सुख की संजीवनी है सत्ता-संपन्नता
सुख क्या है, सुखी कौन है? यह एक शाश्वत सवाल है। लेकिन कल जब विमल ने काहे की मुक्ति में अपनी चाहत का इजहार किया कि मेरे पास सारी ऐशोआराम की चीज़ें हों, सिर पर कोई ज़िम्मेदारी न हो, बात करने के लिए ढेर सारे दोस्त हों तो मुझे लगा कि इस शाश्वत सवाल का जवाब देश, काल और परिस्थिति सापेक्ष है। मेरे बाबा परम संतोषी जीव थे। कहा करते थे : गोधन, गजधन, बाजिधन और रतनधन खान, जब आवै संतोष धन, सब धन धूरि समान। लेकिन ये किसान अर्थव्यवस्था और परिवेश का सुख था। आज के महानगरीय जीवन में ढेर सारे दोस्तों का होना मर्सिडीज होने से कम बड़ी बात नहीं है।
लेकिन हमारे समय और देश के मौजूदा हालात में मुझे लगता है कि इम्पावरमेंट, सत्ता संपन्नता सुख की बुनियादी शर्त है। ज़रा याद कीजिए कि प्रधानमंत्री रहने के दौरान अटल बिहारी बाजपेयी का चेहरा कैसा चमकता था, चलने में दिक्कत थी, लेकिन उतनी नहीं। नरसिंह राव से लेकर कब्र में पैर लटकाए मोरारजी देसाई कैसे प्रधानमंत्री बनते ही हरे-भरे हो गए थे! बुढ़ापे में भी नारायण दत्त तिवारी के चेहरे से कैसा नूर टपकता है। मायावती के भी चेहरे की रौनक सत्ता में वापसी के बाद दिन-ब-दिन निखरती जा रही है। चंद्रशेखर मरे तो कैंसर से। लेकिन सत्ता में न रहते हुए भी वो हमेशा सत्ता में रहते थे। यही वजह है कि उनका शरीर और चेहरा हमेशा दमकता रहा। दूसरी तरफ उनकी धर्मपत्नी कभी उनके बगल में दिख जाती थीं तो लगता था कि उनकी मां बैठी हुई हैं। जो बात नेताओं पर लागू होती है, वह हम और आप जैसे तमाम आम लोगों के लिए भी सही है।
मैंने अपने अनुभव से जाना है कि सुखी होने के लिए आपका स्वस्थ रहना जरूरी है। लेकिन सत्ता आते ही आपका स्वास्थ्य खुद-ब-खुद सुधार के रास्ते पर चल निकलता है। जब तक आप दीन-हीन और दबे-कुचले रहते हैं, तब तक आपका स्वास्थ्य बिगड़ता ही चला जाता है। लेकिन घर या दफ्तर में सत्ता मिलते ही कैसे आपकी चहक कूद-कूदकर बाहर निकलती है। आप किसी को सत्ता दे दो, वह अपने सुख का रास्ता खुद ही खोज निकालेगा। आपको झंझट करने की कोई ज़रूरत नहीं है। इसीलिए सुखी रहने का सवाल महज दर्शन का ही नहीं, राजनीति का भी सवाल है और आज इसका जवाब राजनीति में तलाशा जाना चाहिए।
अभी हाल ही में ब्रिटेन की लाइसेस्टर यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों ने दुनिया के तमाम देशों के निवासियों की प्रसन्नता मापने के लिए एक पैमाना बनाया जिसमें कुल 39 कारक हैं। इसमें से कुछ खास कारक हैं : राजनीतिक स्थायित्व, बैंकिंग सेवाएं, निजी स्वातंत्र्य, कचरे का निपटारा, हवा की शुद्धता और प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति। आप समझ सकते हैं कि सुख का कितना गहरा रिश्ता आपके आसपास की चीजों से है। यह सही है कि सुख एक अनुभूति है और आत्मज्ञान इसकी कुंजी है, लेकिन इसका छोर तो तब पकड़ में आता है जब राजनीतिक सत्ता-संपन्नता से लेकर आपकी तमाम बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं।
वैसे, चलते-चलते जिक्र कर दूं कि जहां दुनिया के देश अपनी आर्थिक खुशहाली जानने और बताने के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का डंका पीटते हैं, वहीं हमारा पड़ोसी पिद्दी-सा देश भूटान सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) की धारणा का पालन कर रहा है और आज से नहीं, सन् 1972 से। वहां की सड़कों पर एक बार ट्रैफिक लाइट लगाकर हटा दी गईं क्योंकि लोगों को इससे परेशानी होती थी, उन्हें तो हाथ दिखाकर ट्रैफिक बुलाता-भागता सूरमा ही सुहाता है।
लेकिन हमारे समय और देश के मौजूदा हालात में मुझे लगता है कि इम्पावरमेंट, सत्ता संपन्नता सुख की बुनियादी शर्त है। ज़रा याद कीजिए कि प्रधानमंत्री रहने के दौरान अटल बिहारी बाजपेयी का चेहरा कैसा चमकता था, चलने में दिक्कत थी, लेकिन उतनी नहीं। नरसिंह राव से लेकर कब्र में पैर लटकाए मोरारजी देसाई कैसे प्रधानमंत्री बनते ही हरे-भरे हो गए थे! बुढ़ापे में भी नारायण दत्त तिवारी के चेहरे से कैसा नूर टपकता है। मायावती के भी चेहरे की रौनक सत्ता में वापसी के बाद दिन-ब-दिन निखरती जा रही है। चंद्रशेखर मरे तो कैंसर से। लेकिन सत्ता में न रहते हुए भी वो हमेशा सत्ता में रहते थे। यही वजह है कि उनका शरीर और चेहरा हमेशा दमकता रहा। दूसरी तरफ उनकी धर्मपत्नी कभी उनके बगल में दिख जाती थीं तो लगता था कि उनकी मां बैठी हुई हैं। जो बात नेताओं पर लागू होती है, वह हम और आप जैसे तमाम आम लोगों के लिए भी सही है।
मैंने अपने अनुभव से जाना है कि सुखी होने के लिए आपका स्वस्थ रहना जरूरी है। लेकिन सत्ता आते ही आपका स्वास्थ्य खुद-ब-खुद सुधार के रास्ते पर चल निकलता है। जब तक आप दीन-हीन और दबे-कुचले रहते हैं, तब तक आपका स्वास्थ्य बिगड़ता ही चला जाता है। लेकिन घर या दफ्तर में सत्ता मिलते ही कैसे आपकी चहक कूद-कूदकर बाहर निकलती है। आप किसी को सत्ता दे दो, वह अपने सुख का रास्ता खुद ही खोज निकालेगा। आपको झंझट करने की कोई ज़रूरत नहीं है। इसीलिए सुखी रहने का सवाल महज दर्शन का ही नहीं, राजनीति का भी सवाल है और आज इसका जवाब राजनीति में तलाशा जाना चाहिए।
अभी हाल ही में ब्रिटेन की लाइसेस्टर यूनिवर्सिटी के मनोवैज्ञानिकों ने दुनिया के तमाम देशों के निवासियों की प्रसन्नता मापने के लिए एक पैमाना बनाया जिसमें कुल 39 कारक हैं। इसमें से कुछ खास कारक हैं : राजनीतिक स्थायित्व, बैंकिंग सेवाएं, निजी स्वातंत्र्य, कचरे का निपटारा, हवा की शुद्धता और प्राकृतिक आपदाओं की स्थिति। आप समझ सकते हैं कि सुख का कितना गहरा रिश्ता आपके आसपास की चीजों से है। यह सही है कि सुख एक अनुभूति है और आत्मज्ञान इसकी कुंजी है, लेकिन इसका छोर तो तब पकड़ में आता है जब राजनीतिक सत्ता-संपन्नता से लेकर आपकी तमाम बुनियादी ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं।
वैसे, चलते-चलते जिक्र कर दूं कि जहां दुनिया के देश अपनी आर्थिक खुशहाली जानने और बताने के लिए सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) का डंका पीटते हैं, वहीं हमारा पड़ोसी पिद्दी-सा देश भूटान सकल राष्ट्रीय प्रसन्नता (ग्रॉस नेशनल हैप्पीनेस) की धारणा का पालन कर रहा है और आज से नहीं, सन् 1972 से। वहां की सड़कों पर एक बार ट्रैफिक लाइट लगाकर हटा दी गईं क्योंकि लोगों को इससे परेशानी होती थी, उन्हें तो हाथ दिखाकर ट्रैफिक बुलाता-भागता सूरमा ही सुहाता है।
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