टीम इंडिया किसकी? इसकी या उसकी?
अब आएगा मज़ा। मामला हाईकोर्ट पहुंच गया है। फैसला होना है कि बीसीसीआई से जुड़ी क्रिकेट टीम को ही टीम इंडिया क्यों माना जाए, नई बनी इंडियन क्रिकेट लीग (आईसीएल) को क्यों नहीं। इस पर अदालत में कल यानी सोमवार को विचार होना है। आईसीएल ने दिल्ली हाईकोर्ट में दायर अपनी याचिका में दूसरी बातों के अलावा ये भी गुजारिश की है कि बीसीसीआई को देश के झंडे और नाम का इस्तेमाल करने से रोका जाए क्योंकि बोर्ड खुद सुप्रीम कोर्ट के सामने मान चुका है कि वह एक प्राइवेट बॉडी है। और सच भी यही है कि बीसीसीआई चेन्नई में रजिस्टर्ड एक प्राइवेट क्लब है जो ब्रिटेन की एक लिमिटेड कंपनी आईसीसी से संबद्ध है।
भारतीय क्रिकेट पर बीसीआईआई के एकाधिकार और राष्ट्रीय भावना को भुनाने की उसकी कोशिशों पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। खुद मैंने सवाल उठाया है। लेकिन पहले मुझे अपना सवाल हवा में छोड़े गए तीर जैसा लगता था। लेकिन जब ज़ी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा को राष्ट्रवादी भावना के इस उफान की कीमत समझ में आई तो उन्होंने भी एक नई संस्था बना डाली, इंडियन क्रिकेट लीग, जिसका मुखिया बनाया भारत को विश्व कप दिलानेवाले कप्तान कपिलदेव को। यही नहीं, धीरे-धीरे वो इस लीग से 51 नामी-गिरामी खिलाड़ियों को जोड़ने में कामयाब रहे हैं, जिनमें ब्रायन लारा और इंजमाम उल हक जैसे स्टार शामिल हैं।
बीसीसीआई के अधिकारी भले ही कोर्ट में मामला जाने के बाद कह रहे हों कि यह कोई बिग डील नहीं है, बीसीसीआई का बड़ा नाम है तो उसके खिलाफ हर कोई याचिका करता ही रहता है। लेकिन सच यही है कि आईसीएल के आने की आहट से ही उसके पसीने छूट रहे हैं। आईसीएल की तरफ जानेवाले खिलाड़ियों पर आखें तरेर रहा है तो अपने साथ जुड़े खिलाड़ियों की फीस बढ़ा रहा है। मजे की बात ये है कि वह खुद को नॉन-प्रॉफिट संस्था बताता है। लेकिन जब कोई प्रॉफिट ही नहीं है तो उसने अपने पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया पर करोड़ों के गमन का आरोप कैसे लगा दिया और वो खिलाड़ियों को लाखों रुपए कहां से देता है। अब आईसीएल इसी मलाई में हिस्सा बांटने के लिए आ गया तो बीसीसीआई को जबरदस्त किरकिरी हो रही है। लेकिन खिसियानी बिल्ली की कोई खीझ काम नहीं आ रही।
हां, ये ज़रूर है कि बीसीसीआई के एकाधिकार के खत्म होने से उन करोड़ों भारतीयों का वो भ्रम टूट जाएगा, टीम इंडिया के नाम का वो सहारा छूट जाएगा जिसके जरिए वो जीतने की उमंग में हिलोरे लेने लगते थे। आखिर भारत और भारतीयता की जीत के कितने प्रतीक ही हैं हमारे पास? लेकिन झूठी तसल्लियों और झूठे प्रतीकों में फंसे रहने से अच्छा है कि हम खुलकर सच का मुकाबला करें। सचमुच बाज़ार इतनी बुरी चीज़ नहीं है, जितना हम समझते हैं। यह बाज़ार में मची होड़ ही है जो सालों-साल से भारतीय राष्ट्रवाद की भावना को मजे से भुनाने वाले प्राइवेट क्लब के मंसूबों पर पानी फेरने जा रही है।
भारतीय क्रिकेट पर बीसीआईआई के एकाधिकार और राष्ट्रीय भावना को भुनाने की उसकी कोशिशों पर पहले भी सवाल उठते रहे हैं। खुद मैंने सवाल उठाया है। लेकिन पहले मुझे अपना सवाल हवा में छोड़े गए तीर जैसा लगता था। लेकिन जब ज़ी समूह के मालिक सुभाष चंद्रा को राष्ट्रवादी भावना के इस उफान की कीमत समझ में आई तो उन्होंने भी एक नई संस्था बना डाली, इंडियन क्रिकेट लीग, जिसका मुखिया बनाया भारत को विश्व कप दिलानेवाले कप्तान कपिलदेव को। यही नहीं, धीरे-धीरे वो इस लीग से 51 नामी-गिरामी खिलाड़ियों को जोड़ने में कामयाब रहे हैं, जिनमें ब्रायन लारा और इंजमाम उल हक जैसे स्टार शामिल हैं।
बीसीसीआई के अधिकारी भले ही कोर्ट में मामला जाने के बाद कह रहे हों कि यह कोई बिग डील नहीं है, बीसीसीआई का बड़ा नाम है तो उसके खिलाफ हर कोई याचिका करता ही रहता है। लेकिन सच यही है कि आईसीएल के आने की आहट से ही उसके पसीने छूट रहे हैं। आईसीएल की तरफ जानेवाले खिलाड़ियों पर आखें तरेर रहा है तो अपने साथ जुड़े खिलाड़ियों की फीस बढ़ा रहा है। मजे की बात ये है कि वह खुद को नॉन-प्रॉफिट संस्था बताता है। लेकिन जब कोई प्रॉफिट ही नहीं है तो उसने अपने पूर्व अध्यक्ष जगमोहन डालमिया पर करोड़ों के गमन का आरोप कैसे लगा दिया और वो खिलाड़ियों को लाखों रुपए कहां से देता है। अब आईसीएल इसी मलाई में हिस्सा बांटने के लिए आ गया तो बीसीसीआई को जबरदस्त किरकिरी हो रही है। लेकिन खिसियानी बिल्ली की कोई खीझ काम नहीं आ रही।
हां, ये ज़रूर है कि बीसीसीआई के एकाधिकार के खत्म होने से उन करोड़ों भारतीयों का वो भ्रम टूट जाएगा, टीम इंडिया के नाम का वो सहारा छूट जाएगा जिसके जरिए वो जीतने की उमंग में हिलोरे लेने लगते थे। आखिर भारत और भारतीयता की जीत के कितने प्रतीक ही हैं हमारे पास? लेकिन झूठी तसल्लियों और झूठे प्रतीकों में फंसे रहने से अच्छा है कि हम खुलकर सच का मुकाबला करें। सचमुच बाज़ार इतनी बुरी चीज़ नहीं है, जितना हम समझते हैं। यह बाज़ार में मची होड़ ही है जो सालों-साल से भारतीय राष्ट्रवाद की भावना को मजे से भुनाने वाले प्राइवेट क्लब के मंसूबों पर पानी फेरने जा रही है।
Comments
अनिल जी, यह कहाँ लिखा है कि non-profit संस्थाओं के पास पैसा नहीं होता और वे भूखे-नंगे होते हैं? non-profit संस्थाएँ वे होती हैं जो अपने किसी आर्थिक लाभ के लिए धंधा नहीं करती। अक्सर ऐसी संस्थाएँ no profit no loss पर धंधा करती हैं, यानि कि जितना वो कमाती हैं उसमें से कुछ अपने लिए रखने के स्थान पर सारी कमाई लागत में लगाती हैं। यहाँ अगर BCCI का उदाहरण ले रहे हैं तो इस तरह से देख सकते हैं कि खेलों से होने वाली कमाई को वे खिलाड़ियों(जिनसे कमाई हो रही है) की फीस, मातहतों के वेतन और अन्य खर्चों में लगाती हैं।
अब अपनी समझ तो यही कहती है कि non-profit संस्थाएँ ऐसी होती हैं और जहाँ तक मेरा अनुमान है यह सही है पर मैं कोई दावा नहीं करता कि जो मैंने कहा वह शत् प्रतिशत सत्य है।
जो ज्यादा रुपल्ली टिकाएगा उसकी। अधिक जानकारी के लिए हमरी पोस्ट का भी नज़ारा लिया जाए।
VIMAL VERMA