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Showing posts from February, 2009

गूगल ‘हिंदी’ का अंग्रेजी अनुवाद ‘इंग्लिश’ करता है!!

मेरे एक मित्र है, सहयोगी हैं। नया-नया ब्लॉग वंदे मातरम बनाया है। कुछ दिनों पहले उन्होंने एक पोष्ट लिखी जिसका शीर्षक है – क्यों न हिंदी के लिए बने सत्याग्रह का प्रारूप। अचंभा तब हुआ जब गूगल ने इसका अनुवाद किया – Why not English made for the format of Satyagraha? जाहिर है कि यह यंत्रवत अनुवाद है। लेकिन यह बात समझ से परे है कि हिंदी का यंत्रवत अनुवाद इंग्लिश कैसे हो सकता है। ऐसी बात तो है नहीं कि हिंदी में सर्च से लेकर ब्लॉगिंग को प्रोत्साहित करनेवाले गूगल का अनुवादक सॉफ्टवेयर बनानेवाले को इतना भी नहीं पता हो कि हिंदी एक स्वतंत्र देश के कम से कम 42 करोड़ लोगों की मातृभाषा है? हकीकत जो भी हो। लेकिन अंग्रेजी के जिस साम्राज्य के खिलाफ मेरे सहयोगी अजीत सिंह मुहिम चलाकर हिंदी के लिए सत्याग्रह का प्रारूप बनाना चाहते हैं, गूगल उन्हीं के लेख को अंग्रेजी का पक्षधर बना दे रहा है? इसके पीछे गूगल का कोई गुप्त एजेंडा तो नहीं है? बात जो भी हो। इस पोस्ट के जरिए मैं हिंदी, हिदुस्तान के अनुरागी अजीत का ब्लॉगिंग की दुनिया में स्वागत करता हूं। यकीन है कि आप भी उनका उत्साहवर्धन करेंगे।

साथ में अपना भी भला हो जाता है, क्या बुरा है?

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अंग्रेजों ने गुलाम देश में रेल बिछा दी। इसलिए कि माल के आने-जाने में आसानी हो जाए। दूरदराज तक पहुंचना सुगम हो जाए। ज्यादा भला उनका हुआ, ब्रिटेन में बैठी उनकी कंपनियों का हुआ। लेकिन हम भारतवासियों का भी कुछ भला हो गया है। अच्छा है, क्या बुरा है? इधर मुंबई की बेस्ट बसों में सीसीटीवी कैमरे के साथ फ्लैट स्कीन टीवी भी लग गए हैं। किस कंपनी के हैं, ध्यान से देखा नहीं है। शायद सैमसंग के हैं। लेकिन बस में टीवी के दो स्क्रीन देखने पर अच्छा लगा। दस मिनट का सफर पांच मिनट में कट गया। मंदी के दौर में कंपनी के फ्लैट टीवी स्क्रीन बिक गए। कई करोड़ की कमाई हो गई होगी। अपना क्या जाता है, जो गया बेस्ट और महाराष्ट्र सरकार के बजट से। सुरक्षा के साथ-साथ मनोरंजन का इंतजाम भी! खांसी को फांसी, सर्दी को तड़ीपार। एक रुपए में दो, दो रुपए में पांच। क्या बुरा है? कंपनी को फायदा हुआ तो अपन को भी तो कुछ मिल गया। दिल्ली में फ्लाईओवर बन गए, सड़कें चौड़ी और चकाचक हो गईं। रेल सेवाएं बढ़ रही हैं। बिजली की उपलब्धता बढ़ाई जा रही है। ये सच है कि सारा कुछ प्रति किलोमीटर लागत घटाने के लिए हो रहा है। इंफ्रास्ट्रक्चर दुरुस्त हो र...

हिंदी में साहित्यकार बनते नहीं, बनाए जाते हैं

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शुरू में ही साफ कर दूं कि यह तीव्र प्रतिक्रियात्मक पोस्ट नहीं है। कई महीने हो गए। बनारस के एक काफी पुराने मित्र से फोन पर बात हो रही थी। वे बीएचयू में हिंदी के प्राध्यापक हैं। नामवर सिंह के अंडर में जेएनयू से पीएचडी किया है। कई कॉलेजों में पढ़ाने के बाद आखिरकार बीएचयू में जम गए हैं। हिंदी साहित्य की पत्र-पत्रिकाओं में बतौर आलोचक लिखते रहते हैं। खुद भी एक पत्रिका निकालते हैं। मैंने उन्हें बताया कि इधर गुमनाम से हिंदी ब्लॉगर ऐसी-ऐसी कविताएं-कहानियां लिख रहे हैं कि दिल खुश हो जाता है। बातों ही बातों में मैंने यह भी कहा कि मुझे अगर इजाजत दी जाए और मौका मिले तो मैं कई ब्लॉगरों की कहानियों और बातों मिलाकर ऐसा उपन्यास लिख सकता हूं जो बहुत लोकप्रिय हो सकता है, संक्रमण से गुजरते हमारे आज के समाज का अद्यतन आईना होने के साथ ही उलझनों को सुलझाने का माध्यम बन सकता है। मित्रवर बोले – तो यहां से, वहां से उठाकर लिख डालो। यही तो उत्तर-आधुनिकता का तरीका है। मैं आधुनिकता का बिंब तो बना ले जाता है, लेकिन उत्तर-आधुनिकता को अभी तक रत्ती भर भी नहीं समझ पाया हूं। खैर, मैंने पूछा कि न तो ब्लॉगर साहित्यकार हैं ...

उत्तर भारत के छह राज्यों की जमा औरों के हवाले

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बिहार, उत्तराखंड, उत्तर प्रदेश, झारखंड, छत्तीसगढ़ और हिमाचल की आधी से लेकर दो-तिहाई तक जमाराशि बैंक दे रहे हैं पहले से आगे बढ़े राज्यों को उत्तराखंड, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखंड, हिमाचल प्रदेश और छत्तीसगढ़ के आर्थिक पिछड़ेपन की और जो भी वजहें हों, लेकिन उनमें से एक प्रमुख वजह यह है कि इन राज्यों में आनेवाली जमाराशि का आधे से लेकर दो-तिहाई से ज्यादा हिस्सा यहां निवेश नहीं हो रहा है। बैंक इन राज्यों से मिलनेवाली राशि के अनुपात में यहां ऋण नहीं दे रहे हैं। रिजर्व बैंक द्वारा जारी चालू वित्त वर्ष 2008-09 की सितंबर में समाप्त तिमाही के आंकड़ों के मुताबिक पूरे देश का औसत ऋण-जमा अनुपात 74.93 फीसदी है। लेकिन उत्तर भारत के इस छह राज्यों का ऋण-जमा अनुपात 50 फीसदी से नीचे है। यह अनुपात देश के सभी बैंकों द्वारा हासिल जमा और बांटे गए ऋण के आधार पर निकाला जाता है। इससे पता चलता है कि बैंक किसी राज्य या जिले के लोगों से हासिल की गई जमाराशि का कितना हिस्सा उस राज्य या जिले में औद्योगिक गतिविधियों के लिए कर्ज के रूप में दे रहे हैं। देश में तमिलनाडु और चंडीगढ़ ही ऐसे क्षेत्र हैं जहां पर बैंक कुल मिली जम...

फंड की लागत का रोना, बैंकों का डर छिपाने का बहाना

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बैंकों ने कर्ज पर ब्याज दरें घटाने का सिलसिला शुरू कर दिया है। देश के सबसे बड़े बैंक भारतीय स्टेट बैंक ने हर तरह के होमलोन पर एक साल के लिए 8 फीसदी ब्याज दर घोषित करके सबको चौंका दिया है। बैंकों ने सरकार से वादा भी कर दिया है कि वे ब्याज दरों में दो फीसदी कमी कर सकते हैं, बशर्ते उनके फंड की लागत घट जाए। दूसरे शब्दों में बैंकों का कहना है कि वे इस समय जमा पर ज्यादा ब्याज दे रहे हैं। इसलिए जब तक वे जमा पर ब्याज घटाने की स्थिति में नहीं आते, तब तक कर्ज पर ब्याज घटाना उनके लिए घाटे का सौदा रहेगा। देश के दूसरे सबसे बड़े बैंक पंजाब नेशनल बैंक के चेयरमैन के सी चक्रवर्ती का कहना है कि बैंक उधार पर ब्याज दर घटाने को तैयार है, बशर्ते फंड की लागत और घट जाए। लेकिन क्या सचमुच ऐसी ही स्थिति है या बैंक झूठ-मूठ का रोना रो रहे हैं और वे असल में देश की सुस्त पड़ी आर्थिक गतिविधियों में जान डालने के लिए कर्ज देने के जोखिम से यथासंभव बचना चाहते हैं। शायद यही वजह है कि स्टेट बैंक के चेयरमैन ओ पी भट्ट को कहना पड़ता है कि बड़े और मझोले उद्योगों को कर्ज देने पर बैंक की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियां (एनपीए) बढ़ स...