कोंपलों का कातिल, नसों का हत्यारा
वो कौन है जो मेरे दिमाग में कहर बरपाए हुए है। मेरे विचारों का, अनुभूतियों का निर्ममता से संहार कर रहा है। जैसे ही किसी सोई हुई नस में स्फुरण शुरू होता है, नए अहसास की कोंपल फूटती है, कोई झपट कर झपाक से उसे काट देता है। जैसे ही पूरा दम लगाकर हाथ पैर मारता हूं, आंखों के आगे का कुहासा हटाता हूं, वैसे ही आंखों के आगे सात-सात परदे गिरा देता है। दिमाग कुरुक्षेत्र बना हुआ है। महाभारत छिड़ी है जो सालों बाद भी खत्म नहीं हो रही। अर्जुन बार-बार भ्रमों का शिकार हो रहा है। कोई सारथी नहीं है जो अपना विराट आकार दिखाकर बता सके कि जिनको तुम जिंदा समझ रहे हो, वो तो कब के मुर्दा हो चुके हैं। चक्रव्यूह के सात द्वार बन जाते हैं। मैं पहला द्वार ही नहीं भेद पाता, सातवें की बात कौन करे। चक्रव्यूह के पहले ही द्वार पर सीखी हुई विद्या भागकर दिमाग की किसी खोह में छिप जाती है। विचारों की धार और तलवार के बिना मैं निहत्था हो जाता हूं। युद्ध के बीच में कोई आंखों में धूल फेंक देता हैं। किरकिरी असहनीय हो जाती है, दिखना बंद हो जाता है। याद आ जाता है बावड़ी में खुद से अनवरत लड़ता (मुक्तिबोध का) वो ब्रह्मराक्षस, जो घिस रह...