उर्दू में लिखा हुआ पढ़ते हैं मनमोहन
प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने आज आज़ादी की 60वीं सालगिरह पर लाल किले की प्राचीर से बहुत सारी अच्छी-अच्छी बातें कीं। कुछ पुरानी घोषणाएं दोहराईं, कुछ नई घोषणाएं कीं। जैसे अनाज उत्पादन बढ़ाने के लिए खेती में 25,000 करोड़ रुपए लगाए जाएंगे। पांच नए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस एजुकेशन एंड रिसर्च, आठ नए आईआईटी, सात नए आईआईएम, 20 नए इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ इनफॉर्मेशन टेक्नोलॉजी और 1600 नए आईटीआई खोले जाएंगे। सरकार सुनिश्चित करेगी कि हर साल एक करोड़ छात्रों को वोकेशनल ट्रेनिंग दी जाए। लेकिन जब सुबह मैं उन्हे भाषण देते देख रहा था तो मेरी नज़र के कैमरे ने वह सीन कैद कर लिया, जब वे अपने लिखित भाषण के पन्ने बाएं से दाएं नहीं, बल्कि दाएं से बाएं की तरफ पलट रहे थे और उनका भाषण हिंदी या अंग्रेजी में नहीं, बल्कि उर्दू में लिखा हुआ था।
मेरा ध्यान मनमोहन सिंह की बातों से हट गया। मेरे जेहन में बचपन की बातें तैरनी लगीं। कैसे मेरे बाबूजी ने अलिफ-बे जैसे कई अक्षर सिखाने की कोशिश की थी। उनकी शुरुआती पढ़ाई उर्दू में ही हुई थी। मेरी बुआ ने भी मिडिल तक उर्दू में ही पढ़ा था। ये भी याद आया कि हमारे अवध के इलाके में आजी सलाम, बुआ सलाम, बड़की माई सलाम बोला जाता रहा है। यूनिवर्सिटी के दिनों में मेरे पहले राजनीतिक गुरु ने भी मुझे लंबा चौड़ा प्रवचन दिया था कि कैसे मूल भाषा हिंदवी या हिंदुस्तानी ही है। उन्होंने मुझे अमीर खुसरो का लागा चुनरी में दाग गाना गाकर सुनाया था।
इसके बाद उन्होंने मुझे रामविलास शर्मा से लेकर महात्मा गांधी तक के लेख पढ़ने को दिए। धीरे-धीरे मेरे मन में ये बात बैठ गई कि असल में हिंदी-उर्दू का विवाद बंटवारे की राजनीति की देन है और आम जिंदगी में फर्क है तो बस लिपियों का, लिखने के तरीकों का। हिंदी और उर्दू एक ही भाषा को इस्तेमाल करने के दो अलग-अलग तरीके हैं। उर्दू फारसी-अरबी लिपि में लिखी जाती है जिसे नस्तालिक़ कहते हैं, जबकि हिंदी देवनागरी में लिखी जाती है। कुछ जानकार लोगों ने मुझे बताया कि हिंदी-उर्दू का फर्क वैसा ही है, जैसे ब्रिटेन और अमेरिका की अंग्रेज़ी में होता है।
महात्मा गांधी ने तो यहां तक कहा था कि अगर हिंदी-उर्दू के फर्क को मिटाकर इसे एक भाषा मान लिया जाए तो आज़ाद होने पर भारत में अंग्रेजी का साम्राज्य खत्म किया जा सकता है। लेकिन विभाजन और नफरत की राजनीति ने भाषा का भी इस्तेमाल कर डाला। मगर इस हकीकत को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता कि उर्दू हिंदुस्तान से पैदा हुई भाषा है। भारतीय उपमहाद्वीप में कम से कम 20 करोड़ लोग इसे रोजमर्रा की ज़िंदगी में इस्तेमाल करते हैं।
अच्छी बात ये है कि हमारे प्रधानमंत्री उस अवाम का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके जेहन में अब भी उर्दू और हिंदी में कोई फर्क नहीं है। अंत में मैं हिंदुस्तानी भाषा और अवाम की बेहतरी की उम्मीद के साथ अल्लामा इक़बाल का ये मशहूर शेर दोहराना चाहता हूं कि...
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
मेरा ध्यान मनमोहन सिंह की बातों से हट गया। मेरे जेहन में बचपन की बातें तैरनी लगीं। कैसे मेरे बाबूजी ने अलिफ-बे जैसे कई अक्षर सिखाने की कोशिश की थी। उनकी शुरुआती पढ़ाई उर्दू में ही हुई थी। मेरी बुआ ने भी मिडिल तक उर्दू में ही पढ़ा था। ये भी याद आया कि हमारे अवध के इलाके में आजी सलाम, बुआ सलाम, बड़की माई सलाम बोला जाता रहा है। यूनिवर्सिटी के दिनों में मेरे पहले राजनीतिक गुरु ने भी मुझे लंबा चौड़ा प्रवचन दिया था कि कैसे मूल भाषा हिंदवी या हिंदुस्तानी ही है। उन्होंने मुझे अमीर खुसरो का लागा चुनरी में दाग गाना गाकर सुनाया था।
इसके बाद उन्होंने मुझे रामविलास शर्मा से लेकर महात्मा गांधी तक के लेख पढ़ने को दिए। धीरे-धीरे मेरे मन में ये बात बैठ गई कि असल में हिंदी-उर्दू का विवाद बंटवारे की राजनीति की देन है और आम जिंदगी में फर्क है तो बस लिपियों का, लिखने के तरीकों का। हिंदी और उर्दू एक ही भाषा को इस्तेमाल करने के दो अलग-अलग तरीके हैं। उर्दू फारसी-अरबी लिपि में लिखी जाती है जिसे नस्तालिक़ कहते हैं, जबकि हिंदी देवनागरी में लिखी जाती है। कुछ जानकार लोगों ने मुझे बताया कि हिंदी-उर्दू का फर्क वैसा ही है, जैसे ब्रिटेन और अमेरिका की अंग्रेज़ी में होता है।
महात्मा गांधी ने तो यहां तक कहा था कि अगर हिंदी-उर्दू के फर्क को मिटाकर इसे एक भाषा मान लिया जाए तो आज़ाद होने पर भारत में अंग्रेजी का साम्राज्य खत्म किया जा सकता है। लेकिन विभाजन और नफरत की राजनीति ने भाषा का भी इस्तेमाल कर डाला। मगर इस हकीकत को कोई नजरअंदाज नहीं कर सकता कि उर्दू हिंदुस्तान से पैदा हुई भाषा है। भारतीय उपमहाद्वीप में कम से कम 20 करोड़ लोग इसे रोजमर्रा की ज़िंदगी में इस्तेमाल करते हैं।
अच्छी बात ये है कि हमारे प्रधानमंत्री उस अवाम का प्रतिनिधित्व करते हैं जिसके जेहन में अब भी उर्दू और हिंदी में कोई फर्क नहीं है। अंत में मैं हिंदुस्तानी भाषा और अवाम की बेहतरी की उम्मीद के साथ अल्लामा इक़बाल का ये मशहूर शेर दोहराना चाहता हूं कि...
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी
सदियों रहा है दुश्मन दौरे ज़मां हमारा।।
Comments
जश्ने आज़ादी की साठवीं सालगिरह पर आपने हिन्दी उर्दू के एका की बात कर सवाब लूट लिया.क्या आप यक़ीन करेंगे कि मेरे मामू जो जोधपुर के नामी सर्जन हैं देवनागिरी वाली हिन्दी पढ़्ना ही नहीं जानते...पेशे से डाँक्टर हैं सो मशवरा अंग्रेज़ी में लिख लेते हैं और दीगर ख़तोकिताबत भी अंग्रेज़ी में ही करते हैं.आपने ठीक फ़रमाया कि हिन्दी-उर्दू के बँटवारे के नाम पर सियासत ज़्यादा होती है..क्या आप मुझसे इस बात पर इत्तेफ़ाक़ रखेंगे कि जितना हम हिन्दी वाले उर्दू को चाहते हैं या उसके बारे में बतियाते हैं उर्दू में ठीक उसका विपरीत हो रहा है सो हिन्दी की चिन्दी करने वालों को राजनीति करने का मौक़ा मिल ही जात है...कुछ हम कर रहे हैं...थोड़ा सा कुछ वो करें...तो हिन्दवी का और अमीर खु़सरो का ख़्वाब साकार हो सकता है.गंगा जमनी तहज़ीब के हवाले से यहाँ ये लिखना बहुत प्रासंगिक होगा कि इन्दौर घराने के तान संम्राट उस्ताद अमीर ख़ाँ साहब वैष्णव परम्परा के श्री गोवर्धननाथ मंदिर में सांरगी वादक के रूप में मुलाज़िम थे.और इसी मंदिर की पीठ पर विराजित आचार्य गोस्वामी गोकुलोत्सवजी महाराज ख़ाँ साहब की गायकी की ध्वनि मुद्रिकाएं सुन सुन कर ही अमीरख़ानी गायकी की नुमाइंदगी कर रहे हैं.तहज़ीब,भाषा और संगीत के स्तर पर ही धर्म-निरपेक्ष हिन्दुस्तान की कल्पना की जा सकती है.
सहमत हूँ, अगर लिपियाँ अलग न होती तो कोई भी इन दोनों भाषाओं को अलग न बताता।