टीआरपी का रुदन और लार टपकाते संपादक

धूमिल की एक मशहूर कविता है कि लोहे का स्वाद लोहार से मत पूछो, उस घोड़े से पूछो जिसके मुंह में लगाम है। किसी अनॉनिमस सज्जन ने मोहल्ला पर दिलीप मंडल के लेख पर एक टिप्पणी की थी, लेकिन न जाने क्यों उन्होंने इसे मेरे लेख के कमेंट में भी डाल दिया। पहले तो एनॉनिमस देखते ही मैंने इसे रिजेक्ट कर दिया था। लेकिन बाद में मेल में जाकर पढ़ा तो मैं इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रह सका। टिप्पणी के अंत में इन सज्जन ने अपना नाम अनिकेत लिखा है। मोहल्ला पर इसे टिप्पणी ही रहने दिया गया है। लेकिन मुझे लगता है कि इसे अलग से पेश करने की जरूरत है। अनिकेत की बातों से लगता है कि वो यकीनन किसी टीवी न्यूज़ चैनल में काम करते हैं और न्यूज रूम के कामकाज से भलीभांति परिचित हैं। सो आप भी जानिए कि लोहे के स्वाद के बारे में उस घोड़े का क्या कहना है जिसके मुंह में लगाम है...
प्लीज दिलीप जी, कृपया टीआरपी को देश की जनता का प्रतिनिधि न बताएं। चाहे वो हिंदी की टीआरपी हो या अंग्रेजी की। ये टीआरपी, चैनल में पैसा लगाने वाले सेठ के लिए मोटा मुनाफा कमाने का जरिया हो सकती है और हमारे-आपके जैसे टीवी कर्मचारियों - अफसरों के लिए मोटी तनख्वाहें देने वाली भी, लेकिन इसके आधार पर देश - समाज की दशा-दिशा और जरूरतों पर बड़े-बड़े तुक्के न मारें। भूत-प्रेत या भविष्य फल, वास्तु और फेंग शुई या फिर सेक्स क्राइम को चटखारे लेकर पेश करती कहानियां (खबरें नहीं - हमारे-आपके टीवी में इसे यही कहते हैं न!) - इनमें कहां, कौन सी प्रगतिशीलता या रूढियों, ब्राह्मणवादिता, कुलीनता और आभिजात्य को तोड़ने की कुव्वत देख रहे हैं जनाब! ये सारी तो उसी सामंती-ब्राह्मणवादी समाज की खूबियां हैं। तर्क पर श्रद्धा या अंध-विश्वास की चादर डालकर यथास्थिति को बनाए रखने के औजार हैं। इनसे कैसी उम्मीद?
नेताओं के लंबे-लंबे भाषण भले ही हमारे-आपके जैसे पढ़े-लिखे, नव-कुलीन, नव-आभिजात्य और नव-पूंजीवादी कथित पत्रकारों को बोरियत से भरे लगते हों, लेकिन इन बेमतलब के भाषणों में भी बातें तो कुछ सकारात्मक ही करनी पड़ती हैं - कुछ आगे को ले जाने वाली ही करनी पड़ती हैं। भुतहा कार्यक्रमों के जरिये न सिर्फ बालिग बल्कि नाबालिग बच्चों के दिलो-दिमाग में भी अवैज्ञानिक, अंधेरे और पतन की ओर ले जाने वाली बातें भरी जा रही हैं बल्कि ये कार्यक्रम न्यूज़ की विश्वसनीयता के भ्रम के चलते भुतहा फिल्मों या कहानियों के मुकाबले ज्यादा खतरनाक और मानवद्रोही भी हैं।
किस मानवाधिकार की बात कर रहे हैं आप! क्या आप नहीं जानते कि दिलचस्प विजुअल बनाने के लिए आपका रिपोर्टर या स्ट्रिंगर चोरी के आरोपियों को पिटवाता है, उसके बाल मुंडवाता है, रस्सी से बंधवाकर लात-जूते खिलवाता है, पारिवारिक झगड़ों को बेहद चटखारेदार ढंग से हिंसक बनाने के लिए थप्पड़ और जूते-चप्पलों की बौछार प्रायोजित करता है? कौन सी सच्चाई पर्दे पर पेश करने का दावा कर रहे हैं न्यूज चैनल? जिस दूरदर्शन को आप कोस रहे हैं, धुर सरकार विरोधी लोग भी आज खबरें देखने के लिए उसी की ओर ताकने को मज़बूर हो जाते हैं। किस च्वॉयस की बात कर रहे हैं आप?
खबरें देखने के लिए कहां जाएं लोग? कौन सा चैनल है, जो खबरें दिखा रहा है और इसलिए लोकप्रिय नहीं हो पा रहा? क्या आपका इशारा एनडीटीवी इंडिया की ओर है? और अंग्रेजी के चैनल कौन से दूध के धुले हैं? क्या वो सेक्स, हिंसा, कौतुक (विचित्र किंतु सत्य़) परोसने की ललक में किसी भी हद तक जाने को तैयार नहीं रहते? NDTV-24X7 की रिपोर्टर नॉर्थ ईस्ट के एक नन्हें से गोद के बच्चे को कम से कम दो दिन तक मुट्ठी भर-भर के दुनिया की सबसे तीखी मिर्चें खिलाती रही। लाइव चैट देती रही। किसी को परवाह नहीं थी कि उस नन्हें से बच्चे के मां-बाप को समझाएं, इतनी मिर्च खाने से रोकें, जो शायद उसके लिए जानलेवा हो सकता है।
CNN-IBN और CNBC TV18 के कार्यक्रमों में, उसके लाइफ-स्टाइल शोज में सेक्स और शराब जमकर परोसी जाती है। सरकार को नोटिस तक देना पड़ता है। सारे चैनलों के संपादक समान रूप से खूबसूरत और ग्लैमरस दिखने वाली लड़कियों को हर कीमत पर आगे बढ़ाने लिए लार टपकाते हुए मिल जाते हैं। दिन रात खटने वाले, चैनल की रीढ़ बनकर काम करने वालों को कोई धेले को नहीं पूछता। जिसे खबर की एबीसी नहीं मालूम होती, हिंदी का ककहरा नहीं आता, नागरी लिपि पढ़नी तक नहीं आती, उसे एंकर बनाने के लिए देश की हिंदी भाषी जनता नहीं आगे आती। कथित संपादक और उनके चेले-चटिये होड़ करते हैं। इसलिए नहीं कि हिंदी जानने वाले लड़के-लड़कियों की कमी है। बल्कि इसलिए कि आमतौर पर हिंदी वाली लड़कियां उन्हें बहनजी टाइप लगती हैं। कुछ दूर-दूर रहती हैं। ज्यादा सटने नहीं देतीं।
हर चैनल में बोलबाला है ऐसे लोगों का जो दिन भर संपादकों का दरबार लगाने और उनकी ओर से गुर्राने, भौंकने या दुम हिलाने के सिवा कुछ नहीं करते। न्यूज रूम में लोगों की भीड़ होती है, लेकिन चैनल चला रहे होते हैं रन-डाउन और स्क्रिप्टिंग करने के लिए जिम्मेदार चार-पांच या कभी कभी तो डेढ़-दो लोग। और जब काम वो करते हैं तो गालियां भी वही खाते हैं।
किस प्रोफेशनलिज्म की बात कर रहे हैं आप? क्या आपके अपने चैनल में, खुद आपकी संस्तुति पर एक ऐसे प्रोड्यूसर को पिछले कई बरस से एक ही पद पर रोककर नहीं रखा गया, जो शायद आपकी टीम में सबसे काबिल है। जो आपकी अनुपस्थिति में, या जब आप लेख आदि लिखने में व्यस्त होते हैं तो आपकी जगह सारा कामकाज देख रहा होता है। क्या उसके कंधे की सवारी करने के लिए उसे लगातार नीचे दबाए रखने की कवायद नहीं होती? चाटुकारिता और चमचई की सारी हदें पार कर रहे हैं टीवी चैनलों के न्यूजरूम और आप कह रहे हैं कि चेलों के दिन लद रहे हैं।
दस-बारह साल पहले अखबारों में हम अपने सीनियर से खुलकर बहस करते थे, बिना डरे कि इस बार हमारा एप्रेजल बिगड़ जाएगा। अब तो किसी ने अगर सीनियर की हां में हां मिलाने में ढिलाई बरती, तो उसका एप्रेजल बिगड़ना तय हैं। कई चैनलों में तो ऐसे लोगों का एप्रेजल होता ही नहीं है। जिन टीवी चैनलों को चलाने में - उनके कामकाज में नाम को भी लोकतंत्र नहीं है, उनके कंधों पर लोकतंत्र का कारवां आगे बढ़ेगा? सपनों की दुनिया से बाहर आइए। टीआरपी के धनतंत्र को जनता का लोकतंत्र बताने का गुनाह मत कीजिए।

Comments

टीआरपी के पीपल मीटर और उसकी तकनीक का मसला भी सार्वजनिक किए जाने की जरूरत है. वैसे इस टिप्पणी को अलग से पोस्ट बनाने के लिए धन्यवाद.
azdak said…
बाहर आइए! बाहर आइए!..
गुनाह मत कीजिए? गुनाह मत कीजिए?
VIMAL VERMA said…
भाई अनिलजी टीआरपी का मसला तो बडा अजीब है.. अब आप ये बताइये पिछ्ले जितने भी एक्ज़िट पोल हुए हैं उनकी भविष्यवाणी अमूमन गलत साबित हुई हैं... तो टीआरपी भला क्या बला है, भारत मे ये काम सिर्फ़ एक कम्पनी करती है जिसका नाम है टैम और यही संस्था सारे चैनलों को हफ़तावार विश्लेशण मुहैया कराती है जिसके पास सिर्फ़ १० हज़ार से या इसके आस पास ही पिपुल्स मीटर हैं और सारे देश के हर वर्ग का विश्लेशण इनके पास मिल जाता है जो सही हो इसकी सम्भावना कम ही है पर बाज़ार कि मान्यता इसे प्राप्त है, एक दूसरी संस्था भी मैदान मे आ गई है जिसका नाम ई मैप है इसके आ जाने से आने से टैम को अपने मीटर बढाने पडे हैं टैम को लेकर विवाद हमेशा से रहा है पर पता नही क्यों बाज़ार पर इसी का एकाधिकार है? टैम हफ़्ते में एक बार विवरण भेजता है पर इ- मैप रोज़ की टीआरपी बताता है.फिर भी इसको मान्यता अभी भी नही मिली है.पर इनके दर्शकों को मापने का पैमाना हमेशा संदेह उत्पन्न करता है पर इस ओर किसि का ध्यान भी नहीं जाता.बाकी खबरिया चैनल की जो आपने खबर ली है वो सटीक लगा..
सर, कफी बेहतरीन लेख लिखा है आपने...प्रिंट वाले भी आजकल इसतरह खुलकर लिखने से बचते हैं...न जाने क्या गोलबंदी कर ली गई है भीतर ही भीतर लोकतंत्र के चौथे स्तंभ के लंबरदारों ने...आने वाले दिनों में भी स्थिति सुधरती नहीं दिख रही है...क्योंकि जबतक पत्रकारिता के जरिए कमाई की एक सीमा नहीं बांधी जाएगी...कि बस इतना कमाना है और बाकी समाज के लिए काम करना है..तबतक स्थिति बदतर ही होती जाएगी...आज ज्यादातर खबरची(चैनलों,अखबारों के मालिक)बिजनेसमैन हैं या मालिक बनने के बाद सारे एथिक्स भुलाकर बिजनेसमैन बन गए हैं...केवल यहीं नहीं विदेशों में भी इसका पतन होना शुरू हो चुका है...वॉल स्ट्रीट जनरल में बेबाक लिखने वाले पत्रकार...अब मीडिया मुगल रूपर्ट मरडॉक के चुंगल में फंस गए हैं।
Manish Kumar said…
अच्छा किया इस टिप्पणी को इस रूप में पेश कर के!
alok putul said…
आपकी डायरी के अधिकांश पन्ने पढ़ गया हूं. पत्तलकारिता के सारे 'गुण' उपर से लेकर नीचे तक सब जगह व्याप्त हैं. गंदगी का जो पहाड़ बन गया है, उसके लिए हम सब जिम्मेवार हैं. लेकिन हम यह सब कुछ चुपचाप चलने देना चाहते हैं क्योंकि बोलने पर सबसे पहले हम ही पकड़े जाएंगे. एसपी उपहार सिनेमा कांड पर जिस तरह बड़ी आसानी से " ज़िंदगी चलती रहती है " बोल लेते हैं, उसी तरह से हम सब पत्रकारिता का रोना-धोना मचा कर, अपने आंसू पोछते हैं, बालों को दुरुस्त करते हैं और कह देते हैं-जिंदगी ऐसी ही चलती है.

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