फ्रेम तोड़कर सतह से निकलता चिट्ठा-समय
वर्धा के पास सेवाग्राम में गांधी की कुटिया में खिड़की के फ्रेम से झांकती रौशनी |
आप जानते ही होंगे कि यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है और इसके पास संसाधनों की कोई कमी नही है। आप सोच रहे होंगे कि कोई सरकारी संस्थान नौकरशाही जकड़न से निकलकर ऐसी पहल कैसे कर सकता है। लेकिन हर संस्थान में व्यक्ति ही होते हैं जो किसी द्वीप पर नहीं, बल्कि इसी समाज के घात-प्रतिघात के बीच जीते हैं। इन व्यक्तियों की निजी ऊर्जा नई पहल की जननी बन जाती है। इस मायने में भी यही हुआ। करीब दो हफ्ते बाद रिटायर हो रहे कुलपति विभूति नारायण राय की फ्रेम से बाहर निकलने की सोच और उत्तर प्रदेश सरकार के एक वरिष्ठ ट्रेजरी अफसर सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी की सत्यार्थमित्रता इस अहम काम का निमित्त बनी है।
उन्होंने ऐसा हवा में हाथ भांजकर नहीं किया। काफी सोच-विचार के बाद उन्होंने पाया कि करीब चार साल पहले ब्लॉगवाणी के बंद होने से हिंदी ब्लॉगों में जो मायूसी छाई है, उसे एक नया एग्रीगेटर लाकर तोड़ा जा सकता है। इसके लिए उन्होंने ब्लॉगवाणी के साथ उस समय के तकनीकी स्तर पर ज्यादा संपन्न चिट्ठाजगत के संचालकों से संपर्क किया। चिट्ठाजगत के प्रमुख विपुल जैन से सारा तकनीकी तंत्र बनवाने की हामी भरवाई। फिर ब्लॉगर बंधुओ से संपर्क साधा। कुछ अपनी जड़ता या व्यस्तता में फंसे रहे। लेकिन करीब पच्चीस ब्लॉगरों को बुलाने में कामयाबी मिली। विश्वविद्यालय में पिछले महीने 20-21 सितंबर को संगोष्ठी हुई। कायदे से महजमारी हुई और अंततः चिट्ठा-समय के फैसले को व्यापक स्वीकृति मिल गई। चंद रोज़ बाद यह एग्रीगेटर हमारे बीच में हाज़िर होगा और धीरे-धीरे हम सभी हिंदी ब्लॉगर शायद फिर इस मंच पर ब्लॉगवाणी के जमाने की तरह कल्लोल करने लगंगे।
दोस्तों! मेरा मानना है कि हम अविश्वास, धोखे और झूठ के जिस सामाजिक दौर से
गुजर रहे हैं, उसमें स्वतः स्फूर्त जन-सक्रियता ही हमारे समाज में ऐसे मंथन को जन्म
देगी जो कल की संजीवनी, कल का अमृत निकाल सकता है। यह ऐसी सामाजिक, राजनीतिक व
आर्थिक व्यवस्था का आधार बन सकता है जिसमें जवाबदेही का तत्व सबसे प्रमुख होगा।
हमें इसी स्वतः स्फूर्त जन-सक्रियता के संदर्भ में सोशल मीडिया के साथ-साथ हिंदी
ब्लॉगिंग को देखना चाहिए। भले ही इसमें शोर बहुत हो, लेकिन साहित्य के संभ्रांत
दायरे से बाहर के आम लोगों को सक्रियता इसे ज़मीनी हकीकत के ज्यादा करीब लाकर खड़ा
करती है।
सौभाग्य से मुझे भी
वर्धा के दो दिवसीय हिंदी ब्लॉगिंग सम्मेलन में भाग लेने का अवसर मिला। हालांकि
मेरे जैसे संकोची इंसान ने हिंदी के धुरंधर ब्लॉगरों के बीच खुद को बड़ा एकाकी
महसूस किया। स्थापित ब्लॉगरों की जड़ता पर कोफ्त भी होती रही। अफसोस हुआ कि साइंस
पर ब्लॉग चलानेवाले विद्वानों में साइंटिफिक टेम्पर का अभाव है। सनसनी है, कुतुहल
नहीं। यह भी देखा कि स्थापित ब्लॉगर भी कहीं अपना नाम देखने के लिए कैसे बेचैन हो
जाते हैं। लेकिन नए ब्लॉगरों का व्यवस्थित अंदाज़ और उनमें वो ईमानदार बेचैनी भी
देखी जो नया कुछ गढ़ने का आधार बन सकती है। इससे भी बड़ी बात है विश्वविद्यालय के छात्र-छात्राओं
का समूह जो संगोष्ठी के भीतर और बाहर बराबर सक्रिय रहा।
मैं दिल्ली के
जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में भी महीने-दो महीने रहा हूं। वहां के माहौल में एक एलीट
परफ्यूम हर तरफ भटकती है। लेकिन वर्धा के हिंदी विश्वविद्यालय में मुझे अपनी माटी
की महक सूंधने और महसूस करने को मिली। कोई गोरखपुर, गाज़ीपुर या बलिया का तो कोई
दरभंगा और रांची का। रायपुर से कोई आया है तो कोई मध्य प्रदेश के छोटे से शहर से। फिर
भी लड़के-लड़कियों में एकदम बिंदास अंदाज़। यहां गांव-गिराव और कस्बे के वो
छात्र-छात्राएं अपने कल की बुनियाद तैयार करने में लगे हैं जिन्हें देश में छाई अंग्रेजियत
ने निर्वासित कर रखा है। दो दिन के प्रवास के दौरान इनकी ऊर्जा और सच्चाई देखकर
मेरा मन बल्लियों उछलने लगा। यह सच है कि हिंदी में मैनेजमेंट जैसे कोर्स करने के
बाद शायद कॉरपोरेट जगत इनको कोई घास न डाले। लेकिन जिन ज़मीनी सवालों से ये युवक-युवतियां
जद्दोजहद कर रहे हैं, वे निश्चित रूप से कल के भारत के लिए बहुत ज़रूरी है।
वर्धा विश्वविद्यालय
में मैंने जो कुछ देखा समझा, उससे लगा कि वहां पिछले कुछ सालों से निर्माण व सृजन की जो प्रक्रिया
शुरू हुई है, वो बीच में रुकनी नहीं चाहिए। डर है कि कहीं ऐसा न हो जाए क्योंकि
वहां का बाहरी व भीतरी माहौल बनानेवाले कुलपति विभूति नारायण राय इस महीने के अंत
तक चले जाएंगे। उनकी जगह जो भी व्यक्ति आएगा, क्या उसके अंदर भी इसी तरह फ्रेम को
तोड़ने की तड़प होगी?
मैं संगोष्ठी से इतर भी विश्वविद्यालय के कुछ लोगों से मिला। उनकी बड़ी
गंभीर किस्म की शिकायतें मौजूदा कुलपति से हैं। कुछ लोगों ने यह भी कहा कि अशोक बाजपेई
के नेतृत्व में आईएएस लॉबी अपने किसी आदमी को कुलपति बनाने में जुटी है और वो
इसमें कामयाब भी होगी। एक शख्स ने मुझे दिखाया कि परिसर में सहजानंद सरस्वती के
नाम पर बन रहे नए केद्र का ठेका उत्तर प्रदेश कल्याण निगम को दिया गया है, भले ही
उसके बोर्ड पर नीचे वर्धा लिखा हो। खटाक से मेरे मन में कौंधा कि मेरे
नाते-रिश्तेदार अफसर बनने की राह सायास छोड़ देने के चलते सालों बाद भी अभी तक
मुझसे कितने नाराज़ हैं। इसलिए नहीं कि वे मुझसे प्यार नहीं करते, बल्कि इसलिए मैं
अफसर बनने के बाद उनके पूरे वजूद पर सनसनाती असुरक्षा को कुछ हद तक दूर सकता था।
खैर, अजीब विडम्बना है।
अंग्रेज़ों से विरासत से मिले प्रशासनिक तंत्र की इस विडम्बना पर आप
सोचिएगा ज़रूर। अंत में बस एक छोटी-सी बात। अगर आपके सिर के बाल उड़ रहे हों यानी
चांद मेहरबान होते-होते आपके सिर तक आ गया हो तो वर्धा के अंतरराष्ट्रीय हिंदी
विश्वविद्यालय के परिसर में ऐसे छोटे-छोटे पौधे जगह-जगह फैले हैं जिन्हें कायाकल्प
कहा जाता है और इनका तना या पत्ती तोड़ने पर जो दूध निकलता है, उसे चांद पर लगाने
से फिर से बाल उगने लगते हैं। ऐसा मैने सुना है, परखा नहीं। उसी तरह जैसे हमारे
गांवों में कहते हैं कि गंजे के सिर पर माटे की झोंझ मल दो तो उसके बाल उग आते
हैं। बाकी क्या लिखूं! 15 अक्टूबर बस कुछ ही दिन
दूर है। हो सकता है कि उसके बाद इस डायरी के पन्ने फिर से पहले जैसी तेज़ी से फड़फड़ाने
लगें। या कौन जानें! क्या पता!!
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