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Showing posts from February, 2007

शाम पर एक कविता

शाम ढलते थके सूरज ने समेटा जाल फैला सात रंगों का चिनारों की फुनगियों पर जो उलझकर रह गई थी सोनपंखी किरन मछली उसे पंजे में दबाकर कुतरती है एक घायल चील दोनों पंख फैलाए। परछाइयां सिमटीं, ओझल हुई और मिट चलीं बचपना दुबका, खांसते बूढ़े... खामोश खपरैलों को ढंकने लगी चादर अंधेरे की। हर तरफ वीरानगी है गजब का सुनसान है जो आहट बस यही कि... गूंजता रहता फिज़ा में मातमी का पारदर्शी एक धीमा स्वर आदमी की खाल से मढ़ते मृदंगों का। (यह कविता मुझे कागज के एक ठोंगे पर लिखी हुई मिली थी, आधी-अधूरी। जहां कमजोरी झलके, समझिएगा कि वे लाइनें मैंने लिखी हैं। कवि का नाम पता हो तो जरूर बताइएगा)

Team India! Think it again

पूरे देश पर इस समय वर्ल्ड कप का जुनून चढ़ा हुआ है। टीम इंडिया की हौसला-अफजाई लगता है राष्ट्रीय कर्तव्य बन गया है। ऐसे में देश के प्रतिष्ठित अंग्रेजी अखबार इकोनॉमिक टाइम्स की एक पुरानी रिपोर्ट के कुछ अंश पेश कर रहा हूं। गौर फरमाइए.... ....The truth is that India does not own Indian cricket. The team full of FMCG models is anything but public property. The players are employees of a private society registered as an association under Tamil Nadu’s Society Registration Act of 1860. This association, The Board of Control for Cricket in India (BCCI), is affiliated to a limited company registered in British Virgin Islands called the International Cricket Council (ICC). The BCCI is widely regarded as the richest cricket club in the world, though humorously enough, it calls itself a non-profit organisation.... The cricket body is so private and independent that in theory the word "India" in the BCCI could be contested. The government has in the past denied private bodies the right to u...

जोगी लौटा देश

दो साल बाद...चली गई मत्स्यगंधा। किशोर भी चला गया। वह अपने ससुराल चली गई पागल पति के साथ घर बसाने और ये अपने घर लौट गया अपने मां-बाप के पास नई जिंदगी शुरू करने। इस तरह जो किशोर जोगी बनने निकला था, वह बीच सफर से ही वापस लौट गया। सब कुछ छोड़कर उसे पुराने रिश्तों का घूंट पीना पड़ा। वैसे, सच कहें तो उसकी जोगी बनने की चाहत का किसी विचारधारा या क्रांति से कोई लेना-देना नहीं था, वह तो बस एक जुनूनी और रोमांटिक पलायन था। संयोग से उसके दोनों हाथों की उंगलियों के पोरों पर शंख के निशान हैं और अपने यहां कहा ही गया है कि दसों चक्र राजा, दसों शंख योगी। क्रांतिकारी बनने में उत्प्रेरक का काम इस जानकारी ने भी किया कि भगत सिंह और उसके जन्म की तारीख एक ही थी। खैर, इन दो सालों में मत्स्यगंधा के साथ क्या हुआ, ये तो पता नहीं, लेकिन किशोर को भयंकर उहापोह से गुजरना पड़ा। दुनिया, समाज, उसे बदलने की विचारधारा, अपने अंदर के संसार को बदलने का तरीका - इन सारी बातों पर लगातार उसके भीतर मंथन चलता रहा। इस मंथन से अमृत भी निकला और जहर भी। अमृत है ये ज्ञान कि हिंदुस्तान के गरीब लोगों के बीच अगर आप सेवा की सच्ची भावना से ...

चलता रहा सिलसिला

काश ऐसा हो जाता। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। कैसे नहीं हुआ, इसकी भी बड़ी दिलचस्प कथा है। लेकिन आगे बढ़ने के पहले इस 'वो-उसने-उसका' कोई नाम रख लेते हैं, क्योंकि भ्रम से बचने के लिए जरूरी है कि वो मैं नहीं हूं। वैसे, सच ये भी है कि नाम और चेहरे में क्या रखा है। बस, इतना समझ लीजिए कि वो अस्सी के दशक का कोई भी ऐसा शख्स हो सकता है, जो देश से एकदम गंवई अंदाज में प्यार करता रहा हो, जिसमें जिंदगी में नया कुछ करने का जुनून रहा हो और जिसमें भर्तहरि की तरह जोगी बनने की तमन्ना रही हो। चलिए सुविधा के लिए उसका नाम रख लेते हैं - राजकिशोर । राजकिशोर का मन बल्लियों उछल रहा था। उसे लगा कि जिस मध्यवर्गीय गलाजत से निकलने के लिए वो शरीर और मन का हर मैल धो रहा था, अगर मल्लाह की वो लड़की उसकी संगिनी बन गई तो उसकी ये कोशिश कामयाब हो जाएगी। साथ ही रागात्मक संबंधों का उसका रीतापन भी मिट जाएगा। ऐसा हो गया तो वह वैज्ञानिक सोच को जड़वादियों के जबड़ों से निकालकर अपनी सामाजिक हकीकत की जमीन तक ले ही आएगा। लेकिन मजे की बात ये रही कि पार्टी के राज्य प्रमुख राजकिशोर की शादी एक वकील की बेटी से करवाना चाहते थे। वो बराबर प...

जिंदगी का यू-टर्न

Don't be silly youngman. Now you have turned 45, behave like an adult. Let the man within you unfold himself. जिंदगी में यू-टर्न लेना सचमुच मुश्किल होता है। पहले उसने दूसरों के लिए जीने का मिशन अपनाया, सलीका अपनाया। अब जबकि उसकी उम्र 45 साल की हो चुकी है, उसे समझ में आया कि अब अपने लिए जीना चाहिए। इसी मोड़ पर उसे जिंदगी के यू-टर्न का अहसास हुआ। असल में जब वो सोलह-सत्रह साल का था, तब यूनिवसिर्टी के कुछ छात्र गुरुओं ने उसे समझा दिया कि जिंदगी दूसरों के लिए जिओ, समाज के लिए जिओ, देश के लिए जिओ। अपने लिए तो कुत्ता भी जी लेता है, खाता-पीता है, बच्चे पैदा करता है। बात उसकी समझ में आ गई। उसने इस पर पूरी शिद्दत से अमल किया। चार साल यूनिवर्सिटी में बिताए। फिर आठ साल उसने गांवों में हरिजन, दुसाध, पासियों या आदिवासियों की बस्तियों और रेल मजदूरों के बीच में बिताए। इस दौरान उसे कई बार लगा कि दिमाग की सोई हुई चिप्स खुलती जा रही है। कई खूबसूरत अनुभूतियां हुई, अनोखे अनुभव हुए। लेकिन इस तरह नौजवानी के बेहतरीन बारह साल, वो साल जो खुद की जिंदगी को बनाने-संवारने में लगाने चाहिए थे, उसने दूसरों के लिए ...

मेरा सपना

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लंबे अरसे से एक निर्वासित सी जिंदगी जी रहा हूं। सपना है कि अपने जैसों के लिए रामचरित मानस जैसी कोई रचना लिख सकूं।