सांप-सीढ़ी का खेल है वन टू का फोर
हिंदी टेलिविजन न्यूज चैनलों में नंबर-वन रहना अब किसी की इज़ारेदारी नहीं रह गई है। कई हफ्तों तक स्टार न्यूज नंबर-वन पर रहा तो अब दोबारा आजकल पहले नंबर पर काबिज़ हो गया है। चौंकानेवाली बात ये है कि कई हफ्तों से तीसरे नंबर पर रहा इंडिया टीवी अब स्टार न्यूज़ को एक अंक से पीछे छोड़कर दूसरे नंबर पर आ गया है। लेकिन क्या आपको पता है कि इंडिया टीवी रात 12 बजे सेक्स की जो लाइव सलाह परोसता है, उसे कल की अनिश्चितता को सुलझानेवाला स्टार न्यूज़ का ज्योतिष का कार्यक्रम, तीन देवियां हमेशा पीटता रहता है। स्टार न्यूज़ का ही सास, बहू और साज़िश टीआरपी में अक्सर टॉप टेन कार्यक्रमों में शामिल रहता है। कहने का मतलब है कि सिर्फ सेक्स, सनसनी और क्राइम ही नहीं बिकता, दर्शकों की ज़रूरत को पूरा करनेवाला कोई भी शो अच्छी तरह पेश किया जाए तो उसे टीआरपी मिलती है।
लेकिन अच्छा शो कैसे पेश किया जाए? इसके लिए ज़रूरी होता है जो इसे प्रोड्यूस कर रहे हैं उन्हें काम करने की सृजनात्मक आज़ादी दी जाए। असुरक्षा के भाव या दंभ से घिरा कोई संपादक इसकी अनुमति नहीं दे सकता। लेकिन जो नेतृत्व लगातार अपने ऑरबिट की सीमाएं तोड़कर नए ऑरबिट में प्रवेश करता रहता है, उसे ऐसा करने में कोई हिचक नहीं होती। हिंदी न्यूज़ चैनलों में उदय शंकर ने नेतृत्व की ये क्षमता साबित कर दी है। जब आजतक को 24 घंटे का चैनल बनाया जा रहा था तो बड़े-बड़े दिग्गज कह रहे थे कि डेडलाइन पर चैनल को लांच करना संभव नहीं है। उस वक्त उदय शंकर ने ड्राइव लेकर डेडलाइन मीट करने की पहल की। और, ठीक नियत समय पर चैनल ऑन-एयर हो गया।
ये किसी की प्रशस्ति या चमचागीरी नहीं है क्योंकि न तो मैं उदय शंकर को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और न ही उनसे मुझे कुछ पाने की गरज है। इस शख्स में अगर नेतृत्व की काबिलियत न होती तो मैंनेजमेंट का कोई कोर्स किये बिना महज पत्रकारिता और तथाकथित दादागिरी के दम पर उसे आज स्टार न्यूज़ के सीईओ से उठाकर सीधे स्टार इंडिया का सीओओ नहीं बना दिया जाता। आखिर वॉलस्ट्रीट जनरल को टेकओवर करने वाला मीडिया सम्राट रूपर्ट मरडोक इतना भोला नहीं हो सकता।
काम को बेहतर बनाने के लिए जिम्मेदारियों का विक्रेंद्रीकरण भी जरूरी है। इस समय कुछ चैनल्स ने अपने स्टाफ में वर्टिकल्स की व्यवस्था शुरू की है। काम की एक हायरार्की उन्होंने बनाई है तो प्रोडक्ट भी क्वालिटी वाला होता है। रही बात नाग-नागिन के प्रेम और औघड़, भूत-पिशाच दिखाने की बात तो इसे चैनल मालिकों को सेल्फ रेगुलेशन के ज़रिए रोकना चाहिए। मीडिया में इस या उस बहाने सरकारी दखल की इजाज़त नहीं दी जा सकती। लेकिन इसमें मुश्किल ये है कि हर चैनल का अपना छिपा हुआ राजनीतिक एजेंडा होता है। जो सोफिस्टीकेटेड हैं वो अपनी निरपेक्षता का भ्रम बनाए रखने में कामयाब होते हैं, और जो ऐसा नहीं कर पाते तो घंटे भर नरेंद्र मोदी का लाइव भाषण ही दिखाते रहते हैं। ऐसे लोग अगर अंधविश्वास नहीं दिखाएंगे तो उनका राजनीतिक एजेंडा कैसे पूरा हो पाएगा?
आखिरी बात, जिस तरह किसी पहिये का आकार उसकी दर्जनों अरों (स्पोक्स) पर टिका होता है, उसी तरह हर इंसान विभिन्न अरों पर टिका होता है, जो उसके स्वास्थ्य से लेकर आध्यामिक, पारिवारिक और सामाजिक स्थितियों को अभिव्यक्त करते हैं। अगर किसी संपादक को अपने सहयोगी पत्रकारों से सर्वश्रेष्ठ योगदान चाहिए तो उसे उनकी सभी अरों का ध्यान रखना होगा। इसके लिए अखबारों या चैनलों के संपादकीय विभाग में ही एक सीनियर पदाधिकारी को एचआर की भी ज़िम्मेदारी निभानी होगी। पत्रकारिता में ऐसा नहीं चल सकता कि एचआर विभाग किसी दूसरे फ्लोर पर बैठकर महज़ सैलरी स्लिप और मेडिकल इंश्योरेंस के कार्ड बांटने जैसे यांत्रिक काम करता रहे।...समाप्त
लेकिन अच्छा शो कैसे पेश किया जाए? इसके लिए ज़रूरी होता है जो इसे प्रोड्यूस कर रहे हैं उन्हें काम करने की सृजनात्मक आज़ादी दी जाए। असुरक्षा के भाव या दंभ से घिरा कोई संपादक इसकी अनुमति नहीं दे सकता। लेकिन जो नेतृत्व लगातार अपने ऑरबिट की सीमाएं तोड़कर नए ऑरबिट में प्रवेश करता रहता है, उसे ऐसा करने में कोई हिचक नहीं होती। हिंदी न्यूज़ चैनलों में उदय शंकर ने नेतृत्व की ये क्षमता साबित कर दी है। जब आजतक को 24 घंटे का चैनल बनाया जा रहा था तो बड़े-बड़े दिग्गज कह रहे थे कि डेडलाइन पर चैनल को लांच करना संभव नहीं है। उस वक्त उदय शंकर ने ड्राइव लेकर डेडलाइन मीट करने की पहल की। और, ठीक नियत समय पर चैनल ऑन-एयर हो गया।
ये किसी की प्रशस्ति या चमचागीरी नहीं है क्योंकि न तो मैं उदय शंकर को व्यक्तिगत रूप से जानता हूं और न ही उनसे मुझे कुछ पाने की गरज है। इस शख्स में अगर नेतृत्व की काबिलियत न होती तो मैंनेजमेंट का कोई कोर्स किये बिना महज पत्रकारिता और तथाकथित दादागिरी के दम पर उसे आज स्टार न्यूज़ के सीईओ से उठाकर सीधे स्टार इंडिया का सीओओ नहीं बना दिया जाता। आखिर वॉलस्ट्रीट जनरल को टेकओवर करने वाला मीडिया सम्राट रूपर्ट मरडोक इतना भोला नहीं हो सकता।
काम को बेहतर बनाने के लिए जिम्मेदारियों का विक्रेंद्रीकरण भी जरूरी है। इस समय कुछ चैनल्स ने अपने स्टाफ में वर्टिकल्स की व्यवस्था शुरू की है। काम की एक हायरार्की उन्होंने बनाई है तो प्रोडक्ट भी क्वालिटी वाला होता है। रही बात नाग-नागिन के प्रेम और औघड़, भूत-पिशाच दिखाने की बात तो इसे चैनल मालिकों को सेल्फ रेगुलेशन के ज़रिए रोकना चाहिए। मीडिया में इस या उस बहाने सरकारी दखल की इजाज़त नहीं दी जा सकती। लेकिन इसमें मुश्किल ये है कि हर चैनल का अपना छिपा हुआ राजनीतिक एजेंडा होता है। जो सोफिस्टीकेटेड हैं वो अपनी निरपेक्षता का भ्रम बनाए रखने में कामयाब होते हैं, और जो ऐसा नहीं कर पाते तो घंटे भर नरेंद्र मोदी का लाइव भाषण ही दिखाते रहते हैं। ऐसे लोग अगर अंधविश्वास नहीं दिखाएंगे तो उनका राजनीतिक एजेंडा कैसे पूरा हो पाएगा?
आखिरी बात, जिस तरह किसी पहिये का आकार उसकी दर्जनों अरों (स्पोक्स) पर टिका होता है, उसी तरह हर इंसान विभिन्न अरों पर टिका होता है, जो उसके स्वास्थ्य से लेकर आध्यामिक, पारिवारिक और सामाजिक स्थितियों को अभिव्यक्त करते हैं। अगर किसी संपादक को अपने सहयोगी पत्रकारों से सर्वश्रेष्ठ योगदान चाहिए तो उसे उनकी सभी अरों का ध्यान रखना होगा। इसके लिए अखबारों या चैनलों के संपादकीय विभाग में ही एक सीनियर पदाधिकारी को एचआर की भी ज़िम्मेदारी निभानी होगी। पत्रकारिता में ऐसा नहीं चल सकता कि एचआर विभाग किसी दूसरे फ्लोर पर बैठकर महज़ सैलरी स्लिप और मेडिकल इंश्योरेंस के कार्ड बांटने जैसे यांत्रिक काम करता रहे।...समाप्त
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