Monday 20 August, 2007

जिज्ञासा चकरघिन्नी बना देती है इंसान को

ज्वलंत जिज्ञासा और कुतुहलवाला आदमी चीज़ों को उलट-पुलट कर देखता चाहता है। अपनी आंखें वहीं गड़ाता है, जहां लोगों का ध्यान नहीं जाता। वह सामान्यत: ‘नास्तिक’ होता है। केवल धार्मिक अर्थों में ही नहीं, सभी अर्थों में। वह विरोधी और प्रतिरोधी भी हो उठता है। वह सोचने लगता है, निष्कर्ष पर आता है, निष्कर्ष बदल देता है। इसलिए वहां भी हमेशा ‘बिगिनर’ ही होता है। जिज्ञासा उसे नए-नए क्षेत्रों में ले जाती है। इसलिए उन-उन क्षेत्रों में वह नौसिखिया ही रहता है। वह चिरंतन ‘बिगिनर’, ज्ञान का चिरंतन उम्मीदवार, और इसीलिए भौतिक अर्थों में ज़िंदगी में असफल रहता है।
वह भद्र और शिष्ट नहीं हो सकता। भद्रता और शिष्टता के लिए अपनी ही निजता से प्रसन्नता चाहिए, परिस्थिति से अच्छा-खासा सामंजस्य चाहिए। लेकिन जिज्ञासावाला आदमी उस जंगली बच्चे के समान होता है जिसे वस्तु या निज से इतनी अधिक प्रसन्नता अच्छी नहीं लगती। वह आदमी घड़ी के पुर्जे तोड़ना चाहेगा और उन्हें फिर जोड़ना और लगाना चाहेगा। उसकी एक विध्वंसक प्रवृत्ति होती है। उसकी निर्मायक वृत्ति होती है; किंतु निर्मिति दिखे या न दिखे, लोगों को उसकी विध्वसंक प्रवृत्ति पहले दिख जाती है।
जिज्ञासावाला व्यक्ति एक बर्बर और असभ्य मनुष्य होता है। वह आदिम असभ्य मानव की भांति हर एक जड़ी और वनस्पति को चखकर देखना चाहता है। जहरीली वस्तु चखने का खतरा मोल ले लेता है। इस प्रकार वह वनस्पति में खाद्य और अखाद्य का भेद कर उनका वैज्ञानिक विभाजन करता है। और, इसी के पीछे पड़ा रहता है। वह अपना ही दुश्मन होता है। वह अजीब, विचित्र, गंभीर और हास्यास्पद परिस्थिति में फंस जाता है।
इसके बावजूद लोग उसे चाहते हैं। उसकी असफलताएं भयंकर होती हैं। वे प्राणघातक हो सकती हैं। उसका विरोध, प्रतिरोध और बोध अजीब होता है। ऐसे आदमी बहुत थोड़े होते हैं।
नोट - ये मेरी नहीं, किसी बड़े लेखक की लाइनें हैं। जिस तरह लोकगीत के रचनाकार का नाम जानने की ज़रूरत नहीं होती, उसी तरह मैंने भी लेखक का नाम बताने की ज़रूरत नहीं समझी। वैसे हो सकता है आपको लेखक का नाम पता हो। नहीं तो एक जिज्ञासा तो बनी ही रहेगी।

3 comments:

अभय तिवारी said...

क्या सचमुच हमेशा बिगिनर ही रहने वाला है वो? ये तो डराने वाली बात है..मगर जिसने भी लिखा.. सही है..

अनिल रघुराज said...

हां, अभयजी, वो हमेशा बिगिनर ही रहता है। मुक्तिबोध ने साहित्यिक की डायरी के एक लेख में ऐसा ही लिखा है। बिगिनर रहने का अपना ही मज़ा है, इंसान हमेशा बच्चों जैसे कुतुहल में फंसा रहता है।

azdak said...

ओह, यह सेल्‍फ़पोर्ट्रेट देखना कितना पीड़ाजनक है!