Friday 28 September, 2007

विचारों और गुरुत्वाकर्षण में है तो कोई रिश्ता!

सुनीता विलियम्स इस समय भारत में हैं और शायद आज हैदराबाद में 58वीं इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉटिकल कांग्रेस (आईएसी) के खत्म होने के बाद वापस लौट जाएंगी। वैसे तो उनसे मेरा मिलना संभव नहीं है। लेकिन अगर मिल पाता तो मैं उनसे एक ही सवाल पूछता कि जब आप 195 दिन अंतरिक्ष में थीं, तब शून्य गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में आपके मन के कैसे विचार आते थे, आते भी थे कि नहीं? कहीं उस दौरान आप विचारशून्य तो नहीं हो गई थीं?
असल में एक दिन यूं ही मेरे दिमाग में यह बात आ गई कि हमारे विचार गुरुत्वाकर्षण शक्ति का ही एक रूप हैं। स्कूल में पढ़े गए ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत से इस विचार को बल मिला और मुझे लगा कि जहां गुरुत्वाकर्षण बल नहीं होगा, वहां विचार और विचारवान जीव पैदा ही नहीं हो सकते।
जिस तरह चिड़िया अपने पंख न फड़फड़ाए या हेलिकॉप्टर अपने पंख न घुमाए तो वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ेगा, उसी तरह इंसान विचार न करे तो वह धरती में समा जाएगा, मिट्टी बन जाएगा। वैसे मुझे पता है कि यह अपने-आप में बेहद छिछला और खोखला विचार है क्योंकि अगर ऐसा होता तो धरती के सभी जीव विचारवान होते, जानवर, पेड़-पौधों और इंसान के मानस में कोई फर्क ही नहीं होता। फिर मुझे ये भी लगा कि हम अपने ब्रह्माण्ड के बारे में जानते ही कितना हैं?
अभी-अभी मैंने पढ़ा है कि हम अपने ब्रह्माण्ड के बारे में बमुश्किल 4 फीसदी ही जानते हैं। यह मेरे जैसे मूढ़ का नहीं, 1980 में नोबेल पुरस्कार जीतनेवाले भौतिकशास्त्री जेम्स वॉट्सन क्रोनिन का कहना है। आपको बता दूं कि क्रोनिन को यह साबित करने पर नोबेल पुरस्कार मिला था कि प्रकृति में सूक्ष्मतम स्तर पर कुछ ऐसी चीजें हैं जो मूलभूत सिमेट्री के नियम से परे होती हैं। उन्होंने अंदाज लगाया है कि कॉस्मिक उर्जा का 73 फीसदी हिस्सा डार्क एनर्जी और 23 फीसदी हिस्सा डार्क मैटर का बना हुआ है। इन दोनों को मिलाकर बना ब्रह्माण्ड का 96 फीसदी हिस्सा हमारे लिए अभी तक अज्ञात है। बाकी बचा 4 फीसदी हिस्सा सामान्य मैटर का है जिसे हम अणुओं और परमाणुओं के रूप में जानते हैं।
डार्क मैटर का सीधे-सीधे पता लगाना मुमकिन नहीं है क्योंकि इससे न तो कोई विकिरण होता है और न ही प्रकाश का परावर्तन। मगर इसके होने का एहसास किया जा सकता है क्योंकि इसका गुरुत्वाकर्षण बल दूरदराज की आकाशगंगाओं से आते प्रकाश को मोड़ देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वे डार्क मैटर के गुण और लक्षणों के बारे में तो थोड़ा-बहुत जानते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि यह किन कणों से बना है। हो सकता है कि ये अभी तक न खोजे गए ऐसे कण हों जो उस बिग बैंग से निकले हों जिससे करीब 13 अरब साल पहले ब्रह्माण्ड की रचना हुई थी।
माना जा रहा है कि यह एक सुपर-सिमेट्रिक कण न्यूट्रालिनो हो सकता है, जिसके वजूद को अभी तक साबित नहीं किया जा सका है। भौतिकशास्त्री अगले दस सालों में तीन प्रमुख सवालों का जवाब तलाशना चाहते हैं। एक, कॉस्मिक किरणें कहां से निकली हैं? दो, न्यूट्रालिनो का भार (मास) क्या है? और तीन, गुरुत्वाकर्षण तरंगें क्या हैं, उनके प्रभाव क्या होते हैं?
माना जाता है कि जिस तरह नांव पानी में चलने पर अगल-बगल लहरें पैदा करती है, उसी तरह नक्षत्र या ब्लैक-होल अपनी गति से दिक और काल के रेशों में गुरुत्वाकर्षण तरंगें पैदा करते हैं। इस तंरगों को पकड़ लिया गया तो ब्रह्माण्ड की 73 फीसदी डार्क एनर्जी को समझा जा सकता है। इसी तरह न्यूट्रालिनो को मापना बेहद-बेहद मुश्किल है क्योंकि ये तकरीबन प्रकाश की गति से चलते हैं, मगर इनमें कोई इलेक्ट्रिक चार्ज नहीं होता और ये किसी भी सामान्य पदार्थ के भीतर से ज़रा-सा भी हलचल मचाए बगैर मज़े से निकल जाते हैं। इस न्यूट्रालिनो का पता चल गया तो ब्रह्माण्ड के 23 फीसदी डार्क मैटर का भी पता चल जाएगा।
उफ्फ...इस डार्क मैटर और एनर्जी के चक्कर में गुरुत्वाकर्षण और विचारों के रिश्ते वाली मेरी नायाब सोच पर विचार करना रह ही गया। और, अब लिखूंगा तो यह अपठनीय पोस्ट और भी लंबी हो जाएगी। इसलिए अब पूर्णविराम। लेकिन आप मेरी नायाब सोच पर सोचिएगा ज़रूर।

5 comments:

Anonymous said...

पढ़ लिया अब आपकी सोच पर सोच रहे हैं.

Srijan Shilpi said...

आप भी इस गूढ़ गुत्थी में इतनी गहन दिलचस्पी रखते हैं, यह देखकर बहुत अच्छा लगा। मेरा ख्याल है कि कोई भौतिक वैज्ञानिक यदि योग विज्ञान में भी पारंगत हो तो इस गुत्थी को अपेक्षाकृत आसानी से सुलझाया जा सकता है।

Gyan Dutt Pandey said...

विचार का गुरुत्व से सीधा को-रिलेशन है या नही - यह नही पता. पर विचार ऊर्जा का एक रूप है - यह तो लगता है.
जैसे जितना बुद्धिमान प्राणी होता जाता है, उतने जटिल दिमाग के अणु होते जाते है. उतना अधिक ऊर्जा संग्रहण उनमें होता है.
पर यह विषय अभी जितना विज्ञान के पाले में है, उतना या ज्यादा पराविज्ञान के पाले में भी है. :-)

Pratyaksha said...

मतलब अगर ज़्यादा सोचें तो उड़ सकते हैं ?

अनिल रघुराज said...

एकदम सही सोचा प्रत्यक्षा जी आपने। उड़ें या न उड़ें सोचने में अपनी जेब से क्या जाता है!!!