क्या हिंदी एक मरती हुई भाषा है?

करीब दो महीने हो गए। जानेमाने आर्थिक अखबार इकोनॉमिक टाइम्स के संपादकीय पेज पर 19 नवंबर को टी के अरुण ने एक लेख लिखा था जिसका शीर्षक था - Hindi an endangered language? इसके प्रमुख अंश मैं पेश कर रहा हूं ताकि हम सभी इन मुद्दों पर सार्थक रूप से सोच सकें। जब हिंदी के प्रखर अनुभवी पत्रकार व संपापक राहुल देव जैसे लोग भारतीय भाषाओं के विनाश पर चिंता जता रहे हों तब समझना ज़रूरी है कि अंग्रेज़ी के शीर्ष पत्रकार हिंदी के भविष्य को लेकर क्या सोचते हैं। इसलिए जरा गौर से देखिए कि अरुण जी की सोच में कितना तथ्य और कितना सच है।

उन्होंने पहले कुछ तथ्य पेश किए हैं। जैसे, हिंदी अपेक्षाकृत नई और कृत्रिम भाषा है। झांसी की रानी लक्ष्मीबाई ने डलहौजी को हिंदी में नहीं, फारसी में पत्र लिखा था। इसके दो सदी बाद जवाहरलाल नेहरू ने अपनी बेटी को फारसी से मिलती-जुलती अंग्रेजी भाषा में पत्र लिखे, हिंदी में नहीं। आज हिंदी राज्यों में हिंदी कवियों से लेकर उनके घरों की नौकरानियां तक हर कोई अपने बच्चों को अग्रेजी सिखाना चाहता है। हर तरफ अंग्रेजी माध्यम के स्कूल देर से आए मानसून के बाद खर-पतवार को तरह उगते जा रहे हैं। लेखक ने लखनऊ के प्रकाशक के हवाले यह भी बताया है कि हिंदी कविताओं की किसी किताब का प्रिंट ऑर्डर महज 500 के आसपास रहता है। जिस हिंदी भाषा को बोलनेवालों की संख्या के 42.2 करोड़ से ज्यादा होने का दावा किया जाता है, उसके लिए यह संख्या बड़ी नहीं है।

आगे अरुण जी ने बताते हैं कि हिंदी के साथ समस्या यह भी है कि भोजपुरी और मैथिली जैसी उसकी तथाकथित बोलियां धीरे-धीरे अपना दावा जताने लगी हैं। भोजपुरी और मैथिली बोलनेवाले अपनी मातृभाषा को हिंदी की बोली मानने को तैयार नहीं हैं। भोजपुरी फिल्मों की लोकप्रियता इस हकीकत को रेखांकित करती है। संविधान के आठवें अनुच्छेद में दर्ज 22 भाषाओं में मैथिली को पहले से ही अलग भाषा के रूप में मान्यता मिली हुई है। हिंदी की बोलियां कही जानेवाली तमाम दूसरी भाषाएं समय के साथ अपनी स्वतंत्र अस्मिता का दावा कर सकती हैं और हिंदी की छतरी से बाहर निकल सकती हैं। तब हिंदी के पास आखिर क्या बचेगा?

वे बताते हैं कि सच्चाई यह है कि आकाशवाणी टाइप की उस हिंदी के बचे रहने की संभावना बेहद कम है जो समूचे उत्तर भारत में व्यापक तौर पर बोली जानेवाली फारसी मूल की हिंदुस्तानी के शब्दों की जगह सचेत रूप से संस्कृत शब्द ठूंसती है। भाषाएं किसी स्टूडियो में नहीं, बल्कि गलियों-मोहल्लों में विकसित होती हैं। आकाशवाणी टाइप की हिंदी संस्कृत की तरह बहुत ही सिकुड़े आभिजात्य की भाषा है और वह अवाम की भाषा नहीं बन सकती। संस्कृत का मतलब परिष्कृत होना है और परिष्कृत जुबान केवल आभिजात्य द्वारा ही बोली जा सकती है। संस्कृत के नाटकों में यह कोई असाधारण-सी बात नहीं है कि महिलाएं और छोटे-मोटे चरित्र अवाम की अपरिष्कृत जुबान प्राकृत बोलते हैं, जबकि मुख्य चरित्र देवभाषा में बात करते हैं। बुद्ध को अपनी बात व्यापक लोगों तक पहुंचानी थी तो उन्होंने संस्कृत को त्यागकर स्थानीय भाषाओं को अपनाया।

अगर साहित्यिक हिंदी को स्वीकार करनेवाले लोग कम हैं और हिंदी फिल्मों के पोस्टर तक हिंदी में नहीं लिखे जाते हैं तो हिंदी का क्या भविष्य हैं? उसकी क्या गति होनी है? यह सबको संमाहित करनेवाले विकास और ग्लोबीकरण पर निर्भर है। किसी भाषा का अवरुद्ध विकास उस समाज के अवरुद्ध विकास को दर्शाता है जो उसे बोलता है। यह कोई संयोग नहीं है कि बीमारू शब्द देश के सबसे पिछड़े राज्यों के लिए इस्तेमाल किया गया और ये राज्य हिंदी भाषाभाषी राज्य हैं।

जब कोई छोटा-सा आभिजात्य आधुनिकता अपनाता है, तो वह आधुनिकता की भाषा को अंगीकार करता है और अपनी मातृभाषा को छोड़ देता है। यही हिंदी के साथ हुआ है। जब कोई पूरा समाज नई जीवन पद्धति को अपनाता है तो उसकी भाषा विकसित होती है। इसीलिए आर्थिक बदलाव हिंदी के लिए बहुत अहमियत रखता है। जब इन इलाकों में संरचनागत तब्दीलियां होंगी, लोग गैर-पारंपरिक पेशों को अपनाएंगे तो जाति के रिश्ते बदलेंगे, सामाजिक सत्ता का वितरण बदलेगा और भाषा बदलेगी क्योंकि लोग अपनी जिंदगी के कारोबार के लिए नए शब्द गढ़ेंगे। इसमें कुछ शब्द अग्रेजी से भी उधार लिए जाएंगे और ऐसा होने में कुछ गलत भी नहीं है। इसी प्रक्रिया में लोग नई भाषा रचेंगे और वही नई हिंदी होगी। लेकिन ऐसा बड़े पैमाने पर होने के लिए जरूरी है कि व्यापक अवाम को विकास की प्रक्रिया में शामिल किया जाए। और, ऐसा हिंदी इलाकों में बुनियादी राजनीतिक सशक्तीकरण और प्रशासनिक सुधारों के बगैर संभव नहीं है। समावेशी विकास का संघर्ष, माओवाद के खिलाफ लड़ाई और हिंदी के लिए लड़ाई काफी हद तक एक ही लक्ष्य को हासिल करने के रास्ते हैं।

इस लेख को पढ़ने के बाद गेंद हम हिंदी भाषाभाषी लोगों के पाले में है। मूल सवाल भाषा के इस सवाल में छिपी राजनीति और अर्थनीति का है। कैसे? आप बताइये। मैं तो फुरसत पाते ही लिखूंगा ही।

Comments

आपका यह लेख विचारणीय है, यद्यपि मैं इस बात से सहमत हूँ कि कोई भी भाषा तभी तक जिंदा रहती है, जब वह आवाम की आवाज बनी रहती है । लेकिन आज हमारा मीडिया जिस हिंदी को परोस कर यह अपेक्षा करता है कि वह हिंदी को समृद्ध कर रहा है, सही होगा । नहीं , आज से कुछ वर्ष पहले तक हिंदी या दूसरी भाषाओं के जिन शब्दों को सभ्य समाज में बोलने पर झगड़े की नौबत आ सकती थी, उन्ही टप्पोरी शबदों को मिडीया ने उछाल-उछाल कर प्रचलित कर दिया और वे शब्द अब गाली जैसे नहीं लगते । क्या यही हिंदी को हमारा मीडिया दे रहा है ???
Anonymous said…
हिंदी जल्द ही मर जाएगी, बस दो पीढियां और. क्योंकि अभी जिन्दी का जो रूप प्रचलित है --हिंगलिश -- उसे मौज मस्ती के सिवा किसी और चीज़ में इस्तेमाल नहीं किया जा सकता. अब न तो व्यापर में हिंदी इस्तेमाल होती है न शिक्षा में न तकनीक में न दर्शन में. हिंगलिश में दम नहीं की वह शुद्ध हिंदी की तरह शिक्षा संस्कृति की भाषा बन सके, उसका उपयोग अति सीमित है. यानि अंग्रेजी के लिए रास्ता साफ़ कर हिंदी मर ही चुकी है, बस लाश ठिकाने लगाना बाकी है. उम्मीद है वह भी जल्द ही.......
आपका यह पोस्ट अधकचरी जानकारी का घुलामिला पोस्ट है। इसमें मुख्य ध्येय सुसंस्कृत हिन्दी को गाली देना है। आपको कहाँ पता है कि सुसंस्कृत हिन्दी को देश का असमिया, बंगाली, मराठी, गुजराती, कन्नड-भाषी, मलयाली, काश्मीरी, पंजाबी, तेलुगू और यहाँ तक कि तमिल और सिंहल भी अच्छी तरह समझ पाते हैं।

दूसरी गलत और अर्ध-सत्य को दबी जुबान से आपने लिखने की कोशिश की है वह है कि बुद्ध ने संस्कृत के बजाय पालि का प्रयोग किया। क्या आपको पता है कि बौद्ध साहित्य के कुल ग्रन्थों का कितना अंश संस्कृत में है?

तीसरी बात, दुनिया के किस भाषा के नाटकों में सभी पात्रों की भाषा-शैली समान होती है? यदि होती है तो क्या वह स्वाभाविक स्थिति को अभिव्यक्त कर रही होती है?
अनुनाद जी, अभी तो मुझे अपनी बात लिखनी बाकी है। ये सारे के सारे टी के अरुण के विचार हैं। आप भी हड़बड़ी में गड़बड़ी कर देते हैं। मेरा लक्ष्य तो यह है कि हमारा हिंदी समाज इस मसले पर क्या सोच रहा है ताकि मेरी सोच भी समृद्ध हो सके। और, फिर उसमें मैं भी कोई योगदान कर सकूं। एक बार फिर साफ कर दूं कि इस पोस्ट में लिखे गए विचार मेरे नहीं हैं।
मैं अंग्रेजी लेखक से सहमत नहीं हूँ.
Unknown said…
कई सौ वर्षों तक मुगलों की गुलामी करने के कारण झाँसी की रानी के काल में देश की भाषा अरबी-फारसी थी। इसीलिये झाँसी की रानी का पत्र उसी भाषा में था। नेहरू ने हमेशा ही हिन्दी के स्थान पर विदेशी भाषाओं विशेषकर अंग्रेजी को प्राथमिकता दिया क्योंकि उनकी शिक्षा ही अंग्रेजी में हुई थी और भारत का होने के बावजूद भी उन्हें भारतीय संस्कार नहीं मिला था। यही कारण है अपनी बेटी को हिन्दी में पत्र नहीं लिखने का।

हिन्दी मर नहीं सकती। इतनी कम उम्र में भी जिस भाषा का स्थान संसार में दूसरा हो और जिसे संसार 56 करोड़ लोगों ने अपनाया है वह भाषा भला मर कैसे सकती है? हाँ आज की हमारी शिक्षानीति, हमारी मीडिया आदि हिन्दी को मारने का जी जान से प्रयास कर रही हैं किन्तु वे कभी भी अपने प्रयास में सफल नहीं हो पायेंगे।

हिन्दी की देवनागरी लिपि में जो विशिष्टता है वह संसार के किसी भी लिपि में नहीं है। इसी विशिष्टता के कारण हिन्दी में जैसा बोला जाता है वैसा ही लिखा भी जाता है और इसके विपरीत जैसा लिखा जाता है वैसा ही बोला भी जाता है। यह विशिष्टता एक दिन हिन्दी को संसार की सर्वश्रेष्ठ भाषा बना देगी। कम्प्यूटर की भाषा बनने के लिये हिन्दी ही सर्वथा उपयुक्त है और एक दिन यह कम्प्यूटर की भाषा बनकर दिखायेगी।
shikha varshney said…
जब तक एक भी भारतीय हिंदी बोलने ,लिखने में गर्व महसूस करता है .....हिंदी नहीं मर सकती.
कक्षा में जब इस सवाल से दो चार होते हैं तो यह जानने का कि भाषा संकटग्रस्त है या नहीं, लिटमस टेस्‍ट ये बताते हैं कि जब किसी समाज में पिता से बात करने की भाषा, पुत्र से बात करने की भाषा से अलग हो जाए तो समझो कि जिस भाषा में पिता से बात की जा रही है लेकिन पुत्र से नहीं वो भाषा मर जाएगी, आज नहीं तो एक पीढ़ी बाद। बिला शक हिन्‍दी इस स्थिति में नहीं है...
टीके अरुण के विश्‍लेषण का सबसे बड़ा दोष यह है कि वे अंग्रेजी के संदर्भ (तथा सापेक्ष) वर्तमान हिन्‍दी को परख रहे हैं जबकि हिन्‍दी की परख या तो उसके कालिक परिप्रेक्ष्‍य यानि पहले हिन्‍दी की स्थिति बनाम आज हिन्‍दी की स्थिति होनी चाहिए।
दूसरा सबसे बड़ा दोष भारत की भाषिक प्रकृति के प्रति अज्ञान है- भारत ऐतिहासिक रूप से डायग्‍लोसिक समाज है जहॉं के लोग सहज रूप से द्विभाषिक रहे हैं- संस्‍कृत/फारसी/अंग्रेजी यहॉं की लिंग्‍वा फ्रेंका को समाप्‍त नहीं करती वे भले ही सीढि़यॉं चढ़ने की भाषा बनी रहें पर वे मूल भाषा को मिटा नहीं पातीं। झांसी की रानी या जवाहरलाल 'आम' कैसे हुए ये हम न समझ पाएंगे और एलीट की भाषा हिन्‍दी नहीं रही है इस 'सत्य' के संधान के लिए किसे टीके अरुण की जरूरत है।
आपका संशय निरापद नहीं है....फिर भी मैं कहना चाहूंगी कि हिंदी कभी ना खत्म होने वाली भाषा है....हिंदी ने समय समय पर अन्य भाषाओँ के शब्दों को अपने में समाहित किया है...और आगे भी परिस्थिति अनुसार नए शब्द आते रहेंगे...भाषा और समृद्ध होती रहेगी...ज़रूरत है दृढ इच्छा शक्ति की ..
abme kuchh likhunga to yah kahaa jayegaa ki hindi bhi roman lipi me????kher..yah takniki samsya ko jab hamne hal kar liyaa he aour ab hindi me bhi tipe kiya jane lagaa he to ise aap kyaa kahenge? hindi hamare desh me vakai aaj apne astitv ko bachane ka pryatn kar rahi he..kintu ek prashn me poochhna chahtaa hu, kya sachmuch hindi mar bhi sakti he? aapne iska ek udaharan ukt lekh se de diya he magar mujhe lagtaa he hindi aaj bhi vesi hi he jesi pahle thi..chounkaa diyaa ne aapko/ chounkiye mat, sach he yah. hindi boli ke roop me bharat ke adhikaansh hisse smradhdh he../ hna, angreji ka chalan he so rahega../ mujhe jnha tak jaankaari he ki raani lakshmi bai hindi jaanti thi, javahrlaal neharu se lekar indira gandhi hindi jaanti rahi..hindi jananaa kyaa hindi ke liye khtm hone jesa he? bhasha koi bhi ho uska gyaan arjit karnaa bura nahi he..fir hamare desh me hindi mahaz gyaan nahi balki use aaj bhi apnaa hi samjha ja rahaa he/ aap kuchh udaharan denge..dena bhi chahiye. vo bhi sach he/ kintu hindi ko maaranaa asambhav he/ iska tark me aapko baad me samay ke lihaaz se dunga///
hindi ko badna chahiye, badaanaa chahiye/ aapke vichaarniya aalekh se alakh jalti rahegi/
Unknown said…
namaskaar
prakriti men koii amar nahiin hai, atah hindi bhii nahiin.
bhaashaa kii rajniiti, rojgaar kii ummiid.dono ke kaaran angrejii kaa bolbaalaa badha rahaa hai.
bhaarat ke log doosaroon ke liye kampyutar ke liye jitanaa kar rahe hain usakaa souvon hissaa bhii hindi ko samarpit ho jay to abhihindi kaa bolbaalaa jaarii rahegaa,

namaskaar.
punashch
abhii to haal yaha hai ki main apanii tippanii bhii hindii men nahii likh paa rahaa hun.aapake sahayog kii apekshaa hai
namaskaar
टीके अरुणवा भाँग पिएला था का ?

ये कउन भाखा है?
हिन्दी है वस्ताद...

मुए सब मुर्दाघाट की बतियाँ करने वाले।

अरे जब संस्कृत नहीं मरी तो हिन्दी भाषा तो युगों युग चलेगी। हाँ बोली का रूप बदलेगा, उससे भाषा का, फिर बोली का... चलता रहेगा।

अरे काहें सब जन दूबर होइ जात हो ?
आपका आलेख बहुत से सवालों को खडा करता है. हिंदी कहेंगे किसे? हिंदी में शब्द किस भाषा के होंगे? आज हिंदी का स्वरुप क्या है?
और भी बहुत हैं................
आप खुद सोचिये कि आज बच्चों को सिखाया जाता है COW उनको गाय बहुत बाद में बताया जाता है.
रही बात हिंदी के कृत्रिम भाषा होने की तो इस भाषा से ज्यादा वैज्ञानिक भाषा कोई दूसरी भाषा नहीं है. हर एक शब्द वैज्ञानिक तरीके से बाहर आता है.
आपकी बात सही है कि अब गेंद हम हिन्दीभाषी लोगों के पाले में है.............हम लोग अभी भी बस सोच ही रहे हैं..............
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जय हिन्द जय बुन्देलखण्ड
Mithilesh dubey said…
बहुत कुछ सोचने पर मजबुर किया है लेखक नें ।
PD said…
पता नहीं अरूण जी यहाँ लिखे जा रहे कमेन्ट को पढ़ रहे हैं या नहीं.. मगर मुझे उनकी बातों से घोर आपत्ति है..

उन्होंने मैथिली भाषा से तुलना करते हुए जिस तरह अपनी बात कही है वही बता रहा है कि जिस विषय पर आपका ज्ञान अधूरा हो उस विषय पर कुछ ना लिखा जाना ही बेहतर होता है..

मैं बहुत फर्राटेदार मैथिली नहीं बोल पता हूँ, मगर जहां कहीं भी मेरी मातृभाषा कि बात होती है वहाँ मैं मैथिली का ही नाम लेता हूँ और जो मैथिली के बारे में नहीं जानते हैं उन्हें मैथिलि का इतिहास भी बताता हूँ.. आज भले ही मैथिली क्षेत्रीय भाषा बन चुकी हो, मगर फिर भी लगभग आधे बिहार और आधे नेपाल में बोली जाती है.. अगर मुझसे मेरी प्राथमिकताये पूछी जाये कि मैं किसे बचाना चाहूँगा, २०० साल पुरानी हिंदी को या हजारों साल पुरानी मैथिली को तो मैं मैथिली का ही नाम लूँगा.. मेरे लिए तो फिलहाल मेरी भाषा मैथिली ही मृत्यु-शैया पर है..
Parul kanani said…
bhasha ko sanvednaon se pare,sanwaad ke shirsh par rakha jana chahiye tabhi uski unnti hai
अरूण जो कहें, उन्हें अधिकार है…लेकिन हमारे पास इसके साफ और मजबूत तर्क हैं कि भाषा जो शिक्षा-विज्ञान-तकनीक-दर्शन आदि की है, वह जनता नहीं, गली नहीं, सरकार और लिखने वाले, शिक्षण संस्थान चलाते हैं…हिन्दी पर हम कुछ काम कर रहे हैं…षडयंत्र की सीमा नहीं दिखती…और एक बात कि लक्ष्मीबाई को छोड़िए…रणजीत सिंह से संबद्ध अन्य सैकड़ों पत्र, यहाँ तक कि अकबर के समय में भी हिन्दी में लिखे गये हैं…राजाओं ने लिखे हैं, अंग्रेजों ने लिखे-लिखवाए हैं…अभिलेखागार में सबूत भी हैं…तो महाशय की बात का कोई मतलब नहीं रह जाता…

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