शुरू में ही साफ कर दूं कि यह तीव्र प्रतिक्रियात्मक पोस्ट नहीं है। कई महीने हो गए। बनारस के एक काफी पुराने मित्र से फोन पर बात हो रही थी। वे बीएचयू में हिंदी के प्राध्यापक हैं। नामवर सिंह के अंडर में जेएनयू से पीएचडी किया है। कई कॉलेजों में पढ़ाने के बाद आखिरकार बीएचयू में जम गए हैं। हिंदी साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं में बतौर आलोचक लिखते रहते हैं। खुद भी एक पत्रिका निकालते हैं। मैंने उन्हें बताया कि इधर गुमनाम से हिंदी ब्लॉगर ऐसी-ऐसी कविताएं-कहानियां लिख रहे हैं कि दिल खुश हो जाता है। बातों ही बातों में मैंने यह भी कहा कि मुझे अगर इजाजत दी जाए और मौका मिले तो मैं कई ब्लॉगरों की कहानियों और बातों मिलाकर ऐसा उपन्यास लिख सकता हूं जो बहुत लोकप्रिय हो सकता है, संक्रमण से गुजरते हमारे आज के समाज का अद्यतन आईना होने के साथ ही उलझनों को सुलझाने का माध्यम बन सकता है।
मित्रवर बोले – तो यहां से, वहां से उठाकर लिख डालो। यही तो उत्तर-आधुनिकता का तरीका है। मैं आधुनिकता का बिंब तो बना ले जाता है, लेकिन उत्तर-आधुनिकता को अभी तक रत्ती भर भी नहीं समझ पाया हूं। खैर, मैंने पूछा कि न तो ब्लॉगर साहित्यकार हैं और उनकी रचनाओं का कोलॉज बनानेवाला मैं कोई साहित्यकार हूं। बोले – बंधु, घबराते क्यों हो? हिंदी में साहित्यकार होते नहीं, बनाए जाते हैं। उनकी यह बात सुनकर मैं चौंक गया। वे फोन पर तफ्सील से समझा नहीं सकते थे। मैंने भी अपने अज्ञान को छिपाते हुए अंदाजा लगा लिया कि हिंदी में कविता-कहानियां लिखनेवालों को साहित्यकार की मान्यता दिलाना कुछ आलोचको के पेट से निकली डकार जैसा आसान काम बना हुआ है।
ज़रा-सा और सोचा तो पाया कि हर साल अंग्रेजी में नए-नए नाम बुकर पुरस्कार पा जाते हैं। अंग्रेजी में पहला ही उपन्यास लिखने वाला/वाली चर्चा में आ जाता/जाती है। लेकिन हिंदी में ऐसा नहीं होता। यहां तो किसी आलोचक का ठप्पा ज़रूरी होता है। आलोचकों-प्रकाशकों का ऐसा उलझा हुआ वणिक तंत्र फैला हुआ है कि कोई रचना अपनी मेरिट के आधार पर नहीं, नेटवर्किंग के दम पर चर्चा में आती है। यह अलग बात है कि इस चर्चा का दायरा इतना सीमित होता है कि हिंदी समाज के आम पाठकों को इसका पता ही नहीं चलता। ऐसे साहित्यकारों की रचनाएं हिंदी के सक्रिय समाज की नब्ज़ को कितना पकड़ पाती हैं, इसका पता तब चलता है जब ऐसे मूर्धन्य साहित्यकार अपना ब्लॉग बनाते हैं।
कितना दुखद है कि आज हिंदी के पाठकों को अपने समाज के सच को समझने किसी अडीगा का अंग्रेजी उपन्यास पढ़ना पड़ता है। यहीं पर लगता है कि हिंदी समाज के मानस में छाया सामंतवाद हिंदी साहित्य की दुनिया पर भी हावी है। मजे की बात यह है कि इस सामंतवाद ने वामपंथ का चोंगा पहन रखा है।
कलाकृति: जगदीश स्वामीनाथन
मतदाता जागरूकता गीत
1 month ago
18 comments:
सही सा लिखा है। कोई तो हमें साहित्यकार बना दो!
सही कहा आप ने.. मगर अंग्रेज़ी की दुनिया में भी नेटवर्किंग चलती है.. कुछ अलग क़िस्म की.. उनके मठाधीश धोतीधारी मार्क्सवादी नहीं हैं..
इसी लिये तो जो साहित्यकार ना बन पाये या कहना चाहिये नही बनाये गये वो ब्लोगर बन गये
शुद्ध ब्लौगरीय पोस्ट.. :)
सही लिखा आपने..
तो बनाया जाए पहले ब्लॉग अकादमी, फिर विधा के हिसाब से पुरस्कार और सामग्री संकलन,छपाई और डिस्ट्रीव्युशन का काम। मामला चल निकलेगा
"…हिंदी के पाठकों को अपने समाज के सच को समझने किसी अडीगा का अंग्रेजी उपन्यास पढ़ना पड़ता है। यहीं पर लगता है कि हिंदी समाज के मानस में छाया सामंतवाद हिंदी साहित्य की दुनिया पर भी हावी है। मजे की बात यह है कि इस सामंतवाद ने वामपंथ का चोंगा पहन रखा है…" इस शानदार बात से पूर्णतः सहमत… आज भी कई बड़े पत्रकार(?) और काफ़ी सारे कथित हिन्दी साहित्यकार(?) ब्लॉग नामक विधा को हेय दृष्टि से देखते हैं…
सब नेट्वर्किंग का कमाल है......
"आलोचकों-प्रकाशकों का ऐसा उलझा हुआ वणिक तंत्र फैला हुआ है कि कोई रचना अपनी मेरिट के आधार पर नहीं, नेटवर्किंग के दम पर चर्चा में आती है। यह अलग बात है कि इस चर्चा का दायरा इतना सीमित होता है कि हिंदी समाज के आम पाठकों को इसका पता ही नहीं चलता।"
सौ फीसदी सच कहा अनिल भाई. लेकिन संतोष की बात है कि यह स्थिति अब बहुत दिन चलेगी नहीं. ज़रूरत सिर्फ़ इस बात की है कि हमारे-आप जैसे लोग गम्भीरता से सक्रिय हों.
हिंदी समाज के मानस में छाया सामंतवाद हिंदी साहित्य की दुनिया पर भी हावी है।
sahii kehaa
Sahi kaha hai aapne...
kai baar blog mai bahut kucch achha parne ko mil jata hai...
हिन्दी साहित्य का परिदृष्य सैटिंग की पाठशाला है - शायद!
ये सच है कि इस सामंतवाद ने वामपंथ का चोगा पहन रखा है। जानदार-शानदार लिखा है आपने।
नेटवर्किंग कहाँ नहीं चलता ..क्या ब्लॉग दुनिया में नहीं चलता ?
कितना दुखद है कि आज हिंदी के पाठकों को अपने समाज के सच को समझने किसी अडीगा का अंग्रेजी उपन्यास पढ़ना पड़ता है। यहीं पर लगता है कि हिंदी समाज के मानस में छाया सामंतवाद हिंदी साहित्य की दुनिया पर भी हावी है। मजे की बात यह है कि इस सामंतवाद ने वामपंथ का चोंगा पहन रखा है।
Wah...bhai wah...
बहुत ही शानदार और सटीक लिखा है आपने। और शायद ये हम हिंदी वालों की परंपरा रही है कि बिना किसी मुर्धन्य साहित्कार के अनुशंसा के कोई भी रचना कूड़ेदान में फेंक दी जाती है, जैसे किसी विषय के बारे में खुद का कोई विचार नहीं हो, सब कुछ आलोचनाओं और प्रतिक्रियाओं के चंगुल से निकलने में ही दम तोड़ जाता है।
सच और सटीक! आँखें खोलने के लिए शुक्रिया..
सही है.
नेटवर्क तो हर जगह है साहब…अंग्रेजी में सबसे ज्यादा है शायद…दिखता नहीं है आसानी से…
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