मन्नू की नहीं सुनी तो किसकी सुनेंगे?

प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह आज रात 9 बजकर 40 मिनट पर मुंबई पहुंच रहे हैं और कल वो मुख्यमंत्री विलासराव देशमुख और उनकी सरकार के वरिष्ठ अधिकारियों के साथ बैठक करेंगे जिसमें राज्य के चार कृषि विश्वविद्यालयों के वाइस चांसलर भी शिरकत करेंगे। बैठक में महाराष्ट्र में खेती-किसानी की हालत की समीक्षा की जाएगी, विचार किया जाएगा कि ऐसे क्या उपाय हो सकते हैं जिनसे 10 % सालाना औद्योगिक विकास दर वाले राज्य में कृषि की विकास दर को 1 % से उठाकर 4 % के राष्ट्रीय लक्ष्य तक पहुंचाया जा सके। लेकिन खास मुद्दा होगा कि प्रधानमंत्री ने साल भर पहले किसानों की आत्महत्या से जूझ रहे विदर्भ के लिए 3,750 करोड़ रुपए का जो पैकेज घोषित किया था, उसका अभी तक क्या हश्र हुआ है।
आइये देखते हैं इस बाबत भारत के नियंत्रक-महालेखापरीक्षक (सीएजी) की रिपोर्ट क्या कहती है। असल में सीएजी ने विदर्भ के 11 तालुकों का रैंडम सर्वे करने के बाद जो हकीकत पता लगाई है, वह हमारी अफसरशाही को झापड़ मारने का पर्याप्त आधार देती है। तय हुआ था कि विदर्भ के छह जिलों के 60,000 ऐसे चुनिंदा किसानों को कृषि लागत सामग्रियां और उपकरण मुहैया कराए जाएंगे, जिनके पास छह हेक्टेयर से कम ज़मीन है और जिनकी सालाना आमदनी 20,000 रुपए से कम है। सीएजी की रिपोर्ट के मुताबिक सर्वे में शामिल 18 तालुकों मे से आठ तालुकों में 1.33 करोड़ रुपए की लागत सामग्रियां और उपकरण वितरित नहीं किए गए हैं। अफसरों का कहना है चूंकि किसानों ने अपने हिस्से का पैसा नहीं दिया, इसलिए वो कुछ नहीं कर सके। लेकिन सीएजी का सवाल है कि 54 लाख की जो लागत सामग्रियां और उपकरण मुफ्त दिए जाने थे, उनका वितरण क्यों नहीं हुआ?
सीएजी की ऑडिट टीम के मुताबिक 29,000 किसानों ने लागत सामग्रियों में सब्सिडी के लिए आवेदन किया था, लेकिन इनमें से केवल 16,577 यानी 43 % किसानों को स्कीम का लाभ मिल पाया।
विदर्भ में किसानों की सबसे बड़ी समस्या बीज की थी। लेकिन पिछले साल कुल 84,119 टन की मांग के विपरीत 31,111 टन बीज ही किसानों को मिले। यानी बीज की 63 % मांग पूरी नहीं की गई। प्रधानमंत्री के पैकेज में 180 करोड़ रुपए तीन सालों के दौरान केवल बीज के वितरण के लिए रखे गए हैं। एक तरफ हालत ये है कि किसान बाज़ार और निजी कंपनियों से बीज खरीदने को मजबूर हैं, दूसरी तरफ अफसर अगले दो सालों के लिए भी बीज की सही मांग का आकलन नहीं कर पाए हैं। अफसरों की ढिलाई का फायदा राज्य सरकार को मिल रहा है, शायद इसीलिए उसको प्रधानमंत्री के पैकेज के लागू न होने से ज्यादा परेशानी नहीं हो रही है। मसलन, पशु आहार और चारे के वितरण के लिए नियत पांच करोड़ की रकम किसानों को देने के बजाय दो राष्ट्रीयकृत बैंकों में पड़ी रही, जिस पर राज्य सरकार को 14.52 लाख रुपए का ब्याज मिला है।
विलासराव देशमुख की सरकार सीएजी की इस रिपोर्ट का जवाब देने के बजाय प्रधानमंत्री के सामने उनके पैकेज पर अमल की सुनहरी तस्वीर पेश करने की तैयारी में है। उसका दावा है कि 3,750 करोड़ रुपए में से 1795.80 करोड़ रुपए विदर्भ के छह जिलों में बांटे जा चुके हैं। किसानों को कर्ज की सहूलियत बढ़ाई जा चुकी है, जिसके चलते किसानों की खुदकुशी पिछले डेढ़ साल में घटकर आधी रह गई है।
मुख्यमंत्री और अफसरों के रवैये की पड़ताल जरूरी है। लेकिन मेरे दिमाग में एक बुनियादी सवाल अब भी नाच रहा है जिसे करीब साल भर पहले राज्यसभा के सदस्य और शेतकारी संगठना के नेता शरद जोशी ने उठाया था। उन्होंने इंडियन एक्सप्रेस में लिखे अपने लेख में बताया था कि पिछले तीन-चार दशकों में सरकार ने एक तो दूसरे राज्यों के कपास किसानों को मोनोपोली प्रोक्योरमेंट स्कीम के तहत अंतरराष्ट्रीय बाज़ार से 110 % कम दाम दिया, ऊपर से विदर्भ के किसानों को इसका भी आधा दाम दिया गया। इस तरह विदर्भ के किसानों को 30,000 करोड़ रुपए का नुकसान हुआ है। आप ही बताइये, क्या विदर्भ के किसानों से उनके हक के 30,000 करोड़ रुपए छीनकर 3,750 करोड़ रुपए का पैकेज देना उनके जले पर नमक छिड़कना नहीं है?

Comments

अनिल जी, राजनेता और अधिकारी सिर्फ अपने लिये और ऐसे लोगों के लिये काम करते हैं जहां से उन्हे लाभ हो। उन्हें न तो किसान से मतलब है और न हीं किसानों की आत्महत्या से।प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से काफी उम्मीदे थी लेकिन लगता है उन्हें भी किसानों के साथ मजाक करना आ गया है। ऐस मालूम पड़ता है कि अमेरिका ने उन्हे पढा लिखा दिया है कि सत्ता में बने रहने के लिये सिर्फ किसान -मज़दूर की कल्याण के लिये रट लगाओ और काम मत करो। देखना है कि मनमोहन जी कल क्या घोषणा करते हैं।

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