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मुसलमानी बिंदी के बिना ज़लील होगी जलील हिंदी

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जहां तक याद पड़ता है यह 1992-93 की बात है। तब मैं अमर उजाला कानपुर में दिल्ली से साल भर के लिए नौकरी करने गया था। दफ्तर में चपरासी से लेकर संपादकों तक में ब्राह्मण और उनमें भी त्रिपाठियों का बोलबाला था। वहां पानवाले चौरसिया जी हम सभी को संपादक ही कहकर बुलाते थे। पत्रकारिता के पेशे में पांव छूने का रिवाज़ भी वहीं मैने पहली बार देखा। वहीं पर किन्हीं त्रिपाठी जी ने मुझे ख़ास उर्दू शब्दों के नीचे लगाए जानेवाले नुक्ते को मुसलमानी बिंदी बताया था। शुरू से ही कंप्यूटर पर लिखने की आदत थी तो हम लोग अक्सर इस नुक्ते को फालतू की जहमत मानकर छोड़ दिया करते थे। बाद में 1999 से 2001 तक जर्मनी के कोलोन शहर में रेडियो डॉयचे वेले में काम करने गया तो कुछ सीनियर टाइप कमीने बुढ्ढों ने सही उच्चारण का भान कराया तो नुक्ते की अहमियत समझ में आई। यह भी कि जैसा बोलना है वैसा ही लिखा जाए। जैसे वॉशिंगटन को चूंकि वॉशिंग्टन बोला जाता है, इसलिए उसे वॉशिंग्टन ही लिखा जाए। फिर 2003-05 तक एनडीटीवी इंडिया से जुड़ा तो नुक्ते के बारे में असली टोकाटाकी पंकज पचौरी की तरफ से आई। वही पंकज पचौरी जो इस समय प्रधानमंत्री कार

फ्रेम तोड़कर सतह से निकलता चिट्ठा-समय

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वर्धा के पास सेवाग्राम में गांधी की कुटिया में खिड़की के फ्रेम से झांकती रौशनी हम माकूल वक्त का इंतज़ार करते रहते हैं और वक्त हाथ से सरकता जाता है। लेकिन यह सरकता वक्त कभी-कभी अनायास नहीं, सायास ऐसी चीजें ले आता है जो रुकी हुई गाड़ी को फिर से चला देतीं हैं। जी हां, सायास साझा प्रयास से चंद दिनों में ऐसी ही चीज़ आने जा रही है जो करीब चार साल से रुकी हुई हिंदी ब्लॉगिंग की गाड़ी को एक नई गति दे सकती है। तारीख मुकर्रर है। 15 अक्टूबर तक हिंदी ब्लॉगों का नया एग्रीगेटर, चिट्ठा-समय हमारे बीच उपस्थित होगा। यह पहले की तरह कोई व्यक्तिगत उपक्रम नहीं, बल्कि सांस्थानिक उपक्रम है। इसे शुरू कर रहा है वर्धा का महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदीविश्वविद्यालय । आप जानते ही होंगे कि यह एक केंद्रीय विश्वविद्यालय है और इसके पास संसाधनों की कोई कमी नही है। आप सोच रहे होंगे कि कोई सरकारी संस्थान नौकरशाही जकड़न से निकलकर ऐसी पहल कैसे कर सकता है। लेकिन हर संस्थान में व्यक्ति ही होते हैं जो किसी द्वीप पर नहीं, बल्कि इसी समाज के घात-प्रतिघात के बीच जीते हैं। इन व्यक्तियों की निजी ऊर्जा नई पहल की जननी बन जात

रणभेरी में राष्ट्रद्रोह की बारूद!

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इसे रेवाड़ी से उठी मोदी की रणभेरी बताया जा रहा है। लेकिन बीजेपी के प्रधानमंत्री उम्मीदवार घोषित किए जाने के दो दिन बाद ही नरेंद्र मोदी ने जिस तरह सेना को सरकार के खिलाफ भड़काया है, वैसी बातें कोई और कहता तो उसे राष्ट्रद्रोह मान लिया जाता। यह सच है कि मोदी पूर्व सैनिकों की रैली में बोल रहे थे। इसलिए सैनिकों के पक्ष में बोलना सहज और स्वाभाविक माना जा सकता है। लेकिन उन्होंने अपने भाषण में कई जगह वो लक्ष्मण रेखा पार की है, जहां सरकार की आलोचना सत्ताद्रोह नहीं, राष्ट्रद्रोह में तब्दील हो जाती है। अपने यहां सेना आज़ादी के छासठ साल बाद भी पूरी तरह अराजनीतिक रही है। यही वजह है कि भारत का हश्र कभी पाकिस्तान जैसा नहीं हो सकता। लेकिन मोदी ने रविवार को अपने भाषण में सेना के राजनीतिकरण की जघन्य कोशिश की है। इसके भीतर एक तानाशाह का एजेंडा छिपा हो सकता है जो प्रधानमंत्री बनने के बाद पार्टी और कार्यकर्ताओं की बदौलत नहीं, सेना की ताकत के बल पर ताकतवर होना चाहता है, राज करना चाहता है। अभी तक भारतीय सेना देश के आंतरिक मामलों में दखल करने से बचती रही है। लेकिन मोदी ने जिस तरह माओवादियों और आतंकवादि