नेता को नुमाइंदा नहीं, आका मानते हैं हम
एक तरफ हम राजनीति में पढ़े-लिखे काबिल लोगों के अभाव का रोना रोते हैं, दूसरी तरफ पढ़े-लिखे काबिल लोग चुनावों में खड़े हो जाते हैं तो उनकी जमानत जब्त हो जाती है। साफ-सी बात है कि ‘हम’ चुनावों में किसी की जीत-हार का फैसला करने की स्थिति में नहीं हैं। गांवों ही नहीं, शहरों में भी। एक तो किसी भी संसदीय या विधानसभा क्षेत्र में मध्य वर्ग के हम जैसे लोगों की संख्या मुठ्ठी भर होती है। ज्यादा से ज्यादा दस हजार, बीस हजार। दूसरे, हम शक्तिसंपन्नता हासिल करने के लिए नहीं, बल्कि नैतिक आग्रह के चलते राजनीति के बारे में सोचते हैं। राजनीति को गर्त से निकालने के लिए सोचते हैं। पहले तो हम वोट तक देने नहीं जाते थे। इस बार स्थिति थोड़ी बदली है। टाटा टी जैसी कंपनियों से लेकर तमाम एनजीओ और आमिर खान जैसे अभिनेता तक हमें इस बार वोट डालने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। मैं भी इस बार पहली बार वोट डालने जा रहा हूं। अब से चंद घंटे बाद मेरी भी उंगली पर पहली बार काली स्याही का निशान लगा होगा। होता यह रहा कि गांव की वोटर लिस्ट में मेरा नाम तो है। लेकिन गांव से शहर, फिर इस शहर से उस शहर, किराए के मकान में जब भी जहां रहा, व...