Tuesday 4 October, 2011

इनफोसिस के मूर्ति दुखी हैं अंग्रेजी को दबाने से

आज के जमाने में सारा खेल धंधे और स्वार्थों का है। किसी को देव मानकर चलना खतरे से खाली नहीं। नहीं तो क्या तुक है कि इनफोसिस के जिस संस्थापक एन आर नारायण मूर्ति को आम भारतीय दंद-फंद से मुक्त और प्रोफेशनल दक्षता के दम पर खड़े नए कॉरपोरेट नेता के रूप में देखता है, वही मूर्ति देश में अंग्रेजी को दबाए जाने से दुखी हैं। उनका कहना है कि राजनेता लोग अंग्रेजी के पीछे पड़ गए हैं।

उन्होंने रविवार को न्यूयॉर्क में आईआईटी से निकले पुराने छात्रों के एक जमावड़े को संबोधित करते हुए कहा कि आईआईटी के छात्रों में अंग्रेजी बोलने की काबिलियत और सामाजिकता का कौशल घटता जा रहा है, जबकि उनके शब्दों में, “आईआईटी के छात्र को ग्लोबल नागरिक होना चाहिए और उसे समझना चाहिए कि दुनिया किधर जा रही है।”

बात एकदम सही है। आज के जमाने में ग्लोबल नागरिक होना जरूरी है। लेकिन सवाल उठता है कि क्या अपनी जमीन को पकड़ने से कोई ग्लोबल होने से रुक जाता है? क्या कोई अपनी भाषा जानने से अंग्रेजी में कमजोर हो जाता है? वैज्ञानिक अध्ययन तो यही बताते कि पराई भाषा में वही दक्ष होता है जो पहले अपनी मातृभाषा में दक्ष होता है। किसी भी इंसान की सृजनात्मकता उसकी अपनी भाषा के माध्यम से ही सबसे बेहतर तरीके से उद्घाटित की जा सकती है।

ऐसा नहीं हो सकता कि नारायण मूर्ति इस बात से वाकिफ न हों। लेकिन उनके धंधे का स्वार्थ यही कहता है कि विदेशी ग्राहकों की सेवा के लिए ज्यादातर आईआईटी वाले फन्नेखां अंग्रेजी बोलें। मूर्ति ने न्यूयॉर्क में इस बात भी दुख व्यक्त किया कि 80 फीसदी आईआईटी छात्र अब स्तरीय नहीं रह गए हैं। इसकी तोहमत उन्होंने बढ़ते कोचिंग क्लासों पर मढ़ दी। उन्होंने कहा कि 80 फीसदी बच्चे कोचिंग क्लासों के दम पर आईआईटी में घुस लेते हैं। बाकी खुद अपनी मेहनत से आईआईटी में घुसनेवाले 20 फीसदी छात्र ही दुनिया में सर्वश्रेष्ठ होते हैं।

तथ्य यह है कि औसत परिवारों के बच्चे कोचिंग क्लासों के सहयोग से ही संयुक्त प्रवेश परीक्षा (जेईई) पास कर पाते हैं। अगर ये न रहें तो उनके पास न तो वैसा परिवेश होता है और न ही वैसी सुविधा। लेकिन मूर्ति का कहना है कि ऐसे बच्चे जैसे-तैसे आईआईटी में घुस तो जाते हैं, लेकिन इंजीनियरिंग की पढ़ाई से लेकर नौकरियों तक में उनका कामकाज उतना अच्छा नहीं होता। शायद यह सच हो। लेकिन इसकी वजह छात्रों के बजाय आईआईटी की फैकल्टी यानी वहां के अध्यापकों के स्तर में ढूढी जानी चाहिए जिसकी तरफ हाल ही में हमारे मानव संसाधन मंत्री कपिल सिब्बल भी इशारा कर चुके हैं। हमें तो यही लगता है कि इनफोसिस के मूर्ति महोदय जो बोल रहे हैं, उसमें निष्पक्ष सच्चाई कम और उनके अंदर भरा ब्राह्मणवाद ज्यादा बोल रहा है।

10 comments:

प्रवीण पाण्डेय said...

पता नहीं पर चयन प्रक्रिया कितनी ठीक है।

विवेक रस्तोगी said...

दौर जिस तेजी से बदल रहा है उस तेजी से सब कुछ बदलना पड़ेगा।

स्वप्नदर्शी said...

भाषा को लेकर कुछ उथल-पुथल मेरे मन में भी चल रही थी. परायी भाषा में कोई भी सर्विस तो प्रोवाईड सकता है, पैसे भी कमा सकता है. परन्तु मौलिक काम नही कर सकता, उसके लिए कुछ अपनी भाषा, अपने परिवेश के लिए सम्मान का होना ज़रूरी है. इसीलिए ६० सालों के IIT के और इतने ही दुसरे तकनीकी संस्थानों ne रिसर्च में कोई मौलिक योगदान नही दिया है? दुनिया में हम सिर्फ फोलोवर्स है. दुनिया में अमरीकी और ब्रिटिश लोगों के बाद सबसे अच्छी अंग्रेजी हम ही लोग बोलते है. यहां भी नज़र डालें

http://swapandarshi.blogspot.com/2011/09/blog-post.html

चंदन कुमार मिश्र said...

बहुत लम्बे समय लिखा है आपने… नारायण मूर्ति की बात बताती है कि रंगा सियार कब तक असलियत छुपा सकता है…

महेन्द्र श्रीवास्तव said...

समय से साथ खुद को नहीं बदला तो पीछे रह जाएंगे

Anonymous said...

आप का यह मानना क्यों है कि नारायण मूर्ति ने कहा कि अपनी भाषा मत जानो सिर्फ अंग्रेजी जानो. उन्होंने ऐसा बिलकुल नहीं कहा. उन्होंने केवल इतना कहा कि IIT के छात्र अंग्रेजी ठीक से नहीं बोल पाते हैं और इस लिए वे दुनिया कहाँ जा रही है वोह समझ नहीं पाते. आप इस प्रकार बात का बतंगड़ ना बनाए तो बेहतर है

फकीरा said...

कोई फर्क नहीं पड़ता नारायण राम मूर्ति क्या कहता है
फर्क पड़ता है क्या इतने पर आई आई टी के छात्र संभलेंगे

Rahul said...

Gam ki har aandhiyo se gujar jaenge, sagr k lahro me hm utr jayenge, hme maut k liye zeher ki jarurat nHi mere dost, bus dil se nikaldo yuhi mar jayenge.

Dr. Zakir Ali Rajnish said...

क्या कहा जाए...
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’की—बोर्ड वाली औरतें!’
’प्राचीन बनाम आधुनिक बाल कहानी।’

Anonymous said...

वैसे उनकी कम्पनी मे कोई आईआईटी वाला गलती से भी शायद ही जाता हो.