Thursday 16 August, 2007

अंश भर अमरत्व की आस

अमरत्व किसे नहीं चाहिए। वैज्ञानिक खोज में लगे हैं कि इंसान को कैसे अजर-अमर बनाया जा सकता है। कोई जब बताता है कि हिमालय की कंदाराओं में उसके कोई गुरु 500 सालों से तपस्या कर रहे हैं तो सुनकर बड़ा अचंभा होता है और कुतूहल भी। फिर, आम इंसान यह सोचकर तसल्ली कर लेता है कि चलो आत्मा तो अमर है। हम नहीं रहेंगे, मगर हमारी आत्मा तो रहेगी। वह सर्वदृष्टा है। सब कुछ देखती रहेगी। अमरता की इस अटूट चाहत का केंद्रीय भाव यही है कि हम बने रहें। जिंदा रहें तो लोग जानें-पहचानें और मर गए तब भी दुनिया हमें याद रखे।
मैं अभी इसी अमरत्व की बात कर रहा हूं। गौतम बुद्ध अमर हो गए। कबीर अमर हो गए। महात्मा गांधी अमर हो गए। भगत सिंह अमर हो गए। इसलिए नहीं कि उनकी आत्मा जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त होकर परमात्मा के साथ मिलकर अब भी यहीं कहीं चक्कर काटती है। बल्कि इसलिए लाखों-करोड़ों लोग अब भी उनको याद करते हैं। दूसरों के दिमाग में जगह बनाना ही अमरता है। अमिताभ बच्चन जीते जी अमर हो गए हैं। मायावती तो जिंदा रहते अपनी मूर्तियां लगवा रही हैं ताकि लोग उन्हें याद रखें।
वैसे, यह अमरता बड़ी सांसारिक किस्म की चीज़ है। और हर कोई इसे थोड़ा कम या ज्यादा हासिल ही कर सकता है। शायद ही कोई होगा जिसके भीतर नौजवानी की दहलीज़ पर कदम रखते वक्त ये विचार न आया हो।
बताते हैं कि किसी यूरोपीय शहर में एक मेयर हुआ करता था। उसने अपने घर में एक खुला हुआ ताबूत बनवा रखा था। वह जब बहुत प्रसन्नचित्त और संतुष्ट होता तो जाकर इसी ताबूत में लेट जाता और अपने जनाजे के निकलने की कल्पना करता। वह यही सोच-सोचकर मगन हो जाता कि कितने सारे लोग उसकी कितनी ज्यादा याद कर रहे हैं, उनके न होने से कितने दुखी हैं, उसकी कितनी कमी महसूस कर रहे हैं। ताबूत में बिताए ये पल उसकी ज़िंदगी के सबसे खूबसूरत लम्हे हुआ करते थे। वह अपने लिए लोगों के रोने की कल्पना कर जीते-जीते अमरत्व में चला जाता था।
जाहिर है, अमरत्व के मामले में सभी लोग बराबर नहीं होते। छोटी या तुच्छ अमरता वो होती है जिसमें आपके हित-मित्र जान-पहचान वाले आपको याद रखते है। जबकि महान अमरता वो होती है जब वे लोग भी आपको याद रखते हैं जो आपको निजी तौर पर नहीं जानते। ज़िंदगी के कुछ ऐसे रास्ते होते हैं जिनमें एकदम शुरुआत से ही इस महान अमरता को हासिल करने की संभावना रहती है। हां, इसे पाना मुश्किल तो होता है, लेकिन इसे एक सिरे से नकारा नहीं जा सकता। कला, लेखन और राजनीति महान अमरत्व हासिल करने के ऐसे ही कुछ रास्ते हैं।
विचार स्रोत : मिलान कुंदेरा का उपन्यास - इममॉरटैलिटी

3 comments:

अफ़लातून said...

यूरोपीय नगर-प्रमुख का प्रसंग अत्यन्त रोचक है।धन्यवाद।

चंद्रभूषण said...

दादा दोस्तोएव्स्की की राय अमरता के बारे में यह थी कि एक बार जब आपका निर्जीव से सजीव हो गये तो फिर मृत्यु संभव ही नहीं है। अमरता आपके अस्तित्व के साथ ही जुड़ी हुई आती है। एक बार आ गए तो आप पूरी तरह फिर कभी नहीं जाएंगे। अपनी संतानों और फिर उनकी संतानों पर छपी अपनी जेनेटिक्स में, किसी के दिमाग में दर्ज किसी कड़वी या मीठी स्मृति में, किसी की जुबान पर अनजाने में चढ़ गए अपने किसी शब्द, मुहावरे या लहजे में या अन्य किसी भी शक्ल में आप का कुछ न कुछ यहां जरूर अटका रह जाता है- भले ही आपकी मृत्यु गर्भ में हो गई हो या 116 साल की उमर बिताकर। यही सहज अमरता है और इसे हासिल करने के लिए मनुष्य ही नहीं, हर जीव छटपटाता है। इससे इतर किसी ज्यादा गहरी और ज्यादा फैली हुई अमरता की ख्वाहिश अधिक से अधिक जमीन घेर लेने, सरमाया खड़ा कर देने की सामंती-पूंजीवादी इच्छा के समतुल्य है और इसके प्रति मेरे मन में कोई सहानुभूति नहीं है।

सुशील कुमार जोशी said...

बहुत खूब !
मरने के बाद का इंतजाम :)