निरर्थक है निरर्थकता का बोध
अपने बहुत सारे पुराने साथियों में देखता हूं कि वे अब भी अजीब किस्म के अपराध-बोध और ग्लानि के भाव के साथ जिए जा रहे हैं कि देश-समाज के लिए जो कभी करने की सोची थी, अब कुछ नहीं कर पा रहे हैं। एकाध धरना-प्रदर्शन में हिस्सेदारी, और कुछ नहीं। बस, नौकरी-चाकरी और बीवी-बच्चे। घर से दफ्तर और दफ्तर से घर। कभी-कभी लगता है कि हमारे सपने भी मर रहे हैं, तब हम पाश की लाइनें याद करके दुखी हो जाते हैं कि सबसे खतरनाक होता है हमारे सपनों का मर जाना। अक्सर सोचने लगते हैं कि अब तक क्या किया, जीवन क्या जिया। कल की बात सोचता हूं तो मैं भी एक चमकीली उदासी से भर जाता हूं। लेकिन उन अनुभवों को अतीतजीविता के आभासी सुख से मुक्त कर सोचता हूं तो लगता है कि बाहरी और आंतरिक संघर्ष वहां भी था, यहां भी है। तब भी था और आज भी है। यह भी लगता है कि हमारी-आपकी ज़िंदगी ही असली और मूर्त है। देश तो महज एक अमूर्तन है। कहीं वह माता बन जाता है तो कहीं पिता। मुश्किल यह है कि यह अमूर्तन हर किसी को हमारी भावनाओं के दोहन का भरपूर मौका दे देता है। कोई हमें तकरीर के तीरों से बेधता है तो कोई भावनात्मक ब्लैकमेल करता है। मुझे लगता है कि पहल...