Monday 24 September, 2007

चलो आज निकालते हैं अपना मूल्य

आज निकला हूं मैं अपना मूल्य निकालने। आध्यात्मिक अर्थों में नहीं, विशुद्ध सांसारिक अर्थों में। खुद को तो हम हमेशा मां की नज़र से ही देखते हैं। जिस तरह मां की नज़रों में काना बेटा भी पूरे गांव-जवार का सबसे खूबसूरत बेटा होता है, उसी तरह हम अपने प्रति मोहासिक्त होते हैं। घर-परिवार और दोस्तों के बीच, जब तक आप उपयोगी हैं, तब तक आप अ-मूल्य होते हैं। इनके लिए आप बस आप ही होते हैं। आपका कोई स्थानापन्न नहीं होता। आप का विनिमय नहीं हो सकता। लेकिन जब आप उपयोगी नहीं रहते तो अमूमन पलक झपकते ही दो कौड़ी के हो जाते हैं। ये अलग बात है कि प्यार के रिश्तों में फायदा नुकसान नहीं देखा जाता, वहां किसी रिटर्न की अपेक्षा नहीं होती, इसलिए वहां कीमत की बात ही नहीं आती।
असली मूल्यांकन तब शुरू होता है जब आप अपने और अपनों की परिधि से बाहर निकलते हैं। आपका असली मूल्य भी वही होता है जो दूसरे आंकते हैं। खुद की नज़र में तो हम कोहिनूर हीरे से कम नहीं होते। लेकिन आज बाज़ार में खुद को बेचने निकले ज्यादातर लोगों की शिकायत है कि लोग उनकी काबिलियत की कदर नहीं करते। वो जितना कर सकते हैं, उन्हें उसका मौका नहीं दिया जा रहा। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसका निष्पक्ष आकलन कैसे किया जाए कि कौन कितना कीमती है?
वस्तुओं का उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य अलग-अलग होता है। जैसे हवा इतनी उपयोगी है, लेकिन उसका विनिमय मूल्य शून्य होता है। हालांकि अब फाइव स्टार होटलों में शुद्ध ऑक्सीजन भी बेची जाने लगी है। मैंने सबसे पहले उपयोग और विनिमय मूल्य के इस अंतर को कार्ल मार्क्स की पूंजी के पहले खंड के पहले अध्याय में पढ़ा था। वैसे ईमानदारी से बताऊं तो एब्सट्रैक्ट एलजेबरा की गुत्थियां समझने में काबिल होने के बावजूद मुझे कुछ खास समझ में नहीं आया था। बस, हल्का-सा पता चला था कि समाज के विकासक्रम में उपयोग मूल्य एक स्तर के बाद विनिमय मूल्य में बदलने लगता है। समाज के विकास में समय की डाइमेंशन मुझे पहली बार तभी नज़र आई थी। यह बात भी मुझे चौंकानेवाली लगी थी कि आइंसटाइन का सापेक्षता सिद्धांत तो बाद में आया था, लेकिन मार्क्स ने समय की डाइमेंशन की अहमियत पहले ही समझ ली थी।
सवाल उठता है कि वस्तुओं का मूल्य तो बाज़ार तय कर देता है, लेकिन इंसान का मूल्य कैसे तय हो? गेहूं की सप्लाई घट गई तो उसकी कीमत बढ़ जाती है। प्याज की बहुतायत हो गई तो नासिक के किसान रोने लगते हैं क्योंकि उनकी प्याज को कोई दो रुपए किलो के भाव में भी नहीं पूछता। मांग और आपूर्ति से तय होती है जिंस की कीमत। फारवर्ड या वायदा बाज़ार में सट्टेबाज़ी के जरिए भावी कारकों को ध्यान में रखते हुए आगे की ‘प्राइस-डिस्कवरी’ की जाती है।
कंपनियां भी अपनी ‘प्राइस-डिस्कवरी’ शेयर बाज़ार में करती हैं। डीएलएफ जब तक स्टॉक एक्सचेंजों में लिस्टेड नहीं थी, तब तक उसके शेयर की कीमत का अंदाज़ा नहीं था। आज लिस्ट होने के बाद उसके दो रुपए के एक शेयर की कीमत बाज़ार में 700 रुपए के आसपास चल रही है। इसी तरह इनफोसिस के पांच रुपए के शेयर की कीमत इस समय 1825 रुपए के आसपास है। कंपनियों के लिए अपनी औकात पता लगाने का, प्राइस-डिस्कवरी का ज़रिया हैं स्टॉक एक्सचेंज।
लेकिन इंसान अपनी प्राइस-डिस्कवरी कैसे करे? इस पर मुझे अपने एक इलाहाबादी सहपाठी सेवकराम के गाने की लाइनें याद आ रही हैं कि, “वो बाज़ार में लाए हैं हमें आंखों पे परदा डाल के, चांदी के चंद सिक्के मिलेंगे हमको प्यारी खाल के।” तो हम बाज़ार में खड़े हैं। बाज़ार को ही हमारा मूल्य तय करना है। हम ब्लॉग पर अपनी बातें लिखकर भी तो अपना मूल्य तलाश रहे हैं! कैसे इसकी बात आगे, फिर कभी...

3 comments:

Udan Tashtari said...

आपका असली मूल्य भी वही होता है जो दूसरे आंकते हैं।
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बहुत सही बात की और सेवाराम जी की बात अक्षरशः सत्य साबित होती है हर वक्त.

बहुत विचारोत्तेजक आलेख है.

Gyan Dutt Pandey said...

मैं एक पैमाना रखता हूं - दिन भर के मेरे निर्णयों से मेरे विभाग को कितने का लाभ हुआ और वह मेरी तनख्वाह से कितना गुना ज्यादा है - वह मेरा आज का मूल्य तय करता है.
मजे की बात है जब मैं नीचे के पद पर था तो यह ज्यादा था!

Anonymous said...

अच्छा है। आपके ब्लाग की कीमत दिन पर दिन बढ़ती जा रही है।