Wednesday 22 August, 2007

रिश्ता तलवार की धार और कविता का

यकीनन मैं कविता का विरोधी नहीं हूं। मैं बहुत सारी देसी-विदेशी कविताओं का ऋणी हूं जिन्होंने मुझे ऐसी अनुभूतियों के दर्शन कराए जो अपनी पूरी ज़िंदगी मैं अपने दम पर नहीं कर सकता था। सच कहूं तो मेरे लिए कवि ज़िंदगी से लबालब भरा वो इंसान है, वो आदर्श है, जहां तक पहुंचने की मैं सोच भी नहीं सकता क्योंकि मैं अपने अंदर उस धैर्य, बेचैनी, सच्चाई और प्राकृतिक न्याय के प्रति समर्पण और उस जीवट का अभाव पाता हूं जो किसी कवि की ही थाती हो सकती है। मैं तुकांत-अतुकांत कविता लिख सकता हूं, लेकिन पाश की आग कहीं से उधार नहीं ला सकता। नागार्जुन का बालसुलभ उत्साह मैं खरीदकर नहीं ला सकता। गोरख पांडे की निष्छल आंखें मैं कहीं से ट्रांसप्लांट नहीं करा सकता।
मैं समझता हूं कि कवि कर्म के जरूरी शर्त है सच्चा होना, अपने प्रति ईमानदार होना। कवि हमेशा नई ज़मीन तलाशता है, पाताल भी तोड़कर नई अनुभूतियां निकाल ले आता है। वह स्वभाव से ही क्रांतिकारी होता है। इसीलिए कवि बनना बड़ा मुश्किल है। वाकई तलवार की धार पर उसे चलना पड़ता है। अंदर भी जूझना पड़ता है और बाहर भी।
लेकिन कोई यह सब न करे तो कवि बनना बड़ा आसान भी है। बिना जमकर पढ़े-लिखे कोई आलोचक नहीं बन सकता। गद्य लिखने के लिए भी आपको अपनी बातों को तथ्यों और तर्कों में पिरोना पड़ता है। लेकिन कविता लिखने के लिए शायद ऐसी कोई बाध्यता नहीं होती। लोग सब्जी खरीदने निकलते हैं, इंस्पिरेशन मिल जाती है, कविता लिख मारते हैं। नुक्कड़ पर पान खाते-खाते कविता पकड़ लेते हैं। अल-सल्वाडोर से लेकर युगांडा की कोई घटना भी कविता की इंस्पिरेशन बन जाती है, ठीक उसी तरह जैसे हमारे बॉलीवुड के राइटर-डायरेक्टर विदेशी फिल्मों से इंस्पायर होते रहते हैं।
मुझे परेशानी इसी तरह की सस्ती कविता से है। वैसे, पहले मेरे साथ कवियों को लेकर एक और दिक्कत थी। वो यह कि मेरे दिमाग में कवियों की स्त्रैण जैसी ही छवि रूढ़ हो गई थी। इस छवि का पहला स्केच मेरे जेहन में नई कविता पर मुक्तिबोध को पढ़ते हुए बना था। कैसे? आप भी सुन लीजिए। मुक्तिबोध साहित्यिक की डायरी के एक लेख में नई कविता करनेवाले एक व्यक्ति का वर्णन यूं करते हैं, “उसके कंधे झूलते थे। अगर एक पैर पर ज़ोर देकर खड़ा हो जाए तो वह दूसरे पैर को उससे लपेट लेता था, हांथों को मिलाकर उन्हें जांधों में दबा लेता था।...बावजूद अपने ऊंचे कद के वह ज़रा-ज़रा-सी बात पर झेंपता था। देखनेवालों को यह ख्याल हो आता था कि इस लंबे-चौड़े कदवाले और सख्त बालों के घने जंगलवाले चौड़ेपन में, कहीं तो भी, किंतु किसी केंद्रीय स्थान पर, नारी बैठी हुई है।”
बाद में इस धारणा को लेकर खुद मेरी पत्नी खफा हो गईं। उनका कहना था कि स्त्रैण कहकर आप कवि का नहीं, पूरी स्त्री जाति का अपमान कर रहे हैं। अगर किसी के अंदर कोई नारी बैठी हुई है तो इसमें गलत क्या है? खुद महात्मा गांधी कहा करते थे कि उनके अंदर एक स्त्री है तो क्या वे मज़ाक की वस्तु बन गए। बात मेरी समझ में आ गई और मैंने अपनी भूल सुधार ली। लेकिन अभी भी यदाकदा लगता है कि कवियो में निराला जैसे पहलवान कम ही होते हैं, ज्यादातर तो सुमित्रानंदन पंत सरीखे ही होते हैं, जिन्हें रामलीला में सीता का ही पार्ट मिलता है। आजकल भी नीलाभ या बोधिबाबा जैसे पहलवान कवि कम ही हैं, ज्यादातर तो आलोक धन्वा जैसे दो पसली के चिमिरिखी पहलवान हैं।
कवियों के बारे में प्रयाग शुक्ल टाइप कवियों ने भी मेरी धारणा को बिगाड़ने का काम किया है। कई साल पहले दिल्ली के रवींद्र भवन में एक काव्य गोष्ठी का आयोजन किया गया था। इसमें नामवर सिंह सरीखे नामी आलोचक भी आए थे। प्रयाग शुक्ल ने एक कविता सुनाई जो उन्होंने शायद उन्होंने नॉरवे या किसी दूसरे यूरोपीय देश में प्रवास के दौरान लिखी थी। कुछ यूं थी उनकी कविता...मैं पार्क में बैठा था। झूले पर एक बच्ची अकेली बैठी थी। उसने कहा – झूला झुला दो, मैंने झुला दिया। कविता यहीं खत्म हो गई। फिर तमाम आलोचकों ने किराये के पंडितों के अंदाज़ में ‘कालिदास’ के अनकहे इशारों की जमकर व्याख्या की। और, मैं अपना सिर धुनता रह गया कि अगर यही कविता है तो रोज़ सोते-जागते थोक के भाव कविताएं लिखी जा सकती हैं।

4 comments:

Sanjeet Tripathi said...

धांसू लिखे जा रहे हो भैय्या इस मुद्दे पर तो!!

परमजीत सिहँ बाली said...

बहुत बढिया लिखा है ।

बोधिसत्व said...

आप से सहमत हूँ और असहमत भी। कोशिश करता हूँ कि कुछ लिखूँ ।

बसंत आर्य said...

कवि कर्म के जरूरी शर्त है सच्चा होना, अपने प्रति ईमानदार हो ये सच है पर दो पसली के चिमिरिखी पहलवान से आपका क्या मतलब. कवि दिमाग और दिल से मजबूत होना चाहिए. बदन से नही.ऐसा न हो कि आपके बोधिबाबा पहलवानी भी करने लगें