जिंदगी का यू-टर्न
Don't be silly youngman. Now you have turned 45, behave like an adult. Let the man within you unfold himself.
जिंदगी में यू-टर्न लेना सचमुच मुश्किल होता है। पहले उसने दूसरों के लिए जीने का मिशन अपनाया, सलीका अपनाया। अब जबकि उसकी उम्र 45 साल की हो चुकी है, उसे समझ में आया कि अब अपने लिए जीना चाहिए। इसी मोड़ पर उसे जिंदगी के यू-टर्न का अहसास हुआ। असल में जब वो सोलह-सत्रह साल का था, तब यूनिवसिर्टी के कुछ छात्र गुरुओं ने उसे समझा दिया कि जिंदगी दूसरों के लिए जिओ, समाज के लिए जिओ, देश के लिए जिओ। अपने लिए तो कुत्ता भी जी लेता है, खाता-पीता है, बच्चे पैदा करता है। बात उसकी समझ में आ गई। उसने इस पर पूरी शिद्दत से अमल किया। चार साल यूनिवर्सिटी में बिताए। फिर आठ साल उसने गांवों में हरिजन, दुसाध, पासियों या आदिवासियों की बस्तियों और रेल मजदूरों के बीच में बिताए। इस दौरान उसे कई बार लगा कि दिमाग की सोई हुई चिप्स खुलती जा रही है। कई खूबसूरत अनुभूतियां हुई, अनोखे अनुभव हुए। लेकिन इस तरह नौजवानी के बेहतरीन बारह साल, वो साल जो खुद की जिंदगी को बनाने-संवारने में लगाने चाहिए थे, उसने दूसरों के लिए जीने में लगा दिए।
सपने तो खुद अपनी आंखों से देखे, लेकिन अपने लिए नहीं, एक अमूर्त सत्ता के लिए जो देश, समाज और अपनों की जिंदगी में खुशहाली ले आएगी। सपने में अतीत की सारी छवियां सजीव होती गईं। उसने घर छोड़ा तो लगा कि गौतम बुद्ध उसके साथ चल पड़े हैं। खेतों की मेड़ों पर चलते वक्त कभी उस पर कबीर की सधुक्कड़ी सवार हो जाती तो कभी भगत सिंह का खुमार। नहरों के किनारे चलते-चलते कभी उसके माथे पर गांधी का ब्रह्मचर्य चमकता (वैसे वह तभी से गांधी को आज की सारी राजनीतिक बुराइयों, दलाली की राजनीतिक संस्कृति के लिए जिम्मेदार मानता था) तो कभी विवेकानंद का ओज। गांवों में गया, शहरों की मजदूर बस्तियों में गया। पार्टी की पाठशालाओं में गया। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आते गए। वक्त तेजी से गुजरता गया।
हर जगह, हर समय, हर पल उस पर एक सुरूर छाया रहता। लेकिन कुछ साल बीतने के बाद उसे लगने लगा कि वह देवशिशु या बाल भगवान जैसा बन गया है। जिनके सुख-दुख वह बांटता था, उनके पास तो अपने लोग थे, घर परिवार था। लेकिन उसका कौन है, किसके साथ वह अपनी मानसिक उलझनों और विचारों को बांटे। उसे रागात्मक संबंधों की कमी कहीं अंदर से सालने लगी। पार्टी से बात की तो जवाब मिला कि उसके पास निजी चिंताओं और विचारों के लिए जगह नहीं है, संगठन की बात करो, आंदोलन की बात करो...ये बात मत करो कि तुम क्या सोचते हो, कैसा सोचते हो।लेकिन सोच से ही तो विचारधारा बनती है। विचारधारा कुछ नीति वाक्यों का समुच्चय़ भर नहीं होती, जिसे रट लिया जाए और उसी की रट लगाते रहा जाए। लेकिन न तो पार्टी नेताओं ने उसकी सुनी और न ही पार्टी में उसके साथ आए पुराने सहपाठियों ने।
धीरे-धीरे वह निपट अकेला होता गया। इतना अकेला कि उसे फिर वैसे सपने आने लगे जैसे उसे एमएससी फाइनल की परीक्षा में क्वांटम मैकेनिक्स का पेपर तैयार न होने पर रात के तीन बजे झपकी आने पर देखा था कि उसे कोहरे से भरी ठंडी रात में पेंग्युन चिड़ियों के एक झुंड ने अपनी पीठ पर बैठाकर उड़ाए ले जा रहा है। पेंग्युन चिड़ियां आपस में इंसानी जुबान में बात भी करती जा रही थीं। सपने से जगा तो दिलोदिमाग में इतनी ठंडक भर गई कि परीक्षा की अधूरी तैयारी का सारा तनाव छंट गया। वह शीतल निष्काम तटस्थता से भर गया कि जो होगा, सो देखा जाएगा...चंद घंटों में तो सारे साल की पढ़ाई पूरी नहीं की जा सकती। तर्क ने बताया कि पेंग्युन चिड़ियों का इस तरह उड़ना बेतुका है। लेकिन यहीं पर उसे एहसास हुआ कि स्वर्ग या जन्नत की कल्पना कहां से उपजी होगी।
वह पार्टी के साथ काम करते हुए अज्ञातवास से अम्मा-बाबूजी को गाहे-बगाहे खत लिखता रहा। उन्हें समझाता रहा कि उसका घर छोड़ना घरेलू जिम्मेदारियों से पलायन नहीं है और यह कि आज भी देश और समाज को भगत सिंह जैसों की जरूरत है। ये सभी खत घर पहुंचे, मां-बाप और भाई-बहन ने ही नहीं, कुछ संवेदनशील रिश्तेदारों ने भी इन्हें पढ़ा। उसकी महानता के चर्चे भी हुए। लेकिन गांव के कुछ बड़े-बुजुर्गों ने बात फैला दी कि वह तो सचमुच का पागल हो गया है और किसी पागलखाने में उसका ईलाज चल रहा है, तभी तो आठ साल से घर नहीं आया है।
इस दौरान मां की हालत सबसे ज्यादा खराब रही। बाप के मन को तो अपने सपनों के मर जाने से जैसे लकवा मार गया था। शुरू में कई महीने तक घर न आने और कोई खोजखबर भी न मिलने पर अम्मा-बाबूजी यूनिवर्सिटी गए तो उसके हॉस्टल के कमरे में उसका बक्सा, सूटकेस, किताबें सब चीजें जस की तस पड़ी हुई थीं। बाबूजी को लगा कि कुछ लोगों ने अगवा कर उसे मार डाला है। उन्होंने उसके कुछ छात्र गुरुओं को धमकी तक दे डाली कि वो उन्हें अपने बेटे की हत्या के लिए कोर्ट तक घसीट ले जाएंगे। बाद का हाल ये है कि मां किसी भी शहर में जाने पर चौराहों से लेकर रेलवे स्टेशनों पर भटकते या भीख मांगते नौजवान पागलों को गौर से देखती कि कहीं वो उसका दुलरुआ तो नहीं हैं। लेकिन दो साल बाद जब उसका भेजा लिफाफा घर के पते पर पहुंचा तो अम्मा-बाबूजी को तसल्ली हो गई कि बेटा जिंदा है। फिर भी उन्हें उसकी सलामती की फिक्र सताती रही। मां को जब भी खबर मिलती कि कहीं कोई गुनी साधु या फकीर आया है तो वो उसकी शरण में जा पहुंचती। पूछती कि उसका बेटा कहां और कैसा है। मां ने तमाम ज्योतिषियों तक से पूछ डाला। किसी ने बताया कि वो उत्तर दिशा में सही-सलामत है और अगले साल क्वार महीने की नवमी तक घर लौट आएगा। सभी ने उसे तरह-तरह के अनुष्ठान करने की सलाह दी, जैसे हर शनिवार को घर से दक्षिण किसी पीपल के पेड़ पर दिन डूबने के बाद जल देना या रोज किसी भिखारी को एक रुपए का सिक्का देना।
उधर उसे कभी-कभी घर की याद आती को अफसोस होता कि मां-बाप की चाहत को वह पूरा नहीं कर सका। घर से आखिरी बार जाते वक्त साइकिल के पीछे-पीछे दूर तक दौड़ता हुआ छोटा भाई दिखाई देता। उसकी आंखों में आंसू पसीज आते। लेकिन बड़े मकसद के लिए वह इन 'क्षुद्र' भावनओं को कहीं गहरे दफ्न कर देता। लेकिन 'समाज और देश' का काम करते हुए एक दिन उसे लगा कि वह तो कूप-मंडूक बनकर रह गया है। जिस दुनिया को वह बदलने के लिए निकला है, अगर उसे उस दुनिया की चाल-ढाल ही पता नहीं लग पाई तो वह क्या उसे बदलेगा! वह पार्टी और संगठन के ढांचे में बेहद घुटन महसूस करने लगा। इसी दौरान वह तराई के इलाके में पार्टी क्लास में हिस्सा लेने गया, जहां उसे मिली एक मत्स्यगंधा। मल्लाह की लड़की, जिसकी शादी किसी अर्द्ध-विक्षिप्त से कर दी गई थी। वो वहली बार ससुराल से लौटी तो दोबारा नहीं गई। ससुराल वाले उसे विदा कराने की जिद कर रहे थे, लेकिन वो किसी भी सूरत में जाने को तैयार नहीं थी। पार्टी के स्थानीय नेता ने उससे बात की तो उसने ससुराल जाने से साफ इनकार कर दिया। उन्होंने पूछा कि तब तुम करोगी क्या। उसने तपाक से उसकी तरफ देखकर जवाब दिया - मैं ये इलाका छोड़कर साथी के साथ जाऊंगी और इनके साथ पार्टी का काम करूंगी। वह अचानक चौंक पड़ा, लेकिन मन ही मन में लड्डू फूटने लगे कि काश ऐसा हो जाता। (अभी जारी है बयान)
जिंदगी में यू-टर्न लेना सचमुच मुश्किल होता है। पहले उसने दूसरों के लिए जीने का मिशन अपनाया, सलीका अपनाया। अब जबकि उसकी उम्र 45 साल की हो चुकी है, उसे समझ में आया कि अब अपने लिए जीना चाहिए। इसी मोड़ पर उसे जिंदगी के यू-टर्न का अहसास हुआ। असल में जब वो सोलह-सत्रह साल का था, तब यूनिवसिर्टी के कुछ छात्र गुरुओं ने उसे समझा दिया कि जिंदगी दूसरों के लिए जिओ, समाज के लिए जिओ, देश के लिए जिओ। अपने लिए तो कुत्ता भी जी लेता है, खाता-पीता है, बच्चे पैदा करता है। बात उसकी समझ में आ गई। उसने इस पर पूरी शिद्दत से अमल किया। चार साल यूनिवर्सिटी में बिताए। फिर आठ साल उसने गांवों में हरिजन, दुसाध, पासियों या आदिवासियों की बस्तियों और रेल मजदूरों के बीच में बिताए। इस दौरान उसे कई बार लगा कि दिमाग की सोई हुई चिप्स खुलती जा रही है। कई खूबसूरत अनुभूतियां हुई, अनोखे अनुभव हुए। लेकिन इस तरह नौजवानी के बेहतरीन बारह साल, वो साल जो खुद की जिंदगी को बनाने-संवारने में लगाने चाहिए थे, उसने दूसरों के लिए जीने में लगा दिए।
सपने तो खुद अपनी आंखों से देखे, लेकिन अपने लिए नहीं, एक अमूर्त सत्ता के लिए जो देश, समाज और अपनों की जिंदगी में खुशहाली ले आएगी। सपने में अतीत की सारी छवियां सजीव होती गईं। उसने घर छोड़ा तो लगा कि गौतम बुद्ध उसके साथ चल पड़े हैं। खेतों की मेड़ों पर चलते वक्त कभी उस पर कबीर की सधुक्कड़ी सवार हो जाती तो कभी भगत सिंह का खुमार। नहरों के किनारे चलते-चलते कभी उसके माथे पर गांधी का ब्रह्मचर्य चमकता (वैसे वह तभी से गांधी को आज की सारी राजनीतिक बुराइयों, दलाली की राजनीतिक संस्कृति के लिए जिम्मेदार मानता था) तो कभी विवेकानंद का ओज। गांवों में गया, शहरों की मजदूर बस्तियों में गया। पार्टी की पाठशालाओं में गया। दिन के बाद रात और रात के बाद दिन आते गए। वक्त तेजी से गुजरता गया।
हर जगह, हर समय, हर पल उस पर एक सुरूर छाया रहता। लेकिन कुछ साल बीतने के बाद उसे लगने लगा कि वह देवशिशु या बाल भगवान जैसा बन गया है। जिनके सुख-दुख वह बांटता था, उनके पास तो अपने लोग थे, घर परिवार था। लेकिन उसका कौन है, किसके साथ वह अपनी मानसिक उलझनों और विचारों को बांटे। उसे रागात्मक संबंधों की कमी कहीं अंदर से सालने लगी। पार्टी से बात की तो जवाब मिला कि उसके पास निजी चिंताओं और विचारों के लिए जगह नहीं है, संगठन की बात करो, आंदोलन की बात करो...ये बात मत करो कि तुम क्या सोचते हो, कैसा सोचते हो।लेकिन सोच से ही तो विचारधारा बनती है। विचारधारा कुछ नीति वाक्यों का समुच्चय़ भर नहीं होती, जिसे रट लिया जाए और उसी की रट लगाते रहा जाए। लेकिन न तो पार्टी नेताओं ने उसकी सुनी और न ही पार्टी में उसके साथ आए पुराने सहपाठियों ने।
धीरे-धीरे वह निपट अकेला होता गया। इतना अकेला कि उसे फिर वैसे सपने आने लगे जैसे उसे एमएससी फाइनल की परीक्षा में क्वांटम मैकेनिक्स का पेपर तैयार न होने पर रात के तीन बजे झपकी आने पर देखा था कि उसे कोहरे से भरी ठंडी रात में पेंग्युन चिड़ियों के एक झुंड ने अपनी पीठ पर बैठाकर उड़ाए ले जा रहा है। पेंग्युन चिड़ियां आपस में इंसानी जुबान में बात भी करती जा रही थीं। सपने से जगा तो दिलोदिमाग में इतनी ठंडक भर गई कि परीक्षा की अधूरी तैयारी का सारा तनाव छंट गया। वह शीतल निष्काम तटस्थता से भर गया कि जो होगा, सो देखा जाएगा...चंद घंटों में तो सारे साल की पढ़ाई पूरी नहीं की जा सकती। तर्क ने बताया कि पेंग्युन चिड़ियों का इस तरह उड़ना बेतुका है। लेकिन यहीं पर उसे एहसास हुआ कि स्वर्ग या जन्नत की कल्पना कहां से उपजी होगी।
वह पार्टी के साथ काम करते हुए अज्ञातवास से अम्मा-बाबूजी को गाहे-बगाहे खत लिखता रहा। उन्हें समझाता रहा कि उसका घर छोड़ना घरेलू जिम्मेदारियों से पलायन नहीं है और यह कि आज भी देश और समाज को भगत सिंह जैसों की जरूरत है। ये सभी खत घर पहुंचे, मां-बाप और भाई-बहन ने ही नहीं, कुछ संवेदनशील रिश्तेदारों ने भी इन्हें पढ़ा। उसकी महानता के चर्चे भी हुए। लेकिन गांव के कुछ बड़े-बुजुर्गों ने बात फैला दी कि वह तो सचमुच का पागल हो गया है और किसी पागलखाने में उसका ईलाज चल रहा है, तभी तो आठ साल से घर नहीं आया है।
इस दौरान मां की हालत सबसे ज्यादा खराब रही। बाप के मन को तो अपने सपनों के मर जाने से जैसे लकवा मार गया था। शुरू में कई महीने तक घर न आने और कोई खोजखबर भी न मिलने पर अम्मा-बाबूजी यूनिवर्सिटी गए तो उसके हॉस्टल के कमरे में उसका बक्सा, सूटकेस, किताबें सब चीजें जस की तस पड़ी हुई थीं। बाबूजी को लगा कि कुछ लोगों ने अगवा कर उसे मार डाला है। उन्होंने उसके कुछ छात्र गुरुओं को धमकी तक दे डाली कि वो उन्हें अपने बेटे की हत्या के लिए कोर्ट तक घसीट ले जाएंगे। बाद का हाल ये है कि मां किसी भी शहर में जाने पर चौराहों से लेकर रेलवे स्टेशनों पर भटकते या भीख मांगते नौजवान पागलों को गौर से देखती कि कहीं वो उसका दुलरुआ तो नहीं हैं। लेकिन दो साल बाद जब उसका भेजा लिफाफा घर के पते पर पहुंचा तो अम्मा-बाबूजी को तसल्ली हो गई कि बेटा जिंदा है। फिर भी उन्हें उसकी सलामती की फिक्र सताती रही। मां को जब भी खबर मिलती कि कहीं कोई गुनी साधु या फकीर आया है तो वो उसकी शरण में जा पहुंचती। पूछती कि उसका बेटा कहां और कैसा है। मां ने तमाम ज्योतिषियों तक से पूछ डाला। किसी ने बताया कि वो उत्तर दिशा में सही-सलामत है और अगले साल क्वार महीने की नवमी तक घर लौट आएगा। सभी ने उसे तरह-तरह के अनुष्ठान करने की सलाह दी, जैसे हर शनिवार को घर से दक्षिण किसी पीपल के पेड़ पर दिन डूबने के बाद जल देना या रोज किसी भिखारी को एक रुपए का सिक्का देना।
उधर उसे कभी-कभी घर की याद आती को अफसोस होता कि मां-बाप की चाहत को वह पूरा नहीं कर सका। घर से आखिरी बार जाते वक्त साइकिल के पीछे-पीछे दूर तक दौड़ता हुआ छोटा भाई दिखाई देता। उसकी आंखों में आंसू पसीज आते। लेकिन बड़े मकसद के लिए वह इन 'क्षुद्र' भावनओं को कहीं गहरे दफ्न कर देता। लेकिन 'समाज और देश' का काम करते हुए एक दिन उसे लगा कि वह तो कूप-मंडूक बनकर रह गया है। जिस दुनिया को वह बदलने के लिए निकला है, अगर उसे उस दुनिया की चाल-ढाल ही पता नहीं लग पाई तो वह क्या उसे बदलेगा! वह पार्टी और संगठन के ढांचे में बेहद घुटन महसूस करने लगा। इसी दौरान वह तराई के इलाके में पार्टी क्लास में हिस्सा लेने गया, जहां उसे मिली एक मत्स्यगंधा। मल्लाह की लड़की, जिसकी शादी किसी अर्द्ध-विक्षिप्त से कर दी गई थी। वो वहली बार ससुराल से लौटी तो दोबारा नहीं गई। ससुराल वाले उसे विदा कराने की जिद कर रहे थे, लेकिन वो किसी भी सूरत में जाने को तैयार नहीं थी। पार्टी के स्थानीय नेता ने उससे बात की तो उसने ससुराल जाने से साफ इनकार कर दिया। उन्होंने पूछा कि तब तुम करोगी क्या। उसने तपाक से उसकी तरफ देखकर जवाब दिया - मैं ये इलाका छोड़कर साथी के साथ जाऊंगी और इनके साथ पार्टी का काम करूंगी। वह अचानक चौंक पड़ा, लेकिन मन ही मन में लड्डू फूटने लगे कि काश ऐसा हो जाता। (अभी जारी है बयान)
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