippani ko vyaktigat banakar bhut kadvi kar diya, main maafi chahta hu. aur isase aage aapki kisi baat ka jawab dena jaroori nahi samajhta hu.