झूठे इतिहास की घुट्टी का मिथ कब तक!
यह लेख हिमाचल के रहनेवाले राकेश कुमार का है। उनके फेसबुक एकाउंट पर मैंने इसे पढ़ा। इसे जितने तथ्यपरक ढंग से पेश किया गया है, उससे दिल खुश हो गया तो सोचा कि क्यों न इसे यहां लगा दिया जाए। यह लेख हमारे दिमाग में बचपन से ठूंस दिए गए एक मिथ को तोड़ता है।
कृपया निम्न तथ्यों को बहुत ही ध्यान से तथा मनन
करते हुए पढ़िए। एक, 1942 के भारत छोड़ो आन्दोलन को ब्रिटिश सरकार कुछ ही हफ्तों में कुचल कर रख देती है। दो, 1945 में ब्रिटेन
विश्वयुद्ध में विजयी देश के रुप में उभरता है। तीन, ब्रिटेन न केवल इम्फाल-कोहिमा
सीमा पर आजाद हिन्द फौज को पराजित करता है, बल्कि जापानी सेना को
बर्मा से भी निकाल बाहर करता है। चार, इतना ही नहीं, ब्रिटेन और भी आगे बढ़कर सिंगापुर तक को वापस अपने कब्जे में लेता है। पांच, जाहिर है कि इतना खून-पसीना ब्रिटेन भारत को आजाद करने के लिए तो नहीं ही बहा रहा था। यानी, उसका भारत से लेकर सिंगापुर तक अभी जमे रहने का इरादा था।
फिर 1945 से 1946 के बीच ऐसा कौन-सा चमत्कार हो गया कि ब्रिटेन ने हड़बड़ी में भारत छोड़ने का निर्णय ले लिया? हमारे शिक्षण संस्थानों में आधुनिक भारत
का जो इतिहास पढ़ाया जाता है, उसके पन्नों में
सम्भवतः इस प्रश्न का उत्तर नहीं मिलेगा। हम अपनी ओर से भी इसका उत्तर
जानने की कोशिश नहीं करते क्योंकि हम बचपन से ही सुनते आए हैं कि दे दी हमें
आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के सन्त तूने कर दिया कमाल। इससे आगे हम और कुछ जानना नहीं चाहते। [प्रसंगवश- 1922 में असहयोग आन्दोलन को जारी रखने पर जो आजादी मिलती, उसका पूरा श्रेय गांधीजी को जाता। मगर चौरी-चौरा में ‘हिंसा’ होते ही उन्होंने
अपना ‘अहिंसात्मक’ आन्दोलन वापस ले लिया, जबकि उस वक्त अंग्रेज
घुटने टेकने ही वाले थे!]
दरअसल गाँधीजी सिद्धान्त व व्यवहार में अन्तर नहीं रखने वाले ‘महापुरूष’ हैं, इसलिए उन्होंने यह फैसला लिया। हालाँकि एक
दूसरा रास्ता भी था कि गाँधीजी खुद अपने आप को इस आन्दोलन से अलग करते हुए इसकी कमान किसी और को सौंप देते। मगर यहां ‘अहिंसा का सिद्धान्त’ भारी पड़ जाता है देश
की आजादी पर।
यहां हम 1945-46 के घटनाक्रमों पर एक निगाह डालेंगे और उस ‘चमत्कार’ का पता लगाएंगे, जिसके कारण और भी सैकड़ों वर्षों तक भारत में जमे रहने की इच्छा रखने वाले अंग्रेजों को जल्दबाजी में फैसला बदलकर भारत से जाना पड़ा। [प्रसंगवश, जरा अंग्रेजों द्वारा भारत में बनाई गई इमारतों पर नजर डालें। दिल्ली के ‘संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के ‘सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने और इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है!]
लालकिले के कोर्ट-मार्शल के खिलाफ देश के नागरिकों ने जो उग्र प्रदर्शन किये, उससे साबित हो गया कि जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द सैनिकों के साथ है। इस पर भारतीय सेना के जवान दुविधा में पड़ जाते हैं। फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादुरी के साथ भारत माँ की आजादी के लिए लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर व बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो ‘महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए’ लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत है; और अगर देश की जनता सही है, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते।
सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रूप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रूप में फूटकर बाहर आने लगा। फरवरी 1946 में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है। कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर देते हैं। मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है, जिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है। यानि लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित करता ही है, सेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध ‘राजभक्ति’ की नींव को भी हिला कर रख देता है। जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह ‘राजभक्ति’ ही है!
यहां हम 1945-46 के घटनाक्रमों पर एक निगाह डालेंगे और उस ‘चमत्कार’ का पता लगाएंगे, जिसके कारण और भी सैकड़ों वर्षों तक भारत में जमे रहने की इच्छा रखने वाले अंग्रेजों को जल्दबाजी में फैसला बदलकर भारत से जाना पड़ा। [प्रसंगवश, जरा अंग्रेजों द्वारा भारत में बनाई गई इमारतों पर नजर डालें। दिल्ली के ‘संसद भवन’ से लेकर अण्डमान के ‘सेल्यूलर जेल’ तक- हर निर्माण 500 से 1000 वर्षों तक कायम रहने और इस्तेमाल में लाये जाने के काबिल है!]
लालकिले के कोर्ट-मार्शल के खिलाफ देश के नागरिकों ने जो उग्र प्रदर्शन किये, उससे साबित हो गया कि जनता की सहानुभूति आजाद हिन्द सैनिकों के साथ है। इस पर भारतीय सेना के जवान दुविधा में पड़ जाते हैं। फटी वर्दी पहने, आधा पेट भोजन किये, बुखार से तपते, बैलगाड़ियों में सामान ढोते और मामूली बन्दूक हाथों में लिये बहादुरी के साथ भारत माँ की आजादी के लिए लड़ने वाले आजाद हिन्द सैनिकों को हराकर व बन्दी बनाकर लाने वाले ये भारतीय जवान ही तो थे, जो ‘महान ब्रिटिश सम्राज्यवाद की रक्षा के लिए’ लड़ रहे थे! अगर ये जवान सही थे, तो देश की जनता गलत है; और अगर देश की जनता सही है, तो फिर ये जवान गलत थे! दोनों ही सही नहीं हो सकते।
सेना के भारतीय जवानों की इस दुविधा ने आत्मग्लानि का रूप लिया, फिर अपराधबोध का और फिर यह सब कुछ बगावत के लावे के रूप में फूटकर बाहर आने लगा। फरवरी 1946 में, जबकि लालकिले में मुकदमा चल ही रहा था, रॉयल इण्डियन नेवी की एक हड़ताल बगावत में रुपान्तरित हो जाती है। कराची से मुम्बई तक और विशाखापत्तनम से कोलकाता तक जलजहाजों को आग के हवाले कर दिया जाता है। देश भर में भारतीय जवान ब्रिटिश अधिकारियों के आदेशों को मानने से इनकार कर देते हैं। मद्रास और पुणे में तो खुली बगावत होती है। इसके बाद जबलपुर में बगावत होती है, जिसे दो हफ्तों में दबाया जा सका। 45 का कोर्ट-मार्शल करना पड़ता है। यानि लालकिले में चल रहा आजाद हिन्द सैनिकों का कोर्ट-मार्शल देश के सभी नागरिकों को तो उद्वेलित करता ही है, सेना के भारतीय जवानों की प्रसिद्ध ‘राजभक्ति’ की नींव को भी हिला कर रख देता है। जबकि भारत में ब्रिटिश राज की रीढ़ सेना की यह ‘राजभक्ति’ ही है!
बिल्कुल इसी चीज की कल्पना नेताजी ने की थी. जब (मार्च 1944 में) वे आजाद हिन्द सेना लेकर इम्फाल-कोहिमा सीमा पर पहुँचे थे। उनका आह्वान था- जैसे ही भारत की मुक्ति सेना भारत की सीमा पर पहुँचे, देश के अन्दर भारतीय
नागरिक आन्दोलित हो जाएं और ब्रिटिश सेना के भारतीय जवान
बगावत कर दें। इतना तो नेताजी भी जानते होंगे कि- 1. सिर्फ तीस-चालीस हजार
सैनिकों की एक सेना के बल पर दिल्ली तक नहीं
पहुँचा जा सकता, और 2. जापानी सेना की ‘पहली’ मंशा है- अमेरिका द्वारा बनवायी जा रही (असम तथा बर्मा के जंगलों से होते हुए चीन तक जानेवाली) ‘लीडो रोड’ को नष्ट करना; भारत की आजादी उसकी ‘दूसरी’ मंशा है। ऐसे में, नेताजी को अगर भरोसा था, तो भारत के अन्दर ‘नागरिकों के आन्दोलन’ एवं ‘सैनिकों की बगावत’ पर। मगर दुर्भाग्य कि उस वक्त देश में न आन्दोलन हुआ और न ही बगावत। इसके भी
कारण हैं।
पहला कारण, सरकार ने प्रेस पर पाबन्दी लगा दी थी और यह ठिंठोरा पीटा गया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण किया है। सो, सेना के ज्यादातर भारतीय जवानों की यही धारणा थी। दूसरा कारण, फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, अतः आम जनता के बीच इस बात का प्रचार नहीं हो सका कि इम्फाल-कोहिमा सीमा पर जापानी सैनिक नेताजी के नेतृत्व में युद्ध कर रहे हैं। तीसरा कारण, भारतीय जवानों का मनोबल बनाए रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नामी-गिरामी भारतीयों को सेना में कमीशन देना शुरू कर दिया था।
पहला कारण, सरकार ने प्रेस पर पाबन्दी लगा दी थी और यह ठिंठोरा पीटा गया था कि जापानियों ने भारत पर आक्रमण किया है। सो, सेना के ज्यादातर भारतीय जवानों की यही धारणा थी। दूसरा कारण, फॉरवर्ड ब्लॉक के कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार कर लिया गया था, अतः आम जनता के बीच इस बात का प्रचार नहीं हो सका कि इम्फाल-कोहिमा सीमा पर जापानी सैनिक नेताजी के नेतृत्व में युद्ध कर रहे हैं। तीसरा कारण, भारतीय जवानों का मनोबल बनाए रखने के लिए ब्रिटिश सरकार ने नामी-गिरामी भारतीयों को सेना में कमीशन देना शुरू कर दिया था।
इस क्रम में महान हिन्दी लेखक सच्चिदानन्द
हीरानन्द वात्सयायन 'अज्ञेय' भी 1943 से 46 तक सेना में रहे और
वे ब्रिटिश सेना की ओर से भारतीय जवानों का मनोबल बढ़ाने सीमा पर पहुंचे
थे। (ऐसे और भी भारतीय रहे होंगे।) चौथा कारण, भारत की प्रभावशाली राजनीतिक पार्टी कांग्रेस गाँधीजी की ‘अहिंसा’ के रास्ते आजादी पाने की हिमायती थी, उसने नेताजी के समर्थन में जनता को लेकर
कोई आन्दोलन शुरू नहीं किया। (ब्रिटिश सेना
में बगावत की तो खैर कांग्रेस पार्टी कल्पना ही
नहीं कर सकती थी!- ऐसी कल्पना नेताजी जैसे तेजस्वी नायक के बस की बात है।
...जबकि दुनिया जानती थी कि इन भारतीय जवानों की राजभक्ति के बल पर ही अंग्रेज न केवल भारत पर, बल्कि आधी दुनिया पर
राज कर रहे थे।
पांचवे कारण के रूप में प्रसंगवश यह भी जान लिया जाए कि भारत के दूसरे प्रभावशाली राजनीतिक दल भारत की कम्युनिस्ट पार्टी ने ब्रिटिश सरकार का साथ देते हुए आजाद हिन्द फौज को जापान की 'कठपुतली सेना' (पपेट आर्मी) घोषित कर रखा था। नेताजी के लिए भी अशोभनीय शब्दों और कार्टून का इस्तेमाल उन्होंने किया था।
खैर, जो आन्दोलन व बगावत 1944 में नहीं हुआ, वह डेढ़-दो साल बाद होता है और लन्दन में
राजमुकुट यह महसूस करता है कि भारतीय सैनिकों की जिस राजभक्ति के बल पर वे आधी दुनिया पर राज कर रहे हैं, उस राजभक्ति का क्षरण शुरू हो गया है... और अब भारत से अँग्रेजों के निकल आने में ही
भलाई है। वरना, जिस प्रकार शाही भारतीय नौसेना के सैनिकों ने
बन्दरगाहों पर खड़े जहाजों में आग लगाई है, उससे तो अँग्रेजों का भारत से सकुशल निकल पाना ही एक दिन असम्भव हो जाएगा... और भारत में रह रहे सारे अंग्रेज एक दिन मौत के घाट उतार दिए जाएंगे।
लन्दन में ‘सत्ता-हस्तांतरण’ की योजना बनती है।
भारत को तीन भौगोलिक और दो धार्मिक हिस्सों में बाँटकर
इसे सदा के लिए शारीरिक-मानसिक रूप से अपाहिज बनाने की कुटिल चाल चली जाती
है। और भी बहुत-सी शर्तें अंग्रेज जाते-जाते भारतीयों पर लादना चाहते हैं।
(ऐसी ही एक शर्त के अनुसार रेलवे का एक कर्मचारी आज तक वेतन ले रहा है, जबकि उसका पोता
पेन्शन पाता है!) इनके लिए जरूरी है कि सामने वाले पक्ष को भावनात्मक
रूप से कमजोर बनाया जाए। लेडी एडविना माउण्टबेटन के चरित्र
को देखते हुए बर्मा के गवर्नर लॉर्ड माउण्टबेटन को भारत का अन्तिम
वायसराय बनाने का निर्णय लिया जाता है- लॉर्ड वावेल के स्थान पर।
एटली की यह चाल काम कर जाती है। विधुर नेहरूजी को लेडी एडविना अपने प्रेमपाश में बाँधने में सफल रहती हैं और लॉर्ड माउण्टबेटन के लिए उनसे शर्तें मनवाना आसान हो जाता है! (लेखकद्वय लैरी कॉलिन्स और डोमेनिक लेपियरे द्वारा भारत की आजादी पर रचित प्रसिद्ध पुस्तक ‘फ्रीडम एट मिडनाइट’ में एटली की इस चाल
को रेखांकित किया गया है।)
बचपन से ही हमारे दिमाग में यह धारणा बैठा दी
गयी है कि गाँधीजी की अहिंसात्मक नीतियों से हमें आजादी मिली है। इस धारणा को पोंछकर दूसरी धारणा दिमाग में बैठाना कि ‘नेताजी और आजाद हिन्द
फौज की सैन्य गतिविधियों के कारण’ हमें आजादी मिली- जरा मुश्किल काम है।
अतः नीचे खुद अँग्रेजों के ही नजरिये पर आधारित कुछ उदाहरण प्रस्तुत किये
जा रहे हैं, जिन्हें याद रखने पर शायद नयी धारणा को दिमाग में बैठाने में मदद मिले।
सबसे पहले, माइकल एडवर्ड के शब्दों में ब्रिटिश राज के अन्तिम दिनों का आकलन: “भारत सरकार ने आजाद
हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चलाकर भारतीय सेना के मनोबल को
मजबूत बनाने की आशा की थी। इसने उल्टे अशांति पैदा कर
दी- जवानों के मन में कुछ-कुछ शर्मिन्दगी पैदा होने लगी कि उन्होंने
ब्रिटिश का साथ दिया। अगर बोस और उनके आदमी सही थे- जैसा कि सारे देश ने माना कि
वे सही थे भी- तो भारतीय सेना के भारतीय जरूर गलत थे। भारत सरकार को
धीरे-धीरे यह दीखने लगा कि ब्रिटिश राज की रीढ़- भारतीय सेना- अब भरोसे के
लायक नहीं रही। सुभाष बोस का भूत, हैमलेट के पिता की तरह, लालकिले (जहाँ आजाद
हिन्द सैनिकों पर मुकदमा चला) के कंगूरों पर चलने-फिरने लगा, और उनकी अचानक विराट
बन गयी छवि ने उन बैठकों को बुरी तरह भयाक्रान्त कर दिया, जिनसे आजादी का
रास्ता प्रशस्त होना था।”
अब देखें कि ब्रिटिश संसद में जब विपक्षी सदस्य
प्रश्न पूछते हैं कि ब्रिटेन भारत को क्यों छोड़ रहा है, तब प्रधानमंत्री एटली
क्या जवाब देते हैं। प्रधानमंत्री एटली का जवाब दो बिन्दुओं
में आता है कि आखिर क्यों ब्रिटेन भारत को छोड़ रहा है-
1. भारतीय मर्सिनरी (पैसों के बदले काम करने वाली- पेशेवर) सेना ब्रिटिश
राजमुकुट के प्रति वफादार नहीं रही, और 2. इंग्लैण्ड इस स्थिति में नहीं है कि वह अपनी (खुद की) सेना को इतने बड़े पैमाने पर संगठित एवं सुसज्जित कर सके कि वह भारत पर नियंत्रण रख सके।
यही लॉर्ड एटली 1956 में जब भारत यात्रा पर आते हैं, तब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं। कोलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं। वे लिखते हैं: “... उनसे मेरी उन वास्तविक बिन्दुओं पर लम्बी बातचीत होती है, जिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो” आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और 1947 में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थी, जो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करे, फिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ा? उत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैं, जिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण। वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहा? यह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोले, न्यू-न-त-म!” [श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया है, जो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था]
यही लॉर्ड एटली 1956 में जब भारत यात्रा पर आते हैं, तब वे पश्चिम बंगाल के राज्यपाल निवास में दो दिनों के लिए ठहरते हैं। कोलकाता हाईकोर्ट के मुख्य न्यायाधीश चीफ जस्टिस पी.बी. चक्रवर्ती कार्यवाहक राज्यपाल हैं। वे लिखते हैं: “... उनसे मेरी उन वास्तविक बिन्दुओं पर लम्बी बातचीत होती है, जिनके चलते अँग्रेजों को भारत छोड़ना पड़ा। मेरा उनसे सीधा प्रश्न था कि गाँधीजी का "भारत छोड़ो” आन्दोलन कुछ समय पहले ही दबा दिया गया था और 1947 में ऐसी कोई मजबूर करने वाली स्थिति पैदा नहीं हुई थी, जो अँग्रेजों को जल्दीबाजी में भारत छोड़ने को विवश करे, फिर उन्हें क्यों (भारत) छोड़ना पड़ा? उत्तर में एटली कई कारण गिनाते हैं, जिनमें प्रमुख है नेताजी की सैन्य गतिविधियों के परिणामस्वरुप भारतीय थलसेना एवं जलसेना के सैनिकों में आया ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में क्षरण। वार्तालाप के अन्त में मैंने एटली से पूछा कि अँग्रेजों के भारत छोड़ने के निर्णय के पीछे गाँधीजी का कहाँ तक प्रभाव रहा? यह प्रश्न सुनकर एटली के होंठ हिकारत भरी मुस्कान से संकुचित हो गये जब वे धीरे से इन शब्दों को चबाते हुए बोले, न्यू-न-त-म!” [श्री चक्रवर्ती ने इस बातचीत का जिक्र उस पत्र में किया है, जो उन्होंने आर.सी. मजूमदार की पुस्तक ‘हिस्ट्री ऑफ बेंगाल’ के प्रकाशक को लिखा था]
निष्कर्ष के रूप में यह कहा जा सकता है कि 1. अंग्रेजों के भारत
छोड़ने के हालांकि कई कारण थे, मगर प्रमुख कारण यह
था कि भारतीय थलसेना व जलसेना के सैनिकों के मन में
ब्रिटिश राजमुकुट के प्रति राजभक्ति में कमी आ गयी थी और बिना राजभक्त
भारतीय सैनिकों के सिर्फ अंग्रेज सैनिकों के बल पर सारे भारत को
नियंत्रित करना ब्रिटेन के लिए सम्भव नहीं था। 2. सैनिकों के मन में राजभक्ति में जो कमी आयी थी, उसके कारण थे नेताजी
का सैन्य अभियान, लालकिले में चला आजाद हिन्द सैनिकों पर
मुकदमा और इन सैनिकों के प्रति भारतीय जनता की
सहानुभूति। 3. अँग्रेजों के भारत छोड़कर जाने के पीछे गांधीजी या कांग्रेस की अहिंसात्मक नीतियों का योगदान नहीं के बराबर रहा। सो, अगली बार आप भी ‘दे दी हमें आजादी ...’ वाला गीत गाने से
पहले जरा पुनर्विचार कर लीजिएगा।
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