समाज को प्रभुतासंपन्न बनाने की कोशिश है अर्थकाम
अर्थकाम हिंदी समाज का प्रतिनिधित्व करता है। यह 42 करोड़ से ज्यादा की आबादी वाले उस समाज को असहाय स्थिति से निकालकर प्रभुतासंपन्न बनाने का प्रयास है जो घोड़ा बना है लेकिन जिसका घुड़सवार कोई और है। इसका अधिकांश हिस्सा ग्राहक है, उपभोक्ता है, लेकिन वह क्या उपभोग करेगा, इसे कोई और तय करता है। वह अन्नदाता है किसान के रूप में, वह निर्यातक है सप्लायर है छोटी-छोटी औद्योगिक इकाइयों (एमएसएमई) के रूप में, लेकिन वह कितना और कौन-सा अनाज पैदा करेगा, कौन-सा माल किसको सप्लाई करेगा, इसे कोई और तय करता है। इसका बड़ा हिस्सा नौकरी-चाकरी करता है, मालिक-मुख्तार नहीं है। वह कमाई करता है, वर्तमान से, भविष्य की अनहोनी से डरकर पैसे भी बचाता है। वह कभी-कभी इतना जोखिम भी उठा लेता है कि लॉटरी खेलता है। शेयर बाजार में सट्टेबाजी का मौका मिले तो डे-ट्रेडर भी बन जाता है। निवेश करता है, लेकिन हमेशा टिप्स के जुगाड़ में रहता है। जानता नहीं कि देश का वित्तीय बाजार उसे सुरक्षित निवेश के मौके भी देता है। जानता नहीं कि देश का वित्तीय बाजार किसी के बाप की बपौती नहीं है।
अभी भले ही यह सच हो कि अंग्रेजी में बोलने-सोचने वाले पांच-दस करोड़ लोग ही उद्योग-व्यापार, बाजार और कॉरपोरेट दुनिया की बागडोर संभाले हुए हैं। लेकिन यह एक औपनिवेशिक तलछट है जो बाजार व लोकतांत्रिक चाहतों के विस्तार के साथ एक दिन बहुरंगी, देशज भारतीयता में समाहित हो जाएगी। अर्थकाम इस प्रक्रिया को तेज करने का माध्यम है। यह वित्तीय साक्षरता के जरिए जहां देश में वित्तीय बाजार की पहुंच को बढ़ाएगा, वहीं महज उपभोक्ता, अन्नदाता, कच्चे माल व पुर्जों के निर्माता की अभिशप्त स्थिति से निकालकर हिंदी समाज को उद्यशीलता के आत्मविश्वास से भरने की कोशिश भी करेगा। हम भारतीय व्यापार व उद्योग के पारंपरिक ज्ञान की कड़ी को आधुनिक आर्थिक व वित्तीय पद्धतियों से जोडेंगे।
हमें यकीन है कि हिंदी समाज में वो सामर्थ्य है, यहां ऐसे लोग हैं जो अंदर-ही-अंदर विराट सपनों को संजोए हुए हैं, लेकिन मौका व मंच न मिल पाने के कारण कहीं किसी कोने में दुबके पड़े हैं। उन्हें किसी मौके व मंच का इंतजार है। यकीनन हिंदी समाज के खंडित आत्मविश्वास को लौटाना, यहां घर कर चुकी परम संतोषी पलायनवादी मानसिकता को तोड़ना, जनमानस में छाए दार्शनिक खोखलेपन को नए सिरे से भरना, उसे हर तरह के ज्ञान से लबरेज करना पहाड़ को ठेलने जैसा मुश्किल काम है। लेकिन हमारा इतिहास बताता है कि हम हमेशा ऐसे संधिकाल से, संक्रमण के ऐसे दौर से विजयी होकर निकले हैं। आजादी की 75वीं सालगिरह यानी 2022 तक अगर भारत को दुनिया की प्रमुख ताकत बनना है तो हिंदी ही नहीं, तमिल, तेलगु, मलयाली, मराठी, गुजराती से लेकर हर क्षेत्रीय समाज को कम से कम ज्ञान व सूचनाओं के मामले में प्रभुतासंपन्न बनाना होगा। नहीं तो तमाम बड़े-बड़े राष्ट्रीय ख्बाव महज सब्जबाग बनकर रह जाएंगे।
नोट: 1 अप्रैल 2010 से शुरू हो रहा है अर्थकाम, तैयारियां जोरों पर हैं।
अभी भले ही यह सच हो कि अंग्रेजी में बोलने-सोचने वाले पांच-दस करोड़ लोग ही उद्योग-व्यापार, बाजार और कॉरपोरेट दुनिया की बागडोर संभाले हुए हैं। लेकिन यह एक औपनिवेशिक तलछट है जो बाजार व लोकतांत्रिक चाहतों के विस्तार के साथ एक दिन बहुरंगी, देशज भारतीयता में समाहित हो जाएगी। अर्थकाम इस प्रक्रिया को तेज करने का माध्यम है। यह वित्तीय साक्षरता के जरिए जहां देश में वित्तीय बाजार की पहुंच को बढ़ाएगा, वहीं महज उपभोक्ता, अन्नदाता, कच्चे माल व पुर्जों के निर्माता की अभिशप्त स्थिति से निकालकर हिंदी समाज को उद्यशीलता के आत्मविश्वास से भरने की कोशिश भी करेगा। हम भारतीय व्यापार व उद्योग के पारंपरिक ज्ञान की कड़ी को आधुनिक आर्थिक व वित्तीय पद्धतियों से जोडेंगे।
हमें यकीन है कि हिंदी समाज में वो सामर्थ्य है, यहां ऐसे लोग हैं जो अंदर-ही-अंदर विराट सपनों को संजोए हुए हैं, लेकिन मौका व मंच न मिल पाने के कारण कहीं किसी कोने में दुबके पड़े हैं। उन्हें किसी मौके व मंच का इंतजार है। यकीनन हिंदी समाज के खंडित आत्मविश्वास को लौटाना, यहां घर कर चुकी परम संतोषी पलायनवादी मानसिकता को तोड़ना, जनमानस में छाए दार्शनिक खोखलेपन को नए सिरे से भरना, उसे हर तरह के ज्ञान से लबरेज करना पहाड़ को ठेलने जैसा मुश्किल काम है। लेकिन हमारा इतिहास बताता है कि हम हमेशा ऐसे संधिकाल से, संक्रमण के ऐसे दौर से विजयी होकर निकले हैं। आजादी की 75वीं सालगिरह यानी 2022 तक अगर भारत को दुनिया की प्रमुख ताकत बनना है तो हिंदी ही नहीं, तमिल, तेलगु, मलयाली, मराठी, गुजराती से लेकर हर क्षेत्रीय समाज को कम से कम ज्ञान व सूचनाओं के मामले में प्रभुतासंपन्न बनाना होगा। नहीं तो तमाम बड़े-बड़े राष्ट्रीय ख्बाव महज सब्जबाग बनकर रह जाएंगे।
नोट: 1 अप्रैल 2010 से शुरू हो रहा है अर्थकाम, तैयारियां जोरों पर हैं।
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