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Showing posts from October, 2008

कुछ जानते हैं तो कितना कुछ नहीं जानते हम

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चोर से लेकर जुआरी तक दीवाली जगाते हैं तो लिखने का ‘धंधा’ करनेवाले हम कैसे पीछे रह सकते हैं!! पूरे दो हफ्ते हो गए, कुछ नहीं लिखा। लेकिन आज एक नई शुरुआत का दिन है, विक्रम संवत् 2065 की शुरुआत की बेला है तो लिखना ज़रूरी है। लेकिन लिखने के लिए जानना ज़रूरी है और मैं शायद अब भी जानने के मामले में सिफर के काफी करीब हूं। लोग कहते हैं कि मैं आर्थिक मामलों की कायदे की समझ रखता हूं। लेकिन हिंदी के एक नए बिजनेस अखबार में मुंबई ब्यूरो प्रमुख का काम संभाला तब पता चला कि अर्थ के बारे में अभी तक कितना कम जानता हूं मैं। फिर यह सोचकर तसल्ली हुई कि लेहमान ब्रदर्स से लेकर एआईजी के लिए फाइनेंशियल इंस्ट्रूमेंट तैयार करनेवाले लोग भी इतना नहीं जानते थे कि वित्तीय संकट को पास फटकने से कैसे रोका जा सकता है। खैर, उन लोगों जैसी जटिल समझ हासिल करने के लिए मुझे एवरेस्ट की फतेह जैसा उपक्रम करना होगा। एक बात और बता दूं कि साढ़े पांच साल इलेक्ट्रॉनिक मीडिया में काम करने के बाद प्रिंट में वापस लौटने पर मुझे लगा, जैसे कोई मछली सूखे किनारे से उछलकर दोबारा पानी में पहुंच गई हो। आपको अगर गांव का अनुभव होगा तो ज़रूर जानते ...

अपराध की राह पर हैं लोग मेरे गांव के

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इधर कुछ दिनों से अपने गांव आया हुआ हूं। करीब छह साल बाद आया हूं तो सब कुछ बदला-बदला सा लग रहा है। लेकिन सबसे चौंकानेवाली बात यह पता लगी कि लखनऊ से लेकर बलिया तक पूर्वी उत्तर प्रदेश का शायद ही कोई ऐसा गांव होगा जिसके कम से कम दो-तीन नौजवान जेल में न बंद हों। इनमें से किसी पर अपहरण का इल्जाम है, किसी पर हत्या का तो किसी पर राहजनी का। बलात्कार जैसे जघन्य आरोप इन पर नहीं हैं। ये भी चौंकानेवाली बात है कि जेल गए ज्यादातर नौजवान सवर्ण जातियों के हैं। आसानी से पैसा कमाने की चाह ने उन्हें अपराध की राह पर धकेल दिया है। मेरे गांव के पास के एक रिटायर्ड प्रिसिंपल साहब हैं जो कभी कांग्रेस के टिकट पर विधानसभा का चुनाव भी लड़ चुके हैं। पहले उनका बेटा अपहरण और हत्या के मामले में रंगेहाथों पकड़ा गया। वह अभी जेल में ही था कि घरवालों ने उसके छोटे भाई को मेरठ में पढ़ाई करने के लिए भेज दिया। कुछ ही दिन बाद उसने एक क्वालिस गाड़ी को ड्राइवर समेत अगवा किया और फिर ड्राइवर को मार कर फेंक दिया। लेकिन बदकिस्मती से घर आते वक्त शक के आधार पर पुलिस ने पकड़ लिया तो वह भी सलाखों के पीछे पहुंच गया। दो दिन में ही अपने इल...

पाखंड का प्रतिफल है अमेरिका पर घहराती ये मंदी

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जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ साल 2001 में अर्थशास्त्र का नोबेल पुरस्कार जीत चुके हैं। इस समय कोलंबिया यूनिवर्सिटी में प्रोफेसर हैं। कुछ दिनों पहले गार्डियन अखबार में छपे लेख में उन्होंने अमेरिका में छाए मौजूदा आर्थिक संकट को पाखंड के टूटने का नतीजा बताया है। इसमें उन्होंने और भी कई बड़ी दिलचस्प बातें कही हैं। इन दिनों कुछ फालतू कामों में फंसा हूं तो अपना कुछ लिखने के बजाय जोसेफ स्टिग्लिट्ज़ का यह लेख प्रस्तुत कर रहा हूं। मुलाहिज़ा फरमाइए... ताश के महल ढह रहे हैं। आर्थिक संकट ऐसा कि इसकी तुलना 1929 की महामंदी से की जा रही है। लेकिन असल में यह संकट वित्तीय संस्थाओं की परले दर्जे की बेईमानी और नीतियां बनानेवालों की अक्षमता का नतीजा है। हुआ यह है कि हम अजीब तरह के पाखंड के आदी हो गए हैं। किसी तरह के सरकारी नियंत्रण की बात होती है तो बैंक हल्ला मचाने लगते हैं, एकाधिकार बढ़ाने के खिलाफ उठाए गए कदमों का विरोध करते हैं, लेकिन हड़ताल होने पर फौरन सरकारी दखल की मांग करने लगते हैं। आज भी वो पुकार लगा रहे हैं कि उन्हें संकट से उबारा जाए क्योंकि वे इतने बड़े और महत्वपूर्ण हैं कि उन्हें डूबने नहीं दिया जा सक...