समुद्र किनारे लहराता जन-समुद्र
अगले महीने मुझे मुंबई में आए ढाई साल हो जाएंगे। लेकिन आप यकीन नहीं मानेंगे कि मैंने अभी तक यहां का समुद्र नहीं देखा है। हां, एक बार बच्चों के साथ चौपाटी ज़रूर गया हूं। वैसे, हरहराता समुद्र मैंने देखा है, लेकिन मुंबई का नहीं। गुजरात में पोरबंदर का समुद्र देखा है, धीरूभाई के गांव के पास चोरवाड के समुद्र की लहरों में भी कमर तक डूबा हूं। नीदरलैंड की राजधानी एम्सटर्डम से करीब सौ किलोमीटर दूर अल्कामार के समुद्र में भी डुबकी लगाई है। लेकिन समुद्र किनारे बसे मुंबई में हफ्ते के पांच दिन सुबह-शाम मेरा एक समुद्र से ज़रूर वास्ता पड़ता है। और वो है जन-समुद्र।
सुबह लोकल ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुंचता हूं तो वहां एक जन-समुद्र हिलोरे मार रहा होता है। हर पांच से लेकर दस मिनट पर ट्रेन हैं। लेकिन एक ट्रेन जाते ही मिनटों में स्टेशन पर ऐसी भीड़ लग जाती है जैसे समुद्र की एक लहर के बाद दूसरी लहर आ गई। इस तरह सुबह सात बजे से लेकर दोपहर दो बजे तक तेज लहरों के आने का सिलसिला चलता रहता है। बीच में तीन से चार-साढ़े चार बजे तक लहरें मद्धिम पड़ जाती हैं। लेकिन शाम पांच बजे से लेकर 10-11 बजे तक फिर मुख्य मुंबई से बाहर जाती हुई वेगवान लहरें उठ खड़ी होती हैं।
समय के हिसाब से इन लहरों का रंग बदलता रहता है। सुबह सात से 10-11 बजे तक ऑफिस जानेवाले लोगों की लहर आती है। इस लहर पर महाराष्ट्रीय रंग हावी रहता है। फिर दोपहर होते-होते शेयर बाज़ार में या कोई और धंधा करनेवालों की लहर शुरू हो जाती है। इस लहर पर गुजराती रंग सवार रहता है। ये लोग ट्रेन में खड़े-खड़े ही सौदे काटते रहते हैं। दो बजे के आसपास की लहरों पर सतरंगी रंग चढ जाता है। इनमें सभी शामिल रहते हैं। उत्तर भारतीय तो मुंबई की जान बन गए हैं। कारपेंटर से लेकर ऑटो रिक्शा, टैक्सी, पान की दुकान या दूध का धंधा करनेवालों में भैया लोगों की भरमार है। इसलिए मुंबई के जन-समुद्र की हर लहर में उत्तर भारतीय रंग थोड़ा-बहुत शामिल रहता है।
इस जन-समुद्र के तेवर बराबर समुद्र के तेवर से मैच करते हैं। हाई टाइड का वक्त है और बाढ़ की सूरत पैदा हो गई तो सड़कों से लेकर रेलवे स्टेशन तक फैले जन-समुद्र में भी हाई टाइड आ जाता है। मुझे इसका ज़बरदस्त अहसास 26 जुलाई 2005 को हुआ था, जब यह जन-समुद्र पटरियों पर बहते-बहते अपने ठिकानों तक पहुंचा था।
मुंबई का जन-समुद्र वाकई इंसानों को कैसे बूंद बना देता है! वो बूंद जिसका मानो तो अलग वजूद है, नहीं तो वह समुद्र में विलुप्त है। अलग से खोजे नहीं मिलेगी। मुंबई का यह जन-सैलाब बड़े-बड़ों के अहम को चाक की तरह चूर-चूर कर देता है। क्या साहब, क्या चपरासी, सब एक बराबर। काहिलों की रीढ़ की हड्डी सीधी कर देता है मुंबई। शायद इसीलिए मुझे मुंबई बेहद अच्छा लगता है। दिल्ली तो दल्लों का शहर है, जबकि मुंबई मेहनत करनेवालों का शहर है। दिल्ली में आप पानी में तेल की तरह उतराते रहते हैं, जबकि मुंबई का जन-समुद्र आपको सोख लेता है, भीड़ में आप ऐसे गुम हो जाते हैं कि अपनी तलाश तक भूल जाएं।
वैसे, सोचता हूं कि आखिर हम लोग हैं क्या? जन-समुद्र की एक बूंद ही तो हैं। समुद्र में बूंद जैसी स्थिति हमारी है। एक बूंद का दायरा कब दूसरी बूंद से मिल गया, पता ही नहीं चलता। हम जिसे नितांत अपनी समस्या माने रहते हैं, आंख उठाकर अगल-बगल झांकते हैं तो पता चलता है कि न जाने कितने लोग ठीक उसी वक्त वैसी ही समस्या से जूझ रहे होते हैं। हमें लगता है कि क्या अनोखा विचार हमारे जेहन में आया है, लेकिन कभी संयोगवश कोई ऐसी किताब हाथ लग जाती है तो पता चलता है कि वह विचार तो दो सौ साल पहले कोई और लिखकर चला गया है। कभी-कभी महान हस्तियों के बारे में सोचते हैं कि उनकी तो हर बात निराली रही होगी। लेकिन नज़दीक से परखते हैं तो पता चलता है कि वे भी हमारे जैसे ही थे। बस, अंतर इतना था कि खास काल और परिस्थिति में सामाजिक आवश्यकता ने, सामूहिक जरूरत ने उस शख्स को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया था और वह आनेवाली पीढ़ियों के लिए महान बन गया।
वाकई समुद्र के किनारे बसे मुंबई के जन-समुद्र ने मुझे ऐसा बना दिया है कि मैं कबीर की बोली में कह सकता हूं :
जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहिं समांना, यह तथ कह्यो गियानी।।
सुबह लोकल ट्रेन पकड़ने स्टेशन पहुंचता हूं तो वहां एक जन-समुद्र हिलोरे मार रहा होता है। हर पांच से लेकर दस मिनट पर ट्रेन हैं। लेकिन एक ट्रेन जाते ही मिनटों में स्टेशन पर ऐसी भीड़ लग जाती है जैसे समुद्र की एक लहर के बाद दूसरी लहर आ गई। इस तरह सुबह सात बजे से लेकर दोपहर दो बजे तक तेज लहरों के आने का सिलसिला चलता रहता है। बीच में तीन से चार-साढ़े चार बजे तक लहरें मद्धिम पड़ जाती हैं। लेकिन शाम पांच बजे से लेकर 10-11 बजे तक फिर मुख्य मुंबई से बाहर जाती हुई वेगवान लहरें उठ खड़ी होती हैं।
समय के हिसाब से इन लहरों का रंग बदलता रहता है। सुबह सात से 10-11 बजे तक ऑफिस जानेवाले लोगों की लहर आती है। इस लहर पर महाराष्ट्रीय रंग हावी रहता है। फिर दोपहर होते-होते शेयर बाज़ार में या कोई और धंधा करनेवालों की लहर शुरू हो जाती है। इस लहर पर गुजराती रंग सवार रहता है। ये लोग ट्रेन में खड़े-खड़े ही सौदे काटते रहते हैं। दो बजे के आसपास की लहरों पर सतरंगी रंग चढ जाता है। इनमें सभी शामिल रहते हैं। उत्तर भारतीय तो मुंबई की जान बन गए हैं। कारपेंटर से लेकर ऑटो रिक्शा, टैक्सी, पान की दुकान या दूध का धंधा करनेवालों में भैया लोगों की भरमार है। इसलिए मुंबई के जन-समुद्र की हर लहर में उत्तर भारतीय रंग थोड़ा-बहुत शामिल रहता है।
इस जन-समुद्र के तेवर बराबर समुद्र के तेवर से मैच करते हैं। हाई टाइड का वक्त है और बाढ़ की सूरत पैदा हो गई तो सड़कों से लेकर रेलवे स्टेशन तक फैले जन-समुद्र में भी हाई टाइड आ जाता है। मुझे इसका ज़बरदस्त अहसास 26 जुलाई 2005 को हुआ था, जब यह जन-समुद्र पटरियों पर बहते-बहते अपने ठिकानों तक पहुंचा था।
मुंबई का जन-समुद्र वाकई इंसानों को कैसे बूंद बना देता है! वो बूंद जिसका मानो तो अलग वजूद है, नहीं तो वह समुद्र में विलुप्त है। अलग से खोजे नहीं मिलेगी। मुंबई का यह जन-सैलाब बड़े-बड़ों के अहम को चाक की तरह चूर-चूर कर देता है। क्या साहब, क्या चपरासी, सब एक बराबर। काहिलों की रीढ़ की हड्डी सीधी कर देता है मुंबई। शायद इसीलिए मुझे मुंबई बेहद अच्छा लगता है। दिल्ली तो दल्लों का शहर है, जबकि मुंबई मेहनत करनेवालों का शहर है। दिल्ली में आप पानी में तेल की तरह उतराते रहते हैं, जबकि मुंबई का जन-समुद्र आपको सोख लेता है, भीड़ में आप ऐसे गुम हो जाते हैं कि अपनी तलाश तक भूल जाएं।
वैसे, सोचता हूं कि आखिर हम लोग हैं क्या? जन-समुद्र की एक बूंद ही तो हैं। समुद्र में बूंद जैसी स्थिति हमारी है। एक बूंद का दायरा कब दूसरी बूंद से मिल गया, पता ही नहीं चलता। हम जिसे नितांत अपनी समस्या माने रहते हैं, आंख उठाकर अगल-बगल झांकते हैं तो पता चलता है कि न जाने कितने लोग ठीक उसी वक्त वैसी ही समस्या से जूझ रहे होते हैं। हमें लगता है कि क्या अनोखा विचार हमारे जेहन में आया है, लेकिन कभी संयोगवश कोई ऐसी किताब हाथ लग जाती है तो पता चलता है कि वह विचार तो दो सौ साल पहले कोई और लिखकर चला गया है। कभी-कभी महान हस्तियों के बारे में सोचते हैं कि उनकी तो हर बात निराली रही होगी। लेकिन नज़दीक से परखते हैं तो पता चलता है कि वे भी हमारे जैसे ही थे। बस, अंतर इतना था कि खास काल और परिस्थिति में सामाजिक आवश्यकता ने, सामूहिक जरूरत ने उस शख्स को अपनी अभिव्यक्ति का माध्यम बना लिया था और वह आनेवाली पीढ़ियों के लिए महान बन गया।
वाकई समुद्र के किनारे बसे मुंबई के जन-समुद्र ने मुझे ऐसा बना दिया है कि मैं कबीर की बोली में कह सकता हूं :
जल में कुंभ, कुंभ में जल है, बाहर-भीतर पानी।
फूटा कुंभ जल जलहिं समांना, यह तथ कह्यो गियानी।।
Comments
'पानी केरा बुदबुदा, अस मानस की जात'...अच्छा लगा पढ़कर.