Sunday 30 September, 2007

मौत की लंबी खुमारी

सुबह से ही आकाश की हालत खराब है। नींद पर नींद आए जा रही है। उठ रहा है, सो रहा है। रात दस बजे का सोया सुबह नौ बजे उठा। लेकिन ग्यारह घंटे की पूरी नींद के बावजूद उठने के पंद्रह मिनट बाद फिर सो गया। इसके बाद उठा करीब सवा ग्यारह बजे। लेकिन मुंह-हाथ धोने और नहाने के बाद भी उसे नींद के झोंके आते रहे। बस चाय पी और सो गया। दो बजे उठकर खाना खाया और फिर सो गया। आकाश को समझ में नहीं आ रहा था कि यह हफ्ते भर लगातार बारह-बारह, चौदह-चौदह घंटे काम करने का नतीजा है या मौत की उस लंबी खुमारी का जो एक अरसे से उस पर सवार थी।
मौत की खुमारी बड़ी खतरनाक होती है, आपको संज्ञा-शून्य कर देती है। इसमें डूबे हुए शख्स को मौत की नींद कब धर दबोचेगी, उसे पता ही नहीं चलता। आखिर खुमारी और नींद में फासला ही कितना होता है। कब आप झीने से परदे के उस पार पहुंच गए, पता ही नहीं चलता। आकाश की ये खुमारी कब से शुरू हुई, खुमारी के चलते उसे कुछ भी याद नहीं। याददाश्त भी बहुत मद्धिम पड़ गई है। लेकिन लगता है कि इसकी शुरुआत साल 1982 की गरमियों में उस दिन से हफ्ता-दस दिन पहले हुई थी, जब उसने कुछ लाइनें एक कागज पर लिखी थीं। वह कागज तो पत्ते की तरह डाल से टूटकर छिटक चुका है और समय की हवा उसे उड़ा ले गयी है। लेकिन आकाश के जेहन में एक धुंधली-सी याद जरूर बची है कि उसने क्या लिखा था। शायद कुछ ऐसा कि...
कल मैंने सुन ली सधे कदमों से
चुपके से पास आई मौत की आहट
रुई के फाहों से थपकियां दे रही थी वो
संगीत के मद्धिम सुरों के बीच प्यारा-सा गीत गुनगुना रही थी वो
एक अमिट अहसास देकर चली गई वो
मुझे पूरी तसल्ली से बता गई वो कि...
एक दिन कोहरे से घिरी झील की लंबी शांत सतह से
परावर्तित होकर उठेगा वीणा का स्वर
इस स्वर को कानों से नहीं, प्राणों से पीना
और फिर सब कुछ विलीन हो जाएगा...
उस दिन, ठीक उसी दिन मेरे प्रिय, तुम्हारी मौत हो चुकी होगी।
ये कुछ लाइनें ही नहीं, मौत की इतनी खूबसूरत चाहत थी कि आकाश ने मौत से डरना छोड़ दिया। ज़िंदगी महज एक बायोलॉजिकल फैक्ट बन गई और मौत किसी प्रेतिनी की तरह खुमारी बनकर उस पर सवार हो गई। उम्र का बढ़ना ही रुक गया। जिंदगी के बीच का दस साल का टुकड़ा तो ऐसे गायब हो गया जैसे कभी था ही नहीं। फिर पांच-पांच साल एक साल की तरह गुजरते रहे। अजीब हाल था उसका। खुद के बोले गए शब्द लगता था कोई और बोल रहा है और उनकी प्रतिध्वनि उसके कानों में गूंज रही है। रिश्तों-नातों सभी के असर से वह इम्यून हो चुका था। किसी से प्यार नहीं करता वो, किसी की केयर नहीं करता था वो। बस जो सिर पर आ पड़े, उसी का निर्वाह करता था वो।
आकाश जिंदगी को इसी तरह खानापूरी की तरह जीता जा रहा था कि एक दिन दूर देश से आई राजकुमारी से उसे छू लिया और उसकी सारी तंद्रा टूट गई। मन पर छाया सारा झाड़-झंखाड़ हट गया। मकड़ी के जाले साफ हो गए। खुमारी टूट गई। वह जाग गया। लेकिन सात साल बाद फिर वैसी ही खुमारी, वैसी ही नींद के लौट आने का राज़ क्या है?

Saturday 29 September, 2007

जब करने बैठा उम्र का हिसाब-किताब

आकाश आज अपनी उम्र का हिसाब-किताब करने बैठा है। कितना चला, कितना बैठा? कितना सोया, कितना जागा? कितना उठा, कितना गिरा? कितना खोया, कितना पाया? अभी कल ही तो उसने अपना 46वां जन्मदिन मनाया है। 28 सितंबर। वह तारीख जब भगत सिंह का जन्मदिन था, लता मंगेशकर का था, कपूर खानदान के नए वारिस रणबीर कपूर का था और उसका भी। हो सकता है इस तारीख में औरों के लिए बहुत कुछ खास हो। लेकिन उसके लिए यह एक मामूली तारीख है। बस, समय की रस्सी पर बांधी गई एक गांठ। हां, अनंत से लटकी इस रस्सी पर आकाश को कहां तक चढ़ना है, उसे नहीं मालूम। चढ़ना है तो चढ़ रहा है क्योंकि नीचे उतरने के लिए रस्सी हमेशा अंगुल भर ही बची रहती है।
सच कहूं तो आकाश को यह भी अहसास नहीं है कि 46 साल की उम्र के मायने क्या होते हैं। छोटा था तो 46 की उम्र बहुत बड़ी उम्र हुआ करती थी। 50 से सिर्फ चार साल कम। यानी बज्र बुढ़ापे से एकदम करीब। लेकिन आज तो उसे लगता है कि उसकी उम्र कहीं 20 साल पहले अटक कर रह गई है। रस्सी आपस में ऐसा उलझ गयी है कि नई गांठ लग ही नहीं रही। उम्र से इम्यून हो जाने का वक्त शायद तब आया था जब वह 22 साल का था और यूनिवर्सिटी से पढ़ाई पूरी करके निकला ही था।
उसे याद आया कि उसके एक सीनियर थे सूरज नारायण श्रीवास्तव। शायद एटा, मैनपुरी या फर्रुखाबाद के रहनेवाले थे। उनके घर की छत से सटा बिजली का 11000 वोल्ट का हाईवोल्टेज तार गुजरता था। छुटपन में छत पर पतंग पकड़ने के चक्कर में सूरज नारायण श्रीवास्तव एक बार इस तार से जा चिपके। सारा शरीर झुलस कर काला पड़ गया। लेकिन 18 दिन बाद वे भले चंगे हो गए। तभी से वे बिजली की करंट से पूरी तरह इम्यून हो गए। वे एक तार मुंह में और एक तार प्लग में डालकर मजे में स्विच ऑन-ऑफ कर सकते थे। इस दौरान किसी को अपनी उंगली भी छुआ दें तो उसे बिजली का झटका ज़ोरों से लगता था।
मैं यह पता लगाने में जुटा हूं कि आकाश को ऐसा कौन-सा झटका लगा था कि वह उम्र के असर से इम्यून हो गया। 22 साल के बाद हर पांच साल उसके लिए एक साल के बराबर रहे हैं और अब भले ही उसकी उम्र 46 साल हो गई हो, लेकिन वह 26 साल का ही है, मानसिक रूप से भी और शारीरिक रूप से भी।
लेकिन इधर कुछ सालों से उसे अपनी उम्र के बढ़ते जाने का अहसास ज़रूर होने लगा है। उसे यह अहसास पकते बालों ने नहीं कराया, न ही माथे के ऊपर और आंखों के नीचे बनती झुर्रियों ने। उसे यह अहसास कराया, अपने साथ के लोगों, जिनके साथ उसने ज़िंदगी का अब तक का सफर तय किया है, उनकी मौत ने। अभी कल ही की तो बात है। उसे एक पुराने परिचित बुजुर्ग का नाम नहीं याद आ रहा था। फौरन उसने मोबाइल उठाया और सविता से पूछने के लिए नंबर मिलाने लगा। तभी उसे याद आया कि सविता तो तीन महीने पहले ही मर चुकी है। उसने सविता का नंबर फोनबुक से डिलीट किया। साथ ही प्रदीप का भी जो हफ्ते भर पहले ही राजस्थान में एक सड़क हादसे का शिकार हो गया है।
वैसे, औरों की मौत और अपनी उम्र के बढ़ने के तार जुड़े होने का विचार आकाश के मन में तब कौंधा था, जब उस साथी की मरने की खबर उसे पता चली जिनके व्यक्तित्व से वह चमत्कृत रहता था। साथी जब पद्मासन जैसी मुद्रा में बैठकर बोलने लगते थे तो लगता था जैसे उनका अनहद जाग गया हो। हर समस्या का हल, हर सवाल का जवाब। अजीब-सी रहस्यमय मुस्कान उनके चेहरे पर रहती थी, जैसे सहस्रार कमल से जीवन अमृत बरस रहा हो और उसका आस्वादन करके वे मुदित हुए हो जा रहे हों।
साथी की मौत हार्ट अटैक से हुई थी। उसके बाद आकाश के मामा का लड़का आपसी रंजिश में मारा गया। चार महीने बाद मामा भी मर गए। उसके बाद सविता की मौत हुई और आखिर में प्रदीप की। बाबूजी ने बहुत कहा था कि तुम यह तो सोचो कि तुमने अभी तक अपनी जिद से क्या पाया और क्या खोया है। वह उनकी बात बराबर एक कान से सुनकर दूसरे कान से निकालता रहा। लेकिन इन पांच मौतों के बाद आकाश ने अब पीछे मुड़कर देखना शुरू कर दिया है कि मैराथन में साथ चले लोगों में से कौन-कौन निपट गया और अगल-बगल दौड़ रहे लोग कौन हैं। उसने अब अपनी उम्र का हिसाब-किताब करना शुरू कर दिया है!!!

Friday 28 September, 2007

महापुरुष नहीं होते हैं शहीद

भगत सिंह ज़िंदा होते तो आज सौ साल के बूढ़े होते। कहीं खटिया पर बैठकर खांस रहे होते। आंखों से दिखना कम हो गया होता। आवाज़ कांपने लग गई होती। शादी-वादी की होती तो दो-चार बच्चे तीमारदारी में लगे होते, नहीं तो कोई पूछनेवाला नहीं होता। जुगाड़ किया होता तो पंजाब और केंद्र सरकार से स्वतंत्रता सेनानी की पेंशन पा रहे होते। एक आम आदमी होते, जिनका हालचाल लेने कभी-कभार खास लोग उनके पास पहुंच जाते। लेकिन वैसा नहीं होता, जैसा आज हो रहा है कि पुश्तैनी गांव में जश्न मनाया जाता, प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह सिक्का जारी करते और नवांशहर का नाम बदलकर शहीद भगत सिंह शहर कर दिया जाता।
भगत सिंह के जिंदा रहने पर उनकी हालत की यह कल्पना मैं हवा में नहीं कर रहा। मैंने देखी है पुराने क्रांतिकारियों की हालत। मैंने देखी है गोरखपुर के उस रामबली पांडे की हालत, जिन्होंने सिंगापुर से लेकर बर्मा और भारत तक में अंग्रेजों के खिलाफ जंग लड़ी थी। उनकी पत्नी को सिंगापुर में क्रांतिकारी होने के नाते फांसी लगा दी गई। हिंदुस्तान आज़ाद हुआ, तब भी पांडे जी अवाम की बेहतरी के लिए लड़ते रहे। पहले सीपीआई छोड़कर सीपीएम में गए, फिर बुढ़ापे में सीपीआई-एमएल से जुड़ गए, नक्सली बन गए। नक्सली बनकर किसी खोह में नहीं छिपे। हमेशा जनता के बीच रहे। इलाके में हरिशंकर तिवारी से लेकर वीरेंद्र शाही जैसे खूंखार अपराधी नेता भी उन्हें देखकर खड़े हो जाते थे। लेकिन जीवन की आखिरी घड़ियों में उनकी हालत वैसी ही थी, जैसी मैंने ऊपर लिखी है।
असल में क्रांतिकारी शहीद की एक छवि होती है, वह एक प्रतीक होता है, जिससे हम चिपक जाते हैं। जैसे जवान या बूढ़े हो जाने तक हम अपने बचपन के दोस्त को याद रखते हैं, लेकिन हमारे जेहन में उसकी छवि वही सालों पुरानी पहलेवाली होती है। हम उस दोस्त के वर्तमान से रू-ब-रू होने से भय खाते हैं। खुद भगत सिंह को इस तरह की छवि का एहसास था। उन्होंने फांसी चढाए जाने के एक दिन पहले 22 मार्च 1931 को साथियों को संबोधित आखिरी खत में लिखा है...
मेरा नाम हिंदुस्तानी क्रांति का प्रतीक बन चुका है और क्रांतिकारी दल के आदर्शों और कुर्बानियों ने मुझे बहुत ऊंचा उठा दिया है। इतना ऊंचा कि जीवित रहने की स्थिति में इससे ऊंचा मैं हरगिज़ नहीं हो सकता। आज मेरी कमज़ोरियां जनता के सामने नहीं हैं। अगर मैं फांसी से बच गया तो वे ज़ाहिर हो जाएंगी और क्रांति का प्रतीक चिह्न मद्धिम पड़ जाएगा या संभवत: मिट ही जाए।
हर क्रांतिकारी या शहीद एक आम इंसान होता है। खास काल-परिस्थिति में वो देश-समाज में उभरती नई शक्तियों का प्रतिनिधित्व करता है। और ऐसे क्रांतिकारियों की धारा रुकती नहीं है। हमेशा चलती रहती है। हमारे साथ दिक्कत यह है कि हम शहीद क्रांतिकारियों को महापुरुष मानकर भगवान जैसा दर्जा दे देते हैं। अपने बीच में उनकी निरंतरता के दर्शन नहीं करते। फोटो या मूर्ति में हनुमान जी हमें बड़े श्रद्धेय लगते हैं लेकिन खुदा-न-खास्ता वही हनुमान जी अगर सड़क पर आ जाएं तो उनके पीछे कुत्ते दौड़ पड़ेंगे और हम भी उन्हें बहुरुपिया समझ कर पत्थर मारेंगे।
आज भगत सिंह की सौवीं जन्मशती पर मेरा यही कहना है कि सरकार या सत्ता प्रतिष्ठान के लोगों को उनकी पूजा अर्चना करने दीजिए। हमें तो भगत सिंह को अपने अंदर, अपने आसपास देखना होगा ताकि हम उनके अधूरे काम को अंजाम तक पहुंचाने में अपना योगदान कर सकें। शहीदों को महापुरुष मानना उन्हें इतिहास की कब्र में दफ्न कर देने जैसा है। शहीदों की चिताओं पर हर बरस मेले लगाने का बस यही मतलब हो सकता है कि हम उनसे प्रेरणा लेकर उनकी निरतंरता को देखें, उनके सपनों को अपनी आंखों में सजाएं और इन सपनों को आज के हिसाब से अपडेट करें। फिर उसे ज़मीन पर उतारने के लिए अपनी सामर्थ्य भर योगदान करें।

विचारों और गुरुत्वाकर्षण में है तो कोई रिश्ता!

सुनीता विलियम्स इस समय भारत में हैं और शायद आज हैदराबाद में 58वीं इंटरनेशनल एस्ट्रोनॉटिकल कांग्रेस (आईएसी) के खत्म होने के बाद वापस लौट जाएंगी। वैसे तो उनसे मेरा मिलना संभव नहीं है। लेकिन अगर मिल पाता तो मैं उनसे एक ही सवाल पूछता कि जब आप 195 दिन अंतरिक्ष में थीं, तब शून्य गुरुत्वाकर्षण की स्थिति में आपके मन के कैसे विचार आते थे, आते भी थे कि नहीं? कहीं उस दौरान आप विचारशून्य तो नहीं हो गई थीं?
असल में एक दिन यूं ही मेरे दिमाग में यह बात आ गई कि हमारे विचार गुरुत्वाकर्षण शक्ति का ही एक रूप हैं। स्कूल में पढ़े गए ऊर्जा संरक्षण के सिद्धांत से इस विचार को बल मिला और मुझे लगा कि जहां गुरुत्वाकर्षण बल नहीं होगा, वहां विचार और विचारवान जीव पैदा ही नहीं हो सकते।
जिस तरह चिड़िया अपने पंख न फड़फड़ाए या हेलिकॉप्टर अपने पंख न घुमाए तो वह धड़ाम से नीचे गिर पड़ेगा, उसी तरह इंसान विचार न करे तो वह धरती में समा जाएगा, मिट्टी बन जाएगा। वैसे मुझे पता है कि यह अपने-आप में बेहद छिछला और खोखला विचार है क्योंकि अगर ऐसा होता तो धरती के सभी जीव विचारवान होते, जानवर, पेड़-पौधों और इंसान के मानस में कोई फर्क ही नहीं होता। फिर मुझे ये भी लगा कि हम अपने ब्रह्माण्ड के बारे में जानते ही कितना हैं?
अभी-अभी मैंने पढ़ा है कि हम अपने ब्रह्माण्ड के बारे में बमुश्किल 4 फीसदी ही जानते हैं। यह मेरे जैसे मूढ़ का नहीं, 1980 में नोबेल पुरस्कार जीतनेवाले भौतिकशास्त्री जेम्स वॉट्सन क्रोनिन का कहना है। आपको बता दूं कि क्रोनिन को यह साबित करने पर नोबेल पुरस्कार मिला था कि प्रकृति में सूक्ष्मतम स्तर पर कुछ ऐसी चीजें हैं जो मूलभूत सिमेट्री के नियम से परे होती हैं। उन्होंने अंदाज लगाया है कि कॉस्मिक उर्जा का 73 फीसदी हिस्सा डार्क एनर्जी और 23 फीसदी हिस्सा डार्क मैटर का बना हुआ है। इन दोनों को मिलाकर बना ब्रह्माण्ड का 96 फीसदी हिस्सा हमारे लिए अभी तक अज्ञात है। बाकी बचा 4 फीसदी हिस्सा सामान्य मैटर का है जिसे हम अणुओं और परमाणुओं के रूप में जानते हैं।
डार्क मैटर का सीधे-सीधे पता लगाना मुमकिन नहीं है क्योंकि इससे न तो कोई विकिरण होता है और न ही प्रकाश का परावर्तन। मगर इसके होने का एहसास किया जा सकता है क्योंकि इसका गुरुत्वाकर्षण बल दूरदराज की आकाशगंगाओं से आते प्रकाश को मोड़ देता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि वे डार्क मैटर के गुण और लक्षणों के बारे में तो थोड़ा-बहुत जानते हैं, लेकिन यह नहीं जानते कि यह किन कणों से बना है। हो सकता है कि ये अभी तक न खोजे गए ऐसे कण हों जो उस बिग बैंग से निकले हों जिससे करीब 13 अरब साल पहले ब्रह्माण्ड की रचना हुई थी।
माना जा रहा है कि यह एक सुपर-सिमेट्रिक कण न्यूट्रालिनो हो सकता है, जिसके वजूद को अभी तक साबित नहीं किया जा सका है। भौतिकशास्त्री अगले दस सालों में तीन प्रमुख सवालों का जवाब तलाशना चाहते हैं। एक, कॉस्मिक किरणें कहां से निकली हैं? दो, न्यूट्रालिनो का भार (मास) क्या है? और तीन, गुरुत्वाकर्षण तरंगें क्या हैं, उनके प्रभाव क्या होते हैं?
माना जाता है कि जिस तरह नांव पानी में चलने पर अगल-बगल लहरें पैदा करती है, उसी तरह नक्षत्र या ब्लैक-होल अपनी गति से दिक और काल के रेशों में गुरुत्वाकर्षण तरंगें पैदा करते हैं। इस तंरगों को पकड़ लिया गया तो ब्रह्माण्ड की 73 फीसदी डार्क एनर्जी को समझा जा सकता है। इसी तरह न्यूट्रालिनो को मापना बेहद-बेहद मुश्किल है क्योंकि ये तकरीबन प्रकाश की गति से चलते हैं, मगर इनमें कोई इलेक्ट्रिक चार्ज नहीं होता और ये किसी भी सामान्य पदार्थ के भीतर से ज़रा-सा भी हलचल मचाए बगैर मज़े से निकल जाते हैं। इस न्यूट्रालिनो का पता चल गया तो ब्रह्माण्ड के 23 फीसदी डार्क मैटर का भी पता चल जाएगा।
उफ्फ...इस डार्क मैटर और एनर्जी के चक्कर में गुरुत्वाकर्षण और विचारों के रिश्ते वाली मेरी नायाब सोच पर विचार करना रह ही गया। और, अब लिखूंगा तो यह अपठनीय पोस्ट और भी लंबी हो जाएगी। इसलिए अब पूर्णविराम। लेकिन आप मेरी नायाब सोच पर सोचिएगा ज़रूर।

Thursday 27 September, 2007

चीन और भारत बराबर भ्रष्ट हैं

चीन विकास के बहुत सारे पैमानों पर भारत से आगे हो सकता है, लेकिन भ्रष्टाचार के पैमाने पर दोनों दुनिया में इस साल 72वें नंबर पर हैं। ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल की ताजा रिपोर्ट में यह बात कही गई है। लेकिन ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के प्रमुख हुग्युत्ते लाबेले के मुताबिक उनका करप्शन परसेप्शंस इंडेक्स (सीपीआई) असली भ्रष्टाचार का पैमाना नहीं है, बल्कि यह दर्शाता है कि दुनिया के विशेषज्ञ किसी देश को कितना भ्रष्ट मानते हैं। इन विशेषज्ञों का चयन कैसे किया जाता है, इसके बारे में ट्रासपैरेंसी इंटरनेशनल की साइट कुछ नहीं बताती।
इस बार 180 देशों का सीपीआई निकाला गया और इसमें न्यूज़ीलैंड, डेनमार्क और फिनलैंड 10 में 9.4 अंकों के साथ सबसे ऊपर हैं, जबकि सोमालिया और म्यांमार 1.4 अंक के साथ आखिरी पायदान पर हैं। इनके ठीक ऊपर 1.5 अंक के साथ अमेरिकी आधिपत्य वाले इराक का नंबर आता है। भारत और चीन के 3.5 अंक हैं। इतने ही अंकों से साथ इसी पायदान पर सूरीनाम, मेक्सिको, पेरू और ब्राजील भी मौजूद हैं। भारतीय महाद्वीप में हमसे ज्यादा भ्रष्ट क्रमश: श्रीलंका (3.2), नेपाल (2.5), पाकिस्तान (2.4) और बांग्लादेश (2.0) हैं। लेकिन श्रीलंका, नेपाल और पाकिस्तान इस बात पर संतोष कर सकते हैं कि रूस 2.3 अंक के साथ उनसे ज्यादा भ्रष्ट है।
जानेमाने विकसित देशों में सबसे भ्रष्ट अमेरिका (7.2) है। उसके बाद फ्रांस (7.3), जर्मनी (7.8), इंग्लैंड (8.4) और कनाडा (8.7) का नंबर आता है। लेकिन ट्रांसपैरेंसी इंटरनेशनल के प्रमुख ने बड़ी दिलचस्प बात कही है कि विकसित देशों में भले ही भ्रष्टाचार कम हो, लेकिन विकासशील और गरीब देशों में इन्हीं देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां भ्रष्टाचार फैलाने का जरिया बनती हैं। अपने देश में भ्रष्टाचार करें तो इनके खिलाफ सख्त कार्रवाई की जा सकती, लेकिन गैर-मुल्कों में इनका खुला खेल फरुखाबादी चलता है। वैसे कितना अजीब-सा तथ्य है कि जहां जितनी गरीबी है, वहां उतना ही ज्यादा भ्रष्टाचार है। यानी गरीबी मिटाकर ही भ्रष्टाचार का अंतिम खात्मा किया जा सकता है। इसका उल्टा नहीं।
भारत की स्थिति में पिछले साल से थोड़ा सुधार हुआ है। साल 2006 में यह 3.3 अंक के साथ 163 देशों में 70वें नंबर पर था, जबकि साल 2007 में 3.5 अंक के साथ 180 देशों में इसका नंबर 72वां है। इसका इकलौता कारण राइट टू इनफॉरमेशन (आरटीआई) एक्ट को माना गया है। लेकिन आरटीआई के दायरे में केवल नौकरशाही आती है। इसके दायरे से न्यायपालिका बाहर है और नेता तो छुट्टा घूम ही रहे हैं, जबकि कोई भी भ्रष्टाचार बिना उनकी मिलीभगत के संभव नहीं है।
अच्छा संकेत यह है कि सरकार भ्रष्टाचार निरोधक कानून, 1988 में ऐसा संशोधन लाने की तैयारी में है जिससे संसद और विधानसभा के पीठासीन अधिकारियों को भ्रष्ट विधायकों और सांसदों के खिलाफ मुकदमा चलाने की इजाजत देने का अधिकार मिल जाएगा। वैसे आपको बता दूं कि भ्रष्टाचार हटाने के कदम किसी आम आदमी के दबाव में नहीं, बल्कि मध्यवर्ग और कॉरपोरेट सेक्टर के दबाव में उठाए जा रहे हैं। ये अलग बात है कि इनका बाई-प्रोडक्ट आम आदमी को भी मिल सकता है।

मैंने देखी आस्तीन के अजगर की मणि, कल ही

आस्तीन के सांप के बारे में आपने ही नहीं, मैंने भी खूब सुना है। आस्तीन के सांपों से मुझे भी आप जैसी ही नफरत है। लेकिन कल मैंने आस्तीन का अजगर देखा और यकीन मानिए, दंग रह गया। मैंने उसकी मणि को छूकर-परखकर देखा और पाया कि आस्तीन के इस अजगर में छिपा हुआ है एक उभरता हुआ प्रतिभाशाली लेखक।
माफ कीजिएगा। इस नए ब्लॉगर से आपका परिचय कराने के लिए इस पोस्ट में चौकानेवाला शीर्षक लगाकर मैं आपको यहां तक खींच कर लाया हूं। क्या करता मैं? इस ब्लॉगर ने अपना नाम ही आस्तीन का अजगर रखा है और इसके बारे में मैं और कुछ जानता ही नहीं। इसके प्रोफाइल से पता ही नहीं लगता कि इसका असली नाम क्या है, इसकी उम्र क्या है, रहता कहां है। और इसने अपने नए-नवेले ब्लॉग का नाम भी रखा है – अखाड़े का उदास मुगदर। मैंने धड़ाधड़ इस ब्लॉग की सभी पोस्ट पढ़ डाली और तभी पता चला कि इनके लेखन में कितना दम है, इनकी सोच में कितनी ताज़गी है। कुछ बानगी पेश है।
पहले जिये का कोई अगला पल नहीं होता की कुछ लाइनें देख लीजिए।
"कभी गौतम बुद्ध ने पीछे मुड़कर अपने दुनियादार अतीत को देखा होगा भी तो शायद किसी दृष्टांत के साथ ही. जो गैरजरूरी था, अस्वीकार्य था वह छोड़ दिया गया है, अब उसके लिए परेशान होने की क्या जरूरत है. जो सामने है उसे देखो और अगर तुम जी रहे हो उसे जो हाथ में है, तो फिर परेशान होने की क्या बात है. मेरा सोच ये है कि दुख हो या सुख अगर असली है तो इतना घना होगा कि आप सोच विचार करने लायक ही नहीं होंगे....
अक्सर वही दिन होते हैं, जब हमें सिर झुकाए सूरजमुखी और टूटे पर वाले परिंदे दिखलाई पड़ते हैं."
अब दूसरी पोस्ट लौटने की कोई जगह नहीं होती की एक झलक देखिए...
"कुछ खास लोगों के साथ आप अपने जिंदगी के सबसे अच्छे पल, सूर्यास्त, सबसे अच्छी शराब बांटना चाहते हैं. आप पहले तो ये साबित करना चाहते हैं कि वे आपके लिए खास हैं और दूसरा ये कि आप ऐसे किसी खास मुकाम तक पंहुच चुके हैं जो लोगों को जताना बताना जरूरी है. वरना उस चीज की कीमत ही वसूल नहीं होती, जो आपने हासिल की हो."
इस ब्लॉग की ताज़ातरीन पोस्ट है अमहिया के एक जीनियस दोस्त को चिट्ठी। इसे आप खुद पढ़े। इससे पहले की कल 26 सितंबर वाली पोस्ट में सुनीता विलियम्स के गुजरात आने और नरेंद्र मोदी से मिलने-जुलने का रोचक विश्लेषण किया गया है। मुझे चारों पोस्टों को पढ़कर यह पता चला है कि आस्तीन का अजगर साइंस का विद्यार्थी रहा है। शायद वह भोपाल के किसी मीडिया संस्थान में काम करता है। बस, इसके अलावा उसका ब्लॉग कुछ नहीं बताता। हां, पूत के पांव पालने में ही दिख गए हैं। आस्तीन के अजगर ने अपनी मणि की झलक दिखला दी है। शायद आपको भी इसके ब्लॉग पर जाकर मेरे जैसा ही कुछ लगे। खैर, जो भी हो। इस नए अपरिचित ब्लॉगर का तहेदिल से स्वागत और उसके दमदार लेखन की शुभकामनाएं।

Wednesday 26 September, 2007

मची है उन्माद की लूट

आज मुंबई की सड़कों पर टीम इंडिया के स्वागत पर जैसा उन्माद दिखा और फिर पवार मार्का नेताओं ने जिस तरह इसे भुनाने की कोशिश की, उस पर मेरी पत्नी से रहा नहीं गया और उन्होंने लिख डाली ये पोस्ट। आप भी गौर फरमाइए। शायद आपको इसमें अपनी भी भावनाओं और सवालों की झलक मिल जाए।

क्रिकेट खेल था। धर्म कब से बन गया?
खेल, उत्साह था। उन्माद कब से बन गया।
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खिलाड़िय़ों के लिए खेल उन्माद हो तो समझ में आता है।
एक आदमी के लिए खेल, खेल ही रहता तो अच्छा होता।
खुश होता, जीत की खुशिय़ां मनाता और दूसरे दिन काम पर लग जाता।
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मैं एक आम आदमी हूं।
सड़कों पर उतरकर भेड़ हो गया, भीड़ का हिस्सा हो गय़ा।
भीड़ बनकर मैंने सोचना बंद कर दिय़ा।
कि मेरी गाढ़ी कमाई से कटा टैक्स कहां जा रहा है।
कि मेरी कामवाली बाई के पास एक छाता तक नहीं और मैंने उसे सौ रुपए की मदद तक नहीं की।
यहां, रैपिड एक्शन फोर्स, नेताओं की सफेद वर्दी, करोडों के इंत़जामात, रुके हुए ट्रैफिक से रुका हुआ व्य़ापार...सबकी क़ीमत मैं सहर्ष उठाऊंगा।
खुशिय़ां जो मनानी है।
उन्माद के सिवा अब कोई खुशी भाती नहीं।
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मैं एक य़ुवा लड़की हूं।
कितनी खुश हुई wow! उस मोटे तग़डे नेता के पीछे बैठे य़ुवराज..ओं की कुछ झलक तो मिल जा रही थी।
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वैसे राजा-महाराजे का हमें इतना शौक था तो उन बिचारों को उखाड़ क्य़ों फेंका।
रा...ज तिलक कर हम इतने सारे राजे फिर से ला रहे हैं।
उ..इमां, हमारी समझ में कम आता है ज़रा स्पष्ट कीजिएगा तो।
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वैसे सुनते हैं क्रिकेट नाम का कोई नया धर्म बाज़ार में आ गया है।
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मैं एक रा..जनेता हूं। हा-हा-हा।
मैं एक विज्ञापनकर्ता – प्रायोजक हूं। हा-हा-हा।
करोड़ों लोगो के उन्माद को मैं एक जलसे के एलान भर से खरीद सकता हूं।
बलिहारी खेल क्रिकेट की। लोगों की भावनाओं से खेलने का रामबाणी नुस्खा दिला दिया है। जुलूस निकालवा देंगे।
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लोगों, मैं एक जुलूस हूं। इस भीड़ में शामिल मैं बोदा-बंदरराम हूं, न देखूं, न बोलूं, न सोचूं। सोचने की ज़रूरत क्या है, सभी तो यहीं, जुलूस में हैं।

अपमानित हॉकी टीम भूख हड़ताल करेगी

भारत का राष्ट्रीय खेल हॉकी है। लेकिन हमें इससे क्या, हम तो क्रिकेट के दीवाने हैं! और हमारी इस दीवानगी को बीसीसीआई ही नहीं, देश के नेता तक भुनाने में लग गए हैं। सबसे आगे हैं बीसीसीआई के अध्यक्ष और कृषि मंत्री शरद पवार। इसके बाद आते हैं उड्डयन मंत्री प्रफुल्ल पटेल और फिर आती हैं महाराष्ट्र, हरियाणा, झारखंड और कर्नाटक की राज्य सरकारें। लेकिन भारतीय हॉकी इससे खुद को इतना अपमानित महसूस कर रही है कि राष्ट्रीय हॉकी कोच जोक्विम कार्वाल्हो, मैनेजर आर के शेट्टी और टीम के चार खिलाड़ियों विक्रम कांत, वी आर रघुनाथ, एस वी सुनील और इग्नास तिरकी ने कर्नाटक के मुख्यमंत्री के घर के आगे भूख हड़ताल करने का फैसला किया है।
उनकी शिकायत यह है कि अभी ढाई हफ्ते पहले ही भारतीय हॉकी टीम ने एशिया कप बेहद शानदार अंदाज में जीता है। टीम ने इस टूर्नामेंट में 57 गोल किए जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। लेकिन देश के इस राष्ट्रीय खेल के लिए महज जुबानी शाबासी दी गई, जबकि 20/20 विश्व कप जीतनेवाली क्रिकेट टीम पर करोड़ों न्योछावर किए जा रहे हैं। कर्नाटक सरकार की हालत ये है कि उसने हॉकी टीम को जीतने की बधाई तक नहीं दी है, जबकि क्रिकेट टीम के सदस्यों को पांच-पांच लाख रुपए का ईनाम देने की घोषणा की है।
हॉकी टीम के राष्ट्रीय कोच कार्वाल्हो ने सवाल उठाया है कि हमारे हॉकी खिलाड़ियों के साथ इस तरह का सौतेला व्यवहार क्यों किया जा रहा है और राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद हमारे नेता क्रिकेट के प्रति इतने आसक्त क्यों हैं?
कार्वाल्हो का सवाल बड़ा वाजिब है। आपको भी इसका जवाब सोचना पड़ेगा। मेरे पास तो इस सवाल का मोटामोटी जवाब यह है कि जहां गुड़ होता है, चीटियां उधर ही भागती हैं, जहां कमाई है, उधर ही सब टूट पड़ते हैं। क्रिकेट मे कमाई हैं तो नेताओं से लेकर कंपनियां तक उधर ही टूटी पड़ी हैं। ये तो भला हो सहारा ग्रुप का, जिसने कुछ साल पहले न जाने क्या सोचकर भारतीय हॉकी टीम को स्पांसर कर दिया।

राम-राम! गजब गड्डम-गड्ड, पलट गई बीजेपी

रामसेतु के मुद्दे पर बीजेपी पलट गई है। बीजेपी के पूर्व अध्यक्ष वेंकैया नायडू ने बयान दिया है कि उनकी पार्टी सेतु-सुंदरम परियोजना के खिलाफ नहीं है। उसे तो एतराज इस परियोजना के केवल ‘एलाइनमेंट’ पर है। वेंकैया नायडू ने कहा, “कोई भी इस परियोजना के खिलाफ कैसे हो सकता है। कांग्रेस और उसके सहयोगियों ने जिस तरह की टिप्पणियां की हैं, हम उससे आहत हुए हैं।”
सेतु-सुंदरम परियोजना घाटे का सौदा
सेतु-सुंदरम परियोजना के लिए कर्ज का इंतज़ाम करनेवाले एक्सिस बैंक (पूर्व नाम, यूटीआई बैंक) के प्रमुख अधिकारी आशीष कुमार सिंह का कहना है कि इस परियोजना की लागत इतनी बढ़ गई है कि अब उसे कभी पूरा ही नहीं किया जा सकता। साल 2004 में जब इस परियोजना का खाका बनाया गया था, तब इसकी अनुमानित लागत 2427 करोड़ रुपए थी, जिसमें से 971 करोड़ रुपए सरकार की इक्विटी के रूप में लगने थे और बाकी 1456 करोड़ रुपए कर्ज से जुटाए जाने थे। साल 2005 में ही इसकी लागत बढ़कर 3500 करोड़ रुपए हो चुकी है और तब से लगातार बढ़ती जा रही है। इस बढ़ी लागत के चलते अब इसे बनाना पूरी तरह घाटे का सौदा बन चुका है। इसलिए इसके लिए कोई भी कर्ज देने को तैयार नहीं है।
राम की सेना ने ही तोड़ दिया था रामसेतु
अयोध्या के सबसे खास, हनुमान गढ़ी मंदिर के महंत ज्ञानदास का कहना है, “वे (बीजेपी और वीएचपी) सिर्फ रामसेतु का इस्तेमाल सत्ता और पैसा हासिल करने के लिए करना चाहते हैं।”
विवादित राम जन्मभूमि के मुख्य पुजारी आचार्य सत्येंदर दास का कहना है कि बीजेपी और वीएचपी ने राम मंदिर के मुद्दे पर जनता के साथ धोखा किया। और, जब उन्हें लग गया कि अब राम मंदिर के मुद्दे का इस्तेमाल नहीं कर पाएंगे तो वे रामसेतु पर भावनाएं भड़काने की कोशिश कर रहे हैं।
अयोध्या के एक और प्रमुख मंदिर सरयू कुंज के महंत जुगलकिशोर शरण शास्त्री तो बड़े ही मुंहफट हैं। उनका कहना है कि राम की सेना ने लंका तक पहुंचने के बाद समुद्र देवता के अनुरोध पर रामसेतु को ही नष्ट कर दिया था और रावण-वध के बाद राम और उनकी सेना पुष्पक विमान से अयोध्या वापस लौटी थी। इसलिए एडम्स ब्रिज कभी रामसेतु हो ही नहीं सकता।

Tuesday 25 September, 2007

पाकिस्तान की हार पर इतनी बल्ले-बल्ले?

दिल पर हाथ रखकर बताइए कि अगर ट्वेंटी-ट्वेंटी के फाइनल में भारत ने पाकिस्तान के बजाय ऑस्ट्रेलिया, साउथ अफ्रीका, इंग्लैंड, बांग्लादेश या श्रीलंका को हराया होता, तब भी क्या आप इतना ही बल्ले-बल्ले करते? यकीनन नहीं। क्यों? क्योंकि 60 साल पहले हुए बंटवारे का घाव हर भारतीय के अवचेतन में अब भी टीसता है। ऊपर से दंगों की राजनीति और चार युद्धों ने इस घाव को कभी भरने नहीं दिया है। फिर, इस विभाजक राजनीति को बराबर हवा देता है पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद। अगर पाकिस्तान को खेल के मैदान में हराने का यह जुनून दोनों तरफ के दिलों में पैठी नफरत के शमन (purging act) का काम करता तो मुझे अच्छा लगता। लेकिन आपत्ति इस बात पर है कि यह जुनून भयंकर युद्धोन्माद की ज़मीन तैयार करता है।
ऐसे में एक भावुक हिंदुस्तानी की तरफ से मेरा यह सवाल है और अपील भी कि क्या इतिहास की भयानक भूल को सुधारा नहीं जा सकता? क्या जर्मनी, ऑस्ट्रिया, कोरिया, यमन या वियतनाम की तरह भारत-पाकिस्तान कभी एक नहीं हो सकते? क्या यूरोपीय संघ की तरह कोई भारतीय महासंघ नहीं बन सकता? लेकिन जानकार लोग कहते हैं कि ऐसा संभव नहीं है और हमें अखंड भारत या भारतीय महासंघ के विचार को हमेशा के लिए दफ्न कर देना चाहिए।
इनका कहना है कि आज जिसे हम भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश कहते हैं, वह हमेशा से एक देश नहीं, महाद्वीप था, जिसमें शामिल रियासतें और राज्य हमेशा एक-दूसरे से लड़ते रहते थे। 1857 से पहले इन पर राजाओं और नवाबों का राज था। इसके बाद भारत ब्रिटिश उपनिवेश बन गया। ब्रिटिश साम्राज्य ने नौ दशकों के शासन के दौरान खंड-खंड बिखरे भारत को अंग्रेजी भाषा, रेलवे, न्यायपालिका और सेना के जरिए एकजुट किया। अंग्रेज शासकों के लिए ब्रिटिश इंडिया एक देश था। बाद में अंग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों ने ब्रिटिश इंडिया की धारणा को आत्मसात किया। वो भारत को एक देश मानने लगे, जबकि हकीकत में 20 भाषाओं, अलग-अलग रियासतों और कई सरकारों वाले देश का चरित्र किसी महाद्वीप जैसा ही रहा।
अंग्रेज़ों ने भारत छोड़ा तो उन्होंने एक देश के बजाय दो राष्ट्रों को सत्ता सौंप दी। भारत को पूर्ण आज़ादी के लिए अपना एक हिस्सा छोड़ना पडा़। पाकिस्तान को भी मुस्लिम-बहुल राज्यों के बजाय कृत्रिम रूप से बनाया गया मुस्लिम इलाका स्वीकार करना पड़ा। आज भारत और पाकिस्तान के बीच कोई समान सेतु नहीं है, इसलिए अखंड भारत की सोच को एक सिरे से खारिज़ कर देना चाहिए।
लेकिन क्या सचमुच ऐसा है? क्या ढाका के किसी बंगाली और कोलकाता के किसी बंगाली में आप फर्क कर सकते हैं? क्या लाहौर या कराची के किसी बाशिंदे और हैदराबाद, मुरादाबाद या लखनऊ के किसी बाशिंदे की तहजीब में आप फर्क गिना सकते हैं? भारत के राष्ट्रगान और बांग्लादेश के राष्ट्रगान के रचयिता क्या गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर नहीं हैं? क्या भारत की पश्चिमी सीमा पाकिस्तान से और पूर्वी सीमा बांग्लादेश से नहीं जुड़ी हुई है? क्या पाकिस्तान के बड़े हिस्से में बोली जानेवाली उर्दू और हिंदी में बहुत ज्यादा फर्क है? आडवाणी की रग-रग में सिंध की संस्कृति दौड़ती है, मुशर्रफ की रगों में दिल्ली का दरियागंज बोलता है और मनमोहन सिंह के जेहन में पाकिस्तानी पंजाब के चकवाल ज़िले की माटी की खुशबू है।
आज दोनों देश आतंकवाद से लेकर विकास की एक जैसी समस्याओं से जूझ रहे हैं। ऐसे में क्या यह संभव नहीं है कि हम आपसी नफरत और युद्ध के नुकसान की तुलना शांति के फायदे से करें। यकीनन, हम इतिहास को बदल नहीं सकते। लेकिन नया इतिहास रचने से हमें कौन रोक सकता है?

मिसफिट लोगों का जमावड़ा है ब्लॉगिंग में

कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं ज़मीन तो कहीं आसमान नहीं मिलता
बाज़ार में अपनी कीमत खोजने निकले ज्यादातर लोगों को भी मुकम्मल जहां नहीं मिलता, सही और वाजिब कीमत नहीं मिलती। मिलती भी है तो उस काबिलियत की नहीं जो उनके पास है। जिसने जिंदगी भर साइंस पढ़ा, फिजिक्स में एमएससी टॉप किया, उसे असम के करीमगंज ज़िले का डीएम बना दिया जाता है। जिसने इलेक्ट्रॉनिक्स में आईआईटी किया, उसे कायमगंज का एसपी बना दिया जाता है। किसी कवि को रेलवे में डायरेक्टर-फाइनेंस बनना पड़ता है तो किसी फुटबॉल खिलाड़ी को हस्तशिल्प विभाग में ज्वाइंट सेक्रेटरी की कुर्सी संभालनी पड़ती है। ऊपर से सरकारी आंकड़ों के मुताबिक देश में कम से कम 3.50 करोड़ बेरोज़गार हैं जिनको बाज़ार दो कौड़ी का नहीं समझता।
जिनको कीमत मिली है, वो भी फ्रस्टेटेड हैं और जिनको अपनी कोई कीमत नहीं मिल रही, वो भी विकट फ्रस्टेशन के शिकार हैं। हमारे इसी हिंदीभाषी समाज के करीब हज़ार-पंद्रह सौ लोग आज ब्लॉग के ज़रिए अपना मूल्य आंकने निकल पड़े हैं। इनमें से कुछ सरकारी अफसर है, कुछ प्राइवेट सेक्टर में नौकरियां करते हैं, बहुत से पत्रकार हैं और बहुत से स्ट्रगलर हैं। यहां फ्रस्टेशन का निगेटिव अर्थ न लिया जाए। यह एक तरह का पॉजिटिव फ्रस्टेशन है जो हर तरह के ठहराव को तोड़ने की बेचैनी पैदा करता है, आपको चैन से नहीं बैठने देता। आपको मिसफिट बना देता है।
ऐसे ही मिसफिट लोग ब्लॉग में अपने संवाद के ज़रिए खुद के होने की अहमियत साबित करना चाहते हैं। किसी को लगता है कि वह सबका दोस्त, दार्शनिक और गाइड है तो किसी को लगता है कि वह आज के जमाने का सबसे बड़ा उपन्यासकार बनने की प्रतिभा रखता है और आज के ज़माने का रामचरित मानस वही लिख सकता है। कोई भाषाशास्त्री है तो कोई महान सेकुलर बुद्धिजीवी। कोई साम्यवाद तो कोई हिंदू राष्ट्र की स्थापना का बीड़ा उठाए हुए है। कोई साहित्य की नई धारा ही शुरू कर रहा है। किसी को कुछ नहीं मिल रहा तो अपनी पाक-कला ही परोस रहा है, निवेश की सलाह दे रहा है। कहने का मतलब यह कि सभी अपनी-अपनी विशेषज्ञता के हीरे-मोतियों के साथ इंटरनेट के सागर में कूद पड़े हैं।
लोग भले ही कहें कि वे स्वांत: सुखाय लिख रहे हैं। लेकिन हिट और कमेंट के लिए हर कोई बेचैन रहता है। ब्लॉग से कैसे कमाई हो सकती है, ऐसी कोई भी पोस्ट शायद ही कोई ब्लॉगर ऐसा होगा जो नहीं पढ़ता होगा। सभी अपनी वास्तविक प्राइस डिस्कवरी में लगे हुए हैं। लेकिन इस कशिश में, अंदर और बाहर के इस मंथन में नकारात्मक कुछ नहीं, सकारात्मक बहुत कुछ है। आज हिंदी के संवेदनशील पाठक खुद ही लेखक बन गए हैं और इस तरह उन्होंने जीवन पर साहित्यकारों के एकाधिकार को तोड़ने का अघोषित अभियान शुरू कर दिया है। यही वजह है कि अब स्थापित कवियों और साहित्यकारों को भी ब्लॉग की दुनिया में आने को मजबूर होना पड़ा है। साहित्यकार चाहें तो ब्लॉग के लेखक अनुभूतियों का जो कच्चा माल पेश कर रहे हैं, उसकी मदद से वो शानदार रचना का महल खड़ा कर सकते हैं।
इसलिए जिस तरह ट्वेंटी-ट्वेंटी विश्व कप में हमने खड़े होकर भारत की जीत का स्वागत किया, वैसे ही हमें सारे हिंदी ब्लॉगर्स के आगमन का स्वागत करना चाहिए। ये ही लोग हैं नए ज़माने के रचनाकार, नए ज़माने के साहित्य के नायक। आखिर में मुक्तिबोध की कविता 'कहने दो उन्हें जो यह कहते हैं' की इन पंक्तियों को दोहराने का मन करता है कि ...
तुम्हारे पास, हमारे पास सिर्फ एक चीज़ है
ईमान का डंडा है, बुद्धि का बल्लम है
अभय की गेती है, हृदय की तगारी है, तसला है
नए-नए बनाने के लिए भवन आत्मा के, मनुष्य के....

Monday 24 September, 2007

क्या आप राहुल गांधी को प्रधानमंत्री मानेंगे?

आप मानें या न मानें। कांग्रेस ने तो इसकी तैयारी कर ली है। आज ही राहुल गांधी को पार्टी का महासचिव बना दिया गया। अभी राहुल की उम्र 37 साल है और इतिहास की बात करें तो उनके पिता राजीव गांधी 40 साल की उम्र में देश के प्रधानमंत्री बन गए थे। यानी, पूरे आसार हैं कि अगर 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस गठबंधन को बहुमत मिला तो सारे कांग्रेसी 39 साल के राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने के लिए चाटुकारिता की सारें हदें पार कर जाएंगे।
वैसे, राहुल गांधी और उनके पिता में कई समानताएं नज़र आ रही हैं। राजीव गांधी ने मई 1981 में जब राजनीति में प्रवेश किया था, तब उनकी भी उम्र 37 साल थी। एक महीने बाद वो अमेठी से एमपी चुन लिए गए। दो साल बाद 1983 में राजीव गांधी को कांग्रेस का महासचिव बना दिया गया। लेकिन राहुल और राजीव में समानता यहीं आकर ठहर जाती है क्योंकि जिन हालात में राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री बनाया गया था, वे अपवाद थे और अपवादों को नियम नहीं माना जा सकता।
ऑपरेशन ब्लू स्टार का पाप 31 अक्टूबर 1984 को इंदिरा गांधी की हत्या के रूप में सामने आया था। फिर हुए थे दिल्ली और सारे देश में सिख विरोधी दंगे। इसी बीच कांग्रेसियों ने राजीव गांधी को देश का प्रधानमंत्री चुन लिया। सिख विरोधी दंगों पर राजीव गांधी के इस बयान को आज भी लोग याद करते हैं कि जब बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती हिलती ही है। खैर, पूरे देश में इंदिरा गांधी की हत्या के बाद चली सहानुभूति की लहर में राजीव गांधी ने अब तक का सबसे बड़ा बहुमत हासिल किया और दिसंबर में बाकायदा प्रधानमंत्री चुन लिए गए।
कांग्रेस आज फिर गांधी परिवार के वारिस राहुल गांधी को प्रधानमंत्री बनाने की तरफ बढ़ रही है। लेकिन पूत ने अपने पांव पालने में ही दिखा दिए हैं। इसी साल मार्च में उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों के दौरान राहुल गांधी के उस बयान को याद करना चाहिए कि अगर गांधी परिवार का कोई प्रधानमंत्री होता तो दिसंबर 1992 में बाबरी मस्जिद नहीं ढहाई गई होती। लेकिन राहुल गांधी ने देश को यह नहीं बताया कि उनके पिता राजीव गांधी प्रधानमंत्री नहीं होते तो न तो बाबरी मस्जिद का ताला खुलता और न ही हिंदूवादियों को राम का मुद्दा मिलता।
आज फिर रामसेतु के बहाने में राजनीति में राम के नाम की वापसी हो चुकी है। कांग्रेस में हमेशा की तरह कद्दावर नेताओं का अभाव है। मनमोहन सिंह भले ही प्रधानमंत्री हों, लेकिन शायद ही कोई कांग्रेसी नेता उन्हें अपना नेता मानता है। यह तो सोनियां गांधी की कृपा है कि मनमोहन सिंह को कुर्सी मिली और वे अब भी उस पर विराजमान हैं। वरना, दलाली की संस्कृति में पली-बढ़ी कांग्रेस गांधी परिवार से आगे देख ही नहीं पाती। अर्जुन सिंह से लेकर एन डी तिवारी जैसे लोगों को वापस गांधी परिवार की छतरी में लौटना पड़ा था। इसलिए कोई भी कांग्रेसी इस छतरी से अलग होने की बात सोच भी नहीं सकता।
आज किसी भी कांग्रेसी में सोनिया गांधी या राहुल गांधी की कमियों के बारे में एक शब्द भी बोलने की हिम्मत नहीं है। राहुल गांधी की राजनीतिक काबिलियत उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों में साफ हो चुकी है। उनके पास गांधी के परिवार के होने के अलावा कोई और राजनीतिक-सांगठनिक कौशल नहीं है। वैसे, सोनिया गांधी गजब की कलाकार हैं। पहले प्रधानमंत्री की कुर्सी ठुकराकर भारतीय अवाम की नज़रों में त्याग की प्रतिमूर्ति बनीं। फिर धीरे से राहुल गांधी को आगे कर दिया और अब दिखावटी नानुकुर करने के बाद अपने लाडले को प्रधानमंत्री बनाने की फिराक में हैं। अगर देश को इस दुर्भाग्य से बचाना है तो हमें यही पुरजोर कोशिश करनी चाहिए कि अगले आम चुनावों में कांग्रेस को किसी भी सूरत में बहुमत ही न मिले।

चलो आज निकालते हैं अपना मूल्य

आज निकला हूं मैं अपना मूल्य निकालने। आध्यात्मिक अर्थों में नहीं, विशुद्ध सांसारिक अर्थों में। खुद को तो हम हमेशा मां की नज़र से ही देखते हैं। जिस तरह मां की नज़रों में काना बेटा भी पूरे गांव-जवार का सबसे खूबसूरत बेटा होता है, उसी तरह हम अपने प्रति मोहासिक्त होते हैं। घर-परिवार और दोस्तों के बीच, जब तक आप उपयोगी हैं, तब तक आप अ-मूल्य होते हैं। इनके लिए आप बस आप ही होते हैं। आपका कोई स्थानापन्न नहीं होता। आप का विनिमय नहीं हो सकता। लेकिन जब आप उपयोगी नहीं रहते तो अमूमन पलक झपकते ही दो कौड़ी के हो जाते हैं। ये अलग बात है कि प्यार के रिश्तों में फायदा नुकसान नहीं देखा जाता, वहां किसी रिटर्न की अपेक्षा नहीं होती, इसलिए वहां कीमत की बात ही नहीं आती।
असली मूल्यांकन तब शुरू होता है जब आप अपने और अपनों की परिधि से बाहर निकलते हैं। आपका असली मूल्य भी वही होता है जो दूसरे आंकते हैं। खुद की नज़र में तो हम कोहिनूर हीरे से कम नहीं होते। लेकिन आज बाज़ार में खुद को बेचने निकले ज्यादातर लोगों की शिकायत है कि लोग उनकी काबिलियत की कदर नहीं करते। वो जितना कर सकते हैं, उन्हें उसका मौका नहीं दिया जा रहा। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि इसका निष्पक्ष आकलन कैसे किया जाए कि कौन कितना कीमती है?
वस्तुओं का उपयोग मूल्य और विनिमय मूल्य अलग-अलग होता है। जैसे हवा इतनी उपयोगी है, लेकिन उसका विनिमय मूल्य शून्य होता है। हालांकि अब फाइव स्टार होटलों में शुद्ध ऑक्सीजन भी बेची जाने लगी है। मैंने सबसे पहले उपयोग और विनिमय मूल्य के इस अंतर को कार्ल मार्क्स की पूंजी के पहले खंड के पहले अध्याय में पढ़ा था। वैसे ईमानदारी से बताऊं तो एब्सट्रैक्ट एलजेबरा की गुत्थियां समझने में काबिल होने के बावजूद मुझे कुछ खास समझ में नहीं आया था। बस, हल्का-सा पता चला था कि समाज के विकासक्रम में उपयोग मूल्य एक स्तर के बाद विनिमय मूल्य में बदलने लगता है। समाज के विकास में समय की डाइमेंशन मुझे पहली बार तभी नज़र आई थी। यह बात भी मुझे चौंकानेवाली लगी थी कि आइंसटाइन का सापेक्षता सिद्धांत तो बाद में आया था, लेकिन मार्क्स ने समय की डाइमेंशन की अहमियत पहले ही समझ ली थी।
सवाल उठता है कि वस्तुओं का मूल्य तो बाज़ार तय कर देता है, लेकिन इंसान का मूल्य कैसे तय हो? गेहूं की सप्लाई घट गई तो उसकी कीमत बढ़ जाती है। प्याज की बहुतायत हो गई तो नासिक के किसान रोने लगते हैं क्योंकि उनकी प्याज को कोई दो रुपए किलो के भाव में भी नहीं पूछता। मांग और आपूर्ति से तय होती है जिंस की कीमत। फारवर्ड या वायदा बाज़ार में सट्टेबाज़ी के जरिए भावी कारकों को ध्यान में रखते हुए आगे की ‘प्राइस-डिस्कवरी’ की जाती है।
कंपनियां भी अपनी ‘प्राइस-डिस्कवरी’ शेयर बाज़ार में करती हैं। डीएलएफ जब तक स्टॉक एक्सचेंजों में लिस्टेड नहीं थी, तब तक उसके शेयर की कीमत का अंदाज़ा नहीं था। आज लिस्ट होने के बाद उसके दो रुपए के एक शेयर की कीमत बाज़ार में 700 रुपए के आसपास चल रही है। इसी तरह इनफोसिस के पांच रुपए के शेयर की कीमत इस समय 1825 रुपए के आसपास है। कंपनियों के लिए अपनी औकात पता लगाने का, प्राइस-डिस्कवरी का ज़रिया हैं स्टॉक एक्सचेंज।
लेकिन इंसान अपनी प्राइस-डिस्कवरी कैसे करे? इस पर मुझे अपने एक इलाहाबादी सहपाठी सेवकराम के गाने की लाइनें याद आ रही हैं कि, “वो बाज़ार में लाए हैं हमें आंखों पे परदा डाल के, चांदी के चंद सिक्के मिलेंगे हमको प्यारी खाल के।” तो हम बाज़ार में खड़े हैं। बाज़ार को ही हमारा मूल्य तय करना है। हम ब्लॉग पर अपनी बातें लिखकर भी तो अपना मूल्य तलाश रहे हैं! कैसे इसकी बात आगे, फिर कभी...

Sunday 23 September, 2007

हमारी तो अपनी ज़मीन है, तुम्हारा क्या है?

मैं आज यह जानकर अचंभे और शर्म से गड़ गया कि दुनिया में सबसे ज्यादा अंग्रेजी बोलने और जानने वाले भारत में हैं। दस-बारह साल पहले अमेरिका को ये सम्मान हासिल था। लेकिन आज भारत में करीब 35 करोड अंग्रेज़ी बोलने, समझने और सीखनेवाले लोग हैं। यह संख्या ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड की कुल अंग्रेजी बोलनेवाली आबादी से ज्यादा है। दिलचस्प बात ये है कि भारत में अंग्रेज़ी का इतना तेज़ प्रचार पिछले 20-25 सालों में हुआ है क्योंकि अस्सी के दशक में यहां अंग्रेजी बोलनेवालों की संख्या आबादी की महज 4-5 फीसदी हुआ करती थी। यानी, यह कहना ठीक नहीं है कि अंग्रेज़ चले गए, मगर अपनी औलादें यहीं छोड़ गए क्योंकि हमने किसी औपनिवेशिक हैंगओवर के चलते नहीं, अपनी मर्जी से अंग्रेजी को अंगीकार किया है।
लेकिन इसके बावजूद, जो लोग देश में अंग्रेजी के इस बढ़ते दबदबे और चलन को लेतर चिंतित रहते हैं, मुझे उनका डर अतिरंजित लगता है क्योंकि अंग्रेजी कितनी भी बढ़ जाए, वह किसी और मुल्क में पैदा हुई है। इसलिए अंग्रेजी का भारतीयकरण तो हो सकता है। उसका अलग भारतीय संस्करण बन सकता है। लेकिन हम अपने दम पर उस भाषा की मूल संरचना में कोई तब्दीली नहीं कर सकते। वैसे, अंग्रेज़ी को अपनाने वाले भारतीय ताल ठोंककर कहते हैं कि जब लंदन और न्यूयॉर्क वाले अलग तरीके से अंग्रेज़ी बोल सकते हैं तो बलिया या बिहार वाला अपने अंदाज़ में अंग्रेज़ी क्यों नहीं बोल सकता। अरुंधति रॉय भी अपनी अंग्रेजी के बारे में ऐसी ही बात कह चुकी हैं।
फिर भी मुझे लगता है कि अंग्रेज़ी क्योंकि मूलत: ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूज़ीलैंड वालों की भाषा है, इसलिए वहां के लोग जितनी आसानी से इसमें उलटफेर कर सकते हैं, उतनी छूट किसी भी हिंदुस्तानी को कभी नहीं मिल सकती। हम कोई अंग्रेजी में कोई शब्द गढ़ेंगे तब भी अंग्रेजी की दुनिया उसे स्वीकार नहीं करेगी।
इसके विपरीत हिंदी के पास ब्रज, अवधी, भोजपुरी से लेकर मैथिली, मगही जैसे अपने आसपास की बोलियां हैं। वह चाहे तो पंजाबी, हरियाणवी, पश्तो, मराठी या गुजराती के शानदार शब्द हमेशा के लिए उधार ले सकती है। इसके ऊपर से देश की 14 अन्य भाषाओं और 844 बोलियों का खज़ाना उसके पास है। इतना व्यापक आधार होते हुए हिंदी कभी सूख ही नहीं सकती। भारत भूमि से इसे मिटाना नामुमकिन है। अंग्रेजी को यहां का एक तबका फौरी तौर पर सुविधा के लिए अपना सकता है, लेकिन वह हमेशा के लिए उसकी भाषा नहीं बन सकती। पराई भाषा किसी मुल्क की मूल भाषा को कभी भी नहीं मिटा सकती।
वैसे आज भी अंग्रेज़ी की स्थिति भारतीय भाषाओं की सम्मिलित ताकत के सामने कहीं नहीं टिकती। दुनिया में 105 करोड़ बोलनेवालों के साथ चीनी भाषा पहले नंबर पर है। इसके बाद 51 करोड़ बोलनेवालों के साथ अंग्रेज़ी का नंबर दूसरा है, जबकि इसमें से आधे से ज्यादा लोग भारत के हैं। फिर तीसरे नंबर पर 49 करोड़ लोगों के साथ हिंदी विराजमान है। सीना ठोंकने वाली बात यह भी है कि दुनिया की तीस सबसे ज्यादा बोली जानेवाली भाषाओं में से नौ यानी एक-तिहाई भाषाएं भारत की हैं। अगर हिंदी में उर्दू बोलनेवालों की संख्या मिला दी जाए तो इनकी सम्मिलित ताकत 60 करोड़ के पास जा पहुंचती है।
इसलिए मेरा तो मानना है कि हिंदुस्तान में हिंदी की ज़मीन इतनी व्यापक है कि अंग्रेज़ी कभी भी उसका बाल बांका नहीं कर सकती। अंग्रेजी क्योंकि भारत की भाषा नहीं है, इसलिए वह लंबे दौर में सूख जाने के लिए अभिशप्त है। जब चीन की 90 फीसदी आबादी चीनी भाषा को अपना मान सकती है तो भारत में भी दक्षिण के राज्य इसको अपनाएंगे, इसमें कोई दो राय नहीं हो सकती। वैसे भी हिंदी किसी एक जगह विशेष की भाषा नहीं है, इसकी तो उत्पत्ति ही हिंदुस्तान की लिंक भाषा के रूप में हुई थी, जिसके बढ़ने में अंग्रेज़ों के आने से खलल पड़ गया।

कभी दोस्त बन के मिला करो

हम बहुत सारी चीजों को ही नहीं, बहुत सारे लोगों को भी टेकन-फॉर ग्रांटेड ले लेते हैं। खासकर उन लोगों को जो हम से बेहद करीब होते हैं जैसे बीवी-बच्चे। ये लोग हमारे अस्तित्व का हिस्सा बन जाते हैं उसी तरह जैसे हमारे हाथ-पांव, हमारी आंख-नाक, हमारे कान जिनके होने को हम पूरी तरह भुलाए रहते हैं जब तक इनमें से किसी को चोट नहीं लग जाती। इनके न होने का दर्द उनसे पूछा जाना चाहिए जो फिजिकली चैलेंज्ड हैं। इसी तरह जिन बीवी-बच्चों को हम घर की मुर्गी दाल बराबर समझते हैं, जो हमारे लिए भौतिक ही नहीं, मानसिक सुकून का इंतज़ाम करते हैं, उनके होने की कीमत हमें उनसे पूछनी चाहिए जो इनसे वंचित हैं, 35-40 के हो जाने के बावजूद छड़े बनकर जिंदगी काट रहे हैं।
एक दिक्कत हम पांरपरिक भारतीयों के साथ और भी है कि हम औरों पर तो जमकर खर्च कर देते हैं, लेकिन जहां कहीं खुद पर खर्च करने की बात आती है, वहीं हम पूरी कंजूसी पर उतर आते हैं। मितव्ययी, अपने को कष्ट में रखनेवाला व्यक्ति बड़ा सदगुणी माना जाता है अपने यहां। गांधीजी की महानता की और भी तमाम वजहें रही होंगी, लेकिन एक वजह यह भी थी कि वे सर्दी, गरमी और बरसात, हर मौसम में एक धोती में ही गुजारा कर लेते थे। फलाने तो बड़े साधू महात्मा हैं क्योंकि हिमालय की बर्फ में भी नंगे बदन रहते हैं।
अपने को कष्ट देने की यही आदत हम खुद के अलावा अपने परिवार वालों पर भी लागू कर देते हैं। अरे, क्या है... दो किलोमीटर ही दूर है। ऑटो में पैसे खर्च करने की क्या जरूरत, पैदल ही चले चलते हैं। उनकी हर छोटी-बड़ी बात और ज़रूरत को, अरे इसमें क्या है, कहकर टाल देते हैं। हमें गुमान होता है कि हम कमाकर ला रहे हैं तभी सबका गुज़ारा चल रहा है। इसी गुमान में हम अपने आश्रितों को अपनी प्रजा जैसा समझने लगते हैं। उन्हें बात-बात में झिड़कना हमारी आदत बन जाती है।
लेकिन यही व्यवहार हम उनसे नहीं करते जिनके साथ नजदीकी के बावजूद हमसे थोड़ा फासला है। दोस्त चाहे पुराना हो या नया, उसकी पूरी बात हम सुनते हैं। उसको कुछ बोलने से पहले सोचते हैं कि उसे बुरा तो नहीं लगेगा। बीवी-बच्चे कहेंगे कि चलो आज किसी होटल में खाना खाते हैं तो आप कोई न कोई बहाना बनाकर टाल जाएंगे। लेकिन दोस्त कहेगा कि आज पार्टी होनी चाहिए तो आपके लिए मना कर पाना थोड़ा मुश्किल रहेगा। दोस्त अपना लगता है, अपने बराबर का लगता है, लेकिन घरवाले अपने होते हुए भी अपने से कमतर लगते हैं, छोटे लगते हैं।
शायद हमारे इसी भाव को ताड़कर घरवाले भी हमसे दूरी बनाने लगते हैं। खाने-पीने, रहने-सोने का ही रिश्ता घर से रह जाता है हमारा। ऐसी हालत में कुछ लोगों को ऑफिस इतना भाने लगता है कि वे ज़रूरत से ज्यादा वक्त ऑफिस में ही बिताने लगते हैं। संबंधों की एकरसता से जबरदस्त ऊब पैदा होती है और हम इस ऊब की वजह घरवालों को ही मानने लगते हैं। कभी अपनी तरफ नहीं देखते कि कहीं इसकी वजह हम खुद ही तो नहीं हैं।
असल में नब्बे फीसदी मामलों में घरेलू रिश्तों में ऊब और एकरसता के आने के दोषी हम ही होते हैं। हम दूसरों से केयर तो करवाना चाहते हैं, खुद किसी की केयर नहीं करना चाहते। लेकिन दोस्त तो छोड़ दीजिए, अपरिचितों के साथ भी हम केयर की मुद्रा अपना लेते हैं। इसीलिए मेरा कहना है और यह मैं हवा में नहीं, अपने तजुर्बे से कह रहा हूं कि कभी अपने लोगों के साथ, बीवी-बच्चों के साथ दोस्तों की तरह भी पेश आया करो। घर से निकलते हुए अचानक बीवी से हाथ मिला लें और पूछ लें – कैसी हैं आप। इस सिलेसिले को थोड़े-थोड़े अंतराल के बाद दोहराते रहें। फिर देखिए, रिश्ते बराबर खुशनुमा बने रहेंगे। बार-बार आपका मन करेगा कि आप फौरन भागकर घर पहुंच जाएं।

Saturday 22 September, 2007

इतिहास नहीं, हमारे लिए तो मिथक ही सच

इतिहास के प्रोफेसरों के लिए राम-कृष्ण भले ही काल्पनिक चरित्र हों, लेकिन मेरे जैसे आम भारतीय के लिए राम और कृष्ण किसी भी चंद्रगुप्त मौर्य, अशोक, अकबर, औरंगजेब या बहादुर शाह जफर से ज्यादा प्रासंगिक हैं। राम अयोध्या में जन्मे हों या न हों, कृष्ण द्वारकाधीश रहे हों या न हों, लेकिन हमारे लिए ये किसी भी ऐतिहासिक हस्ती से कहीं ज्यादा मतलब के हैं। गौतम बुद्ध, महावीर, कबीर तो इतिहास के वास्तविक चरित्र रहे हैं, जिनके जन्म से लेकर मरने तक के साल का पता है, लेकिन हमारे लिए इनकी ऐतिहासिक नहीं, बल्कि मिथकीय अहमियत ज्यादा है। रामचरित मानस की चौपाइयां, गीता के श्लोक, बुद्ध की जातक कथाएं और कबीर-रहीम के दोहे हमारी रोजमर्रा की ज़िंदगी को सजाते-संवारते हैं।
हमारे लिए इतिहास तो स्कूल-कॉलेज और विश्व विद्यालय में पढ़ाया जानेवाला एक उबाऊ विषय भर है जिसे हम पास होने के लिए रटते रहे हैं। वह कहीं से हमारे भीतर कोई इतिहास बोध नहीं पैदा करता। ऐसा नहीं होता कि इतिहास पढ़कर हम अपनी पूरी सभ्यता की निरंतरता से परिचित हो जाएं। इतिहास का पढ़ा-पढ़ाया कुछ सालों बाद जेहन से कपूर की तरह काफूर हो जाता है।
बस मोटामोटी जानकारी बची रहती है कि अशोक का हृदय परिवर्तन कलिंग के युद्ध के बाद हुआ था, मुसलमानों से भारत पर हमला किया था, मुगलों से कई सदियों तक भारत पर शासन किया, अंग्रेजों से दो सौ सालों तक हमें गुलाम बनाए रखा और फिर गांधीजी की अगुआई में हमने आज़ादी हासिल की। 1857 में मंगल पांडे हुए थे। खूब लड़ी मर्दानी वह तो झांसी वाली रानी थी। तात्या टोपे भी थे, भगत सिंह और चंद्रशेखर आज़ाद भी। बस, इतिहास हमारे लिए यहीं कहीं आकर खत्म हो जाता है।
असल में हमारे ‘इतिहास’ के साथ विकट समस्या है। यह गुजरे कल की सच्चाई को सामने लाने के बजाय छिपाने का ज्यादा काम करता है। जैसे हमें कभी नहीं बताया गया कि भारत में मंदिर और मठों का निर्माण ईसा-पूर्व चौथी शताब्दी के आसपास बौद्ध दर्शन के असर को काटने के लिए हुआ। बौद्ध मठों का जवाब थे देवी-देवताओं के मंदिर। मुझे भी नहीं पता चलता अगर अभय तिवारी ने कुछ दिनों पहले इस हकीकत से वाकिफ नहीं कराया होता। इससे पहले तो हिंदू लोग वरुण, अग्नि, इंद्र, सूर्य और चंद्र जैसी प्राकृतिक शक्तियों की ही पूजा करते थे। आज भी अंधविश्वासों की मुखालफत करनेवाले लोग कहते हैं कि हमें प्रकृति को मानना चाहिए और प्राकृतिक शक्तियों की ही आराधना करनी चाहिए। उन्हें याद दिलाना पड़ता है कि हिंदू धर्म में मूलत: तो ऐसा ही था।
अगर प्राचीन इतिहास को सही तरीके से पढ़ाया गया होता तो आज अधिकांश भारतीय यह नहीं मानते कि लाखों साल पहले द्वापर युग में कृष्ण और त्रेता युग में राम ने अवतार लिया था। बताते हैं कि जिन लोगों मे राम और कृष्ण के सगुण रूप की रचना की होगी, उन्होंने ऐसा करते वक्त गौतम बुद्ध और उस समय के प्रतापी राजाओं की शक्ल को ध्यान में रखा था। विष्णु, राम और कृष्ण हमारे मिथकों में, कल्पना में रहे होंगे, लेकिन उन्होंने साकार रूप लिया गौतम बुद्ध के आने के बाद। फिर कैसे ये लोग दो-ढाई लाख साल पुराने हो सकते हैं?
लेकिन यह सब कहीं भी भारतीय लोक-स्मृति में दर्ज नहीं है। राम और कृष्ण भले ही मिथकीय चरित्र हों, लेकिन उनकी छवि हमारे डीएनए में छपी हुई है। अगर राम नहीं थे तो राजा जनक भी नहीं रहे होंगे। लेकिन जब भी महायोगी की बात आती है तो जनक का जिक्र होना लाज़िमी है।
मिथकों की बातें भले ही गलत हों, लेकिन जब तक सही इतिहास के ज्ञान से उनको विस्थापित नहीं किया जाएगा, तब तक वे ही हमारे लिए अतीत की असली छवियां बनी रहेंगी। जब भी कोई कहेगा कि राम और कृष्ण काल्पनिक चरित्र हैं, रामसेतु एक प्राकृतिक संरचना है, उसे राम की अगुआई में वानरसेना ने नहीं बनाया था तो हम तुनक कर खड़े हो जाएंगे। अरे, आप कुछ दे तो रहे नहीं हो, ऊपर से सब कुछ छीने लिए जा रहे हो!! ऐसा कैसे हो सकता है?

हर जीत पर बदला लेती है प्रकृति


इंसान और प्रकृति में क्या रिश्ता है? क्या विकास की कोई सीमा है? हम प्रकृति पर किस हद तक विजय हासिल कर सकते हैं? ये सवाल ग्लोबल वॉर्मिंग के बढ़ते संकट के बीच बड़े प्रासंगिक हो गए हैं। आज भले ही दुनिया भर में समाजवाद और साम्यवाद के पतन के बाद से मार्क्स-एंगेल्स के विचारों को हिकारत की निगाह से देखा जा रहा हो, लेकिन इन मनीषियों ने वर्ग-संघर्ष और सामाजिक रिश्तों की नहीं, प्रकृति और मनुष्य के रिश्तों पर भी गंभीरता से सोचा और लिखा था। ऐसा ही एक लेख फ्रेडरिक एंगेल्स ने 1876 में लिखा था। वैसे तो यह पूरा लेख पठनीय है, लेकिन मुझे इसका नीचे से पांचवां और छठां पैराग्राफ बेहद प्रासंगिक लगा। आप भी चंद मिनट निकालकर इस पर एक नज़र डाल सकते हैं।
हमें प्रकृति पर इंसान की जीत से गदगद नहीं होना चाहिए क्योंकि हर जीत के एवज में प्रकृति हम से बदला लेती है। यह सच है कि हर जीत पहले स्तर पर हमारी उम्मीद के अनुरूप नतीजे देती है, लेकिन दूसरे और तीसरे स्तर पर एकदम भिन्न किस्म के ऐसे अनपेक्षित प्रभाव देखने को मिलते हैं जो अक्सर पहले स्तर के नतीजे को निरस्त कर देते हैं।
जिन लोगों ने मेसोपोटामिया, ग्रीस, एशिया माइनर और दूसरी जगहों पर खेती की ज़मीन हासिल करने के लिए जंगलों को नष्ट कर दिया, उन्होंने सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जंगलों के साथ नमी को सोखने के प्राकृतिक साधन भी खत्म कर वे अपने इन्हीं देशों की वर्तमान दुर्दशा की बुनियाद रख रहे हैं।
जब आल्प्स के पहाड़ों पर बसे इटालियन लोगों ने दक्षिणी ढलानों के चीड़ के जंगलों का इस्तेमाल कर डाला, तब उन्हें ज़रा-सा भी भान नहीं रहा होगा कि वे अपने इलाके में डेयरी उद्योग की जडों में मट्ठा डाल रहे हैं। उन्हें यह भी नहीं पता रहा होगा कि अपने पहाड़ों को साल के अधिकांश महीनों के लिए झरनों के पानी से महरूम रख रहे हैं और इस तरह बारिश के मौसम में मैदानी इलाकों में मूसलाधार बारिश को न्यौता दे रहे हैं।
जिन लोगों ने यूरोप में आलू की खेती को हर तरफ फैलाया, उन्हें यह नहीं पता था कि वे जमीन के भीतर उगनेवाली इस सब्जी के साथ-साथ टीबी जैसा कंठमाला (scrofula) का रोग भी फैला रहे हैं।
इस तरह कदम-कदम पर हमें सबक मिला है कि हम प्रकृति पर किसी भी सूरत में वैसा शासन नहीं कर सकते, जैसा कोई विजेता पराजित मुल्क के बाशिंदों पर करता है, जिस तरह प्रकृति से बाहर खड़ा कोई शख्स कर सकता है। हम अपने हाड़-मांस और दिलो-दिमाग के साथ इसी प्रकृति का हिस्सा हैं। हमारा वजूद प्रकृति के ही बीच है, उसके बाहर नहीं। उस पर हमारी हर विजय में यह तथ्य निहित है कि प्रकृति के नियमों को समझने और उनको सही तरीके से लागू करने में इंसान दूसरे सभी जीवों से बेहतर स्थिति में हैं।
दरअसल, वक्त बीतने के साथ हम प्रकृति के तमाम नियमों की और भी बेहतर समझ हासिल करते जा रहे हैं और प्रकृति के पारंपरिक तौर-तरीकों में दखल के तात्कालिक और दूरगामी प्रभावों से भी वाकिफ हो रहे हैं। खास तौर पर, इस (19वीं) शताब्दी में प्राकृतिक विज्ञान में हुई जबरदस्त प्रगति के चलते हम सच को समझने की ज्यादा बेहतर स्थिति में हैं। और इस तरह उसे नियंत्रित करने की भी बेहतर स्थिति में हैं। साथ ही यह भी समझने लगे हैं कि इससे हमारी रोज़मर्रा की उत्पादन गतिविधियों पर क्या स्वाभाविक असर हो सकते हैं।
मानव सभ्यता जितनी प्रगति करती जाएगी, उतना ही इंसान को भान ही नहीं, बल्कि ज्ञान भी होता जाएगा कि वह प्रकृति के साथ एका में ही उसकी भलाई है। साथ ही बुद्धि और पदार्थ, मनुष्य और प्रकृति, आत्मा और शरीर के बीच विरोध का निरर्थक और अप्राकृतिक विचार उतना ही असंभव होता जाएगा।

Friday 21 September, 2007

शादी की मियाद बस सात साल हो!

चिट्ठाजगत अधिकृत कड़ी
परेशान मत होइए। यह अभी तक महज एक सुझाव है और वो भी किसी भारतीय का नहीं, बल्कि जर्मनी के बवेरिया प्रांत की राजनेता गैब्रिएल पॉली का। गैब्रिएल अपने प्रांत में क्रिश्चियन सोशल यूनियन (सीएसयू) के प्रमुख पद की प्रत्याशी हैं। यह चुनाव अगले हफ्ते होना है। सीएसयू जर्मनी की सत्ताधारी पार्टी क्रिश्चियन डेमोक्रेट्स (सीडीयू) से जुड़ी हुई पार्टी है।
गैब्रिएल पॉली का कहना है कि ज्यादातर शादियां बस इसीलिए चलती रहती हैं क्योंकि लोगों को लगता है कि वे इस रिश्ते में सुरक्षित हैं। इस नज़रिये की बुनियाद ही गलत है और शादियों की मियाद सात साल तय कर दी जानी चाहिए। मियां-बीवी अगर राजी-खुशी तैयार हों तभी इसे आगे बढ़ाना चाहिए नहीं तो इस रिश्ते को खुद-ब-खुद खत्म मान लिया जाना चाहिए। गैब्रिएल ने खुद अपनी ही पार्टी पर परंपरागत रूढ़िवादी पारिवारिक मूल्यों को प्रश्रय देने का आरोप लगाया है।
गैब्रिएल ने इसी साल 26 जून को अपना 50वां जन्मदिन मनाया है और अब तक दो बार उनका तलाक हो चुका है। आपको बता दें कि गैब्रिएल कुछ-कुछ हमारे सुब्रह्मण्यम स्वामी जैसी नेता हैं। अक्सर कुछ न कुछ ऐसा करती रहती हैं जिस पर बवाल मचता रहता है। उनकी ही बगावत के चलते दस साल से बवेरिया प्रांत के प्रमुख रहे एडमंड स्टॉयबर को इसी साल जनवरी में इस्तीफा देना पड़ा था। इसके फौरन बाद गैब्रिएल पॉली ने एक मैगज़ीन के लिए रबर के आपत्तिजनक दस्ताने पहनकर फोटो खिंचवाई, जिस पर काफी बवाल मचा।
शादी पर उनके ताज़ा प्रस्ताव से भी बवेरिया ही नहीं, पूरी जर्मनी में विवाद शुरू हो गया है। पूरा ईसाई जगत भी इससे सकते में है। वैसे गैब्रिएल का प्रस्ताव यूरोप के समाज के एक सच की ही झलक पेश करता है। जर्मनी में शादियों की औसत उम्र दस साल से ज्यादा नहीं है। एक अध्ययन के मुताबिक पिछले चालीस सालों में पूरे यूरोप में जहां शादियों की दर में कमी आई, वहीं तलाक की संख्या कई गुना बढ़ गई है। अविवाहित माताएं और सिंगल पैरेंट भी अब समाज में साफ जगह बना चुके हैं।
लेकिन एक बात है कि जर्मनी या पूरे यूरोप में जोड़े जब तक साथ रहते हैं, तब तक पूरी तरह एक दूसरे को समर्पित होते हैं। यह समर्पण खत्म हो जाता है तो वे अपना रिश्ता भी तोड़ देते हैं। अपने समाज में विवाहेतर संबंधों की हकीकत से तो आप वाकिफ ही होंगे। प्रेमी या प्रेमिका के साथ मिलकर पति या पत्नी की हत्या करने की कोई न कोई की खबर हर दिन अखबार के कोने में पड़ी रहती है।

अनागत का भय, आस्था और वर्जनाएं

लालबाग का राजा। यही कहते हैं मुंबई के लालबाग इलाके में स्थापित होनेवाले गणपति को। गजानन, लंबोदर, मंगलमूर्ति जैसे कई नाम मैंने गणपति के सुने थे। मैंने एक बार रघुराज की जगह अपना लेखकीय नाम मंगलमूर्ति भी रखने को सोचा था। लेकिन आस्थावान लोग मुझे क्षमा करेंगे, जब मैंने दो साल पहले लालबाग का राजा सुना तो मुझे लगा किसी इलाके के दादा की बात हो रही है, मुंबई के किसी गुंडे मवाली की बात हो रही है। संयोग से कल उस इलाके में जाने का मौका मिला तो आस्था का ऐसा ज्वार नज़र आया कि यकीन मानिए, मैं अंदर से हिल गया, आक्रांत-सा हो गया। वैसे, एक बार मुहर्रम के जुलूस में हाय-हसन, हाय-हसन कहकर छाती पीटते लोगों को देखकर भी मैं इसी तरह सिहरा था।
लालबाग में हर तरफ श्रद्धालुओं का हुजूम। सैकड़ों कतार में तो सैकड़ों कतार से बाहर। सभी लालबाग के राजा के दर्शन को बेताब। महिलाएं बच्चों के साथ लाइन में लगी हैं। उनके पति भी आसपास मौजूद हैं। नौजवान लड़के-लड़कियां भी हैं। गली मे, सड़क पर कचरा बिखरा है। पानी बरसने से कीचड़ हो गई है। लेकिन बूढ़े बुजुर्ग ही नहीं, जींस-टीशर्ट पहने जवान लड़कियां और लड़के नंगे पांव सड़क पर चले आ रहे हैं। हाथों में नारियल और प्रसाद का चढ़ावा है। कई तरफ से लाउडस्पीकरों पर फुल वॉल्यूम पर गणपति की वंदना हो रही है। लोग हर गली-नुक्कड़ से उमड़े चले आ रहे हैं।
सड़क के किनारे कहीं लालबाग के राजा की तस्वीरें बिक रही हैं तो कहीं नारियल और चढ़ावे के दूसरे सामान। हर कोई इस आस्था के नकदीकरण की कोशिश में लगा है। कोई आज और अभी के लिए तो कोई भविष्य के लिए। बैंकों तक ने ग्राहक पटाने के लिए बैनर लगा रखे हैं तो स्टार प्लस ने किसी गणेशा फिल्म का विज्ञापन लगा रखा है। हर न्यूज चैनल की आउटस्टेशन ब्रॉडकास्टिंग (ओबी) वैन वहां मौजूद थी। पुलिस का सख्त पहरा था। कोई अघट न हो जाए, इसके लिए सारे इंतजाम थे।
इस आस्थावान भीड़ में मुझे जितने भी लोग नज़र आए, वे सभी औसत परिवारो के थे। न ज्यादा अमीर, न ज्यादा गरीब। लेकिन उनके चेहरों के भाव से मुझे अच्छी तरह भान हो गया कि इनकी आस्था इतनी गाढ़ी है कि तर्कों की मथनी उसे रंचमात्र भी पतली नहीं कर सकती। इन्हें आस्था का ही कोई सूत्र निकालकर आंदोलित किया जा सकता है। बाकी बातें तो इनके दिमाग में जाएंगी, मगर दिल को नहीं छुएंगी। और, दिमाग के साथ दिल न लगे तो किसी भी काम का उन्माद नहीं जगता। और उन्माद के बिना कोई बड़ा काम नहीं किया जा सकता।
मुझे लगता था कि जीवन-स्थितियों के गद्यात्मक होते जाने के साथ ही जो आस्था हमें परंपरा और संस्कार से मिली है, वह कहीं निजी कोने में जाकर दुबक जाएगी और तार्किकता हावी हो जाएगी। लेकिन यथार्थ में तो मैं ठीक इसका उल्टा देख रहा हूं। नौजवान पीढ़ी पर यह आस्था उन्मत्त होकर सवार हो गई है। कौन-से अनागत का भय है जो इन्हें भगवान के आश्रय में लाकर खड़ा कर दे रहा है? ज़िंदगी में क्या वाकई इतनी अनिश्चितता है? क्या आम भारतीय वाकई अंदर से इतना अकेला है कि भगवान में ही उसे अपना सच्चा हमदर्द नज़र आता है?
फिर मुझे डेरा सच्चा के गुरु से लेकर स्वामी नारायण संप्रदाय के संन्यासियों और तांत्रिकों की करतूतें याद आने लगीं कि कैसे लोगों की आस्था का फायदा उठाकर तमाम संत और मठों के स्वामी अपनी वर्जनाएं निकालते हैं। लालबाग के राजा के दर्शन के लिए उमड़ी भीड़ के बीच भी मुझे ऐसी वर्जनाएं घूमती-टहलती नज़र आईं। मुझे सालों पहले इलाहाबाद में छात्रों के कमरों के दृश्य याद आने लगे जहां हनुमान, गणेश या शंकर भगवान की फोटो के बगल में किसी अर्ध-नग्न मॉडल या हीरोइन की फोटो लगी रहती थी। अनागत का भय, आस्था और वर्जनाओं में ये कैसा समन्वय है? आखिर कैसा सह-अस्तित्व है ये?

Thursday 20 September, 2007

ट्रस्ट हैं तो स्विस खातों की क्या जरूरत?

क्या आपको पता है कि देश में धर्म, शिक्षा, कल्याण, खेल-कूद जैसे तमाम कामों के लिए बने सार्वजनिक ट्रस्ट जिस कानून से संचालित होते हैं, वह कानून कब का है? इंडियन ट्रस्ट एक्ट नाम के इस कानून को अंग्रेजों ने 1882 में बनाया था और वही अब भी लागू है। आज़ाद भारत के हमारे कानून-निर्माताओं को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा कि इस एक्ट की धारा 20-एफ में ट्रस्टों के निवेश के संदर्भ में आज भी ब्रिटेन के शाही परिवार, उस समय के गवर्नर जनरल और रंगून और कराची जैसे शहरों के स्थानीय निकायों की तरफ से जारी प्रतिभूतियों का उल्लेख किया गया है। लेकिन केंद्र सरकार अब इस कानून में आमूलचूल बदलाव लाने पर विचार कर रही है। औपनिवेशिक दासता की उसकी खुमारी क्यों टूटी, इसकी वजह बड़ी दिलचस्प है।
पिछले कुछ सालों से देश में हाई नेटवर्थ वाले व्यक्तियों (एचएनआई) की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। साल 2003 के अंत तक देश में 61,000 एचएनआई थे। साल 2006 में ही ये संख्या 20.5 फीसदी बढ़कर एक लाख तक जा पहुंची और अभी इसमें 15-20 फीसदी की गति से वृद्धि हो रही है। एचएनआई का मतलब उस व्यक्ति से है जिसके पास 10 लाख डॉलर यानी 4 करोड़ रुपए से ज्यादा की संपत्ति है। देश की एचएनआई आबादी में कंपनियों के मालिकों से लेकर उनकी औलादें और बड़े अधिकारी शामिल हैं। अब तो पत्रकार भी इस श्रेणी में आ गए हैं। बताते हैं कि आजतक से त्रिवेणी ग्रुप के न्यूज चैनल में गए एक पत्रकार बाबूसाहब को 2-3 करोड़ रुपए का सालाना पैकेज दिया गया है।
देश के इन लाख-डेढ़ लाख एचएनआई के साथ समस्या यह है कि वे अपने पैसों को कहां लगाएं जिससे टैक्स बचे, रकम बढ़ती रहे और उनके न रहने पर यह रकम बगैर किसी कानूनी पचड़े में पड़े आसानी से उनके वारिसों तक पहुंच जाए। सारी दुनिया में इस मकसद के लिए आजमाया हुआ तरीका है ट्रस्टों का। तो...60 साल बाद टूट गई आज़ाद भारत की हमारी सरकार की औपनिवेशिक दासता वाली खुमारी।
ट्रस्ट तो हमारे यहां पहले से ही शायद लाखों की तादाद में होंगे। लेकिन धार्मिक और शिक्षा से जुड़े ट्रस्टों के पास अकूत पैसा है। भक्तों के दान पर सिद्धि विनायक से लेकर तिरुमति मंदिर के ट्रस्ट अरबों में खेलते हैं। तकरीबन हर कॉरपोरेट घराने और बड़ी कंपनी ने भी कोई न कोई ट्रस्ट खोल रखा है। यहां तक कि बिल गेट्स और उनकी बीवी का ट्रस्ट भी हमारे यहां काम कर रहा है। 125 साल पुराने ट्रस्ट एक्ट में बदलाव इसलिए किया जा रहा है ताकि पुराने ट्रस्ट अपने पैसे से और ज्यादा पैसा बना सकें और नए करोड़पतियों को पैसा लगाने और छिपाने का मौका मिल सके।
और, इनको एक्सपर्ट सेवा मुहैया कराने के लिए डीएसपी मेरिल लिंच, सिटी ग्रुप, वेल्थ एडवाइजर्स प्रा. लिमिटेड जैसी देशी-विदेशी कंपनियों ने नेटवर्क बिछा दिया है। यही नहीं, इनकी निगाह में साल में 10 लाख से ज्यादा कमानेवाले नौकरीपेशा लोग भी हैं क्योंकि इनकी संख्या अभी से 9 लाख के करीब हो चुकी है। सलाहकार संस्था मैकेंजी का अनुमान है कि 2025 तक भारत में ऑस्ट्रेलिया की अभी की पूरी आबादी से ज्यादा, 2.30 करोड़ लोग करोड़पति होंगे।
देशी-विदेशी कंपनियों की कोशिश है कि इन करोड़पतियों का पैसा ‘मानव-कल्याण’ के लिए ट्रस्टों में लगाया जाए। आप जानते ही हैं कि कंपनियां दो आंख नहीं करतीं, इसलिए ये हमारे नेताओं को भी अपनी सेवाएं मुहैया कराएंगी। इसलिए मुझे लगता है कि इंडियन ट्रस्ट एक्ट में माफिक बदलाव हो गया तो नेताओं, भ्रष्ट अधिकारियों और दलालों को स्विस बैंकों में खाता खोलने की जरूरत नहीं रह जाएगी। चलते-चलते आपको बता हूं कि जिस पुलिस एक्ट से आज भी हमारी-आपकी ज़िंदगी संचालित होती है, उसे अंग्रेजों ने 1861 में भारतीय अवाम को टाइट रखने के लिए बनाया था।
खबर का स्रोत : इकोनॉमिक टाइम्स और मिंट

सॉरी, आप तो मर चुके हैं

अगर मैं परपीड़क यानी सैडिस्ट होता तो वाकई अब तक मर चुका होता। यह रहस्य मुझे तब पता चला जब मैं कल जापानी टॉय कंपनी के नए उत्पाद ‘क्लॉक ऑफ लाइफ’ के बारे में ज्यादा जानने के लिए गूगल पर सर्च कर रहा था। सर्च में जब मैंने Clock of Life डाला तो deathclock.com नाम की एक साइट का लिंक मिल गया। क्लिक किया तो जन्म की तारीख, साल, बॉडी-मास इंडेक्स और स्मोकर/नॉन-स्मोकर का खाना भरने के बाद एक और खाना था, जिसमें मुझे बताना था कि मैं सामान्य हूं, आशावादी हूं, निराशावादी हूं या परपीड़क हूं। सिगरेट तीन साल पहले छोड़ चुका हूं तो ज़ाहिर है नॉन-स्मोकर भरा। बीएमआई 25 से कम है। यकीनन समीर भाई का बीएमआई 25 से ज्यादा होगा। इतना सारा भरने के बाद असली खेल शुरू हुआ। मैंने पहले भरा कि मैं सामान्य हूं तो डेथ क्लॉक ने बताया कि मैं अभी 28 साल और जिऊंगा। जब मैंने आशावादी का विकल्प चुना तो मेरी उम्र इसके ऊपर 24 साल और बढ़ गई। अब मैंने खुद को निराशावादी घोषित किया तो पता चला कि महज दस साल और मेरे पास हैं। लेकिन जैसे ही मैंने खुद को परपीड़क बताया तो डेथ क्लॉक ने कहा, “I am sorry but your time has expired. Have a nice day”… इस घड़ी के मुताबिक नॉन-स्मोकर होने के बावजूद अगर मैं परपीड़क होता तो नौ साल पहले ही मर चुका होता।
अगर आप सिगरेट पीते हैं, ऊपर से सैडिस्ट हैं तो ये अच्छी बात नहीं है। वैसे इस क्लॉक ने कम से कम ये तो साबित कर ही दिया कि मैं और चाहे जो कुछ भी हूं, परपीड़क कतई नहीं हूं। आप भी परख सकते हैं कि आप सैडिस्ट हैं कि नहीं।

Wednesday 19 September, 2007

40 करोड़ बहिष्कृत हैं कल्याणकारी राज्य से

हम भाग्यशाली हैं कि हम देश के संगठित क्षेत्र के मजदूर या कर्मचारी हैं। हम देश के उन ढाई करोड़ लोगों में शामिल हैं जिनको कैशलेस हेल्थ इंश्योरेंस, पीएफ और पेंशन जैसी सुविधाएं मिलती हैं। पेंशन न भी मिले तो हम हर साल दस हजार रुपए पेंशन फंड में लगाकर टैक्स बचा सकते हैं। हमारे काम की जगहों पर आग से लेकर आकस्मिक आपदाओं से बचने के इंतज़ाम हैं। बाकी 40 करोड़ मजदूर तो अर्थव्यवस्था में योगदान करते हैं, लेकिन अर्थव्यवस्था उनकी कोई कद्र नहीं करती। इनमें शामिल हैं प्लंबर और मिस्त्री से लेकर कारपेंटर, घर की बाई से लेकर कचरा बीननेवाले बच्चे, बूढ़े और औरतें, गांवों में सड़क पाटने से लेकर नहरें खोदने और खेतों में काम करनेवाले मजदूर।
आप यकीन करेंगे कि आजादी के साठ साल बाद भी देश के कुल श्रमिकों के 94 फीसदी असंगठित मजदूर हमारे कल्याणकारी राज्य से बहिष्कृत हैं? लगातार कई सालों से मचते हल्ले के बाद यूपीए सरकार ने इनकी सामाजिक सुरक्षा को अपने न्यूनतम साझा कार्यक्रम में शुमार तो कर लिया। लेकिन जब अमल की बात आई तो महज एक विधेयक लाकर खानापूरी कर ली। उसने संसद के मानसून सत्र के आखिरी दिन असंगठित क्षेत्र श्रमिक सामाजिक सुरक्षा विधेयक 2007 पेश तो कर दिया। लेकिन इसमें खुद ही असंगठित क्षेत्र के लिए बनाए गए राष्ट्रीय आयोग की सिफारिशों को नज़रअंदाज कर दिया।
अर्थशास्त्री अर्जुन सेनगुप्ता की अध्यक्षता में बने इस आयोग ने सिफारिश की थी कि खेती और खेती से इतर काम करनेवाले मजदूरों के लिए अलग-अलग कानून बनाया जाए। लेकिन सरकार को लगा कि जैसे यह कोई फालतू-सी बात हो। आयोग ने अपने अध्ययन में यह भी पाया था कि देश के करीब 83 करोड़ 60 लाख लोग हर दिन 20 रुपए से कम में गुजारा करते हैं। क्या 110 करोड़ आबादी के तीन-चौथाई से ज्यादा हिस्से की ये हालत 9 फीसदी आर्थिक विकास दर को बेमतलब साबित करने के काफी नहीं है?
वैसे, बड़ी-बड़ी बातें करने में हमारी सरकार किसी से पीछे नहीं है। श्रम मंत्री ऑस्कर फर्नांडीज का दावा है कि सरकार के पास असंगठित मजदूरों के लिए 11 स्कीमें हैं, जिनमें आम आदमी बीमा योजना, राष्ट्रीय वृद्धावस्था पेंशन योजना और हेल्थ इंश्योरेंस स्कीम शामिल हैं। सरकार अगले पांच सालों में 6 करोड़ परिवारों को हेल्थ इंश्योरेंस देगी, जिसका फायदा 30 करोड़ से ज्यादा मजदूरों को मिलेगा। हर परिवार साल भर में 30,000 रुपए का मुफ्त इलाज करा सकेगा। गरीबी रेखा से नीचे रह रहे हर 65 साल से अधिक उम्र के बुजुर्ग को केंद्र और राज्य सरकार की तरफ से 200-200 रुपए की मासिक पेंशन दी जाएगी। दुर्घटना में मजदूर के मरने या पूरी तरह विकलांग हो जाने पर उसके आश्रित को बीमा योजना से 75,000 रुपए दिए जाएंगे। असंगठित क्षेत्र के मजदूरों के कल्याण पर सरकार कुल 35,000 से 40,000 करोड़ रुपए का बोझ उठाने को तैयार है।
लेकिन देश की केंद्रीय मजदूर यूनियनों को ये सारी बातें चुनावी सब्ज़बाग से ज्यादा कुछ नहीं लगतीं। उनका कहना है कि विधेयक में केंद्र और राज्यों में सलाहकार बोर्ड बनाने जैसी बातें ही की गई हैं, चंद कल्याणकारी योजनाओं की गिनती की गई है। कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया है। इन यूनियनों ने तय किया है कि वे 4 और 5 दिसंबर को पूरे देश में इस विधेयक के खिलाफ सत्याग्रह करेंगी। उम्मीद की जानी चाहिए कि ये सत्याग्रह हमारी अर्थव्यवस्था को कल्याणकारी राज्य से बहिष्कृत 40 करोड़ लोगों को उनका देय देने के लिए प्रेरित करेगा।

चेहरे मिलाना पुराना शगल है अपुन का

रविवार को फुरसतिया जी को देखा तो कानपुर के दिल्ली निवासी पत्रकार वीरेंद्र सेंगर का चेहरा याद आ गया। चेहरे के भीतर का चेहरा एक जैसा। छोटी-छोटी बातों पर चुटकी लेने, फुलझड़ी छोड़ने का वही अंदाज़। कल लोकल ट्रेन से ऑफिस जा रहा था तो सीट पर आराम से बैठे एक सज्जन दिखे जो दस साल पहले अभय तिवारी जैसे रहे होंगे। चश्मा वैसा ही था। दाढ़ी थी। मैं सोचने लगा कि क्या ये सज्जन भी अभय की तरह निर्मल आनंद की प्राप्ति में लगे होंगे। अंतर बस इतना था कि वो अपने होंठ के दोनों सिरे निश्चित अंतराल पर ज़रा-सा ऊपर उठाते थे और दायां कंधा भी रह-रहकर थोड़ा उचकाते थे।
इन दोनों ही वाकयों ने मुझे अपना पुराना शगल याद दिला दिया। राह चलते, भीड़भाड़ में, रैलियों में, ट्रेन की यात्राओं में मैं क्या चेहरे मिलाया करता था! अगर अपरिचित का चेहरा अपने किसी परिचित से मिलता-जुलता हुआ तो बस गिनने लगता था कि दोनों की क्या-क्या अदाएं मिलती-जुलती हैं। ऐसे अपरिचितों से कभी बात करने की हिम्मत तो नहीं हुई, लेकिन मुझे लगता था कि जब चेहरा एक जैसा है तो चरित्र भी एक जैसा होगा। यहां तक कि मन ही मन चेहरों की भी श्रेणियां बना रखी थीं। यह तो शक्ल से ही संघी लगता है या यह यकीनन कोई नक्सल क्रांतिकारी होगा।
मज़ा तो तब आया था जब 1980 में दिल्ली के फिरोजशाह कोटला ग्राउंड में इंडियन पीपुल्स फ्रंट के स्थापना सम्मेलन के दौरान मैं और मेरे एक सहपाठी घूम-घूमकर कंबल ओढ़कर जहां-तहां कनफुसकी करते चेहरों को निहारते रहे और आपस में धीरे से कहते कि ये ज़रूर कोई अंडरग्राउंड नक्सली होगा। जब छुट्टियों में इलाहाबाद से फैज़ाबाद जाता तो जनरल डिब्बे की ऊपरी बर्थ पर उकड़ू-मुकड़ू बैठ जाता। वहीं से नीचे बैठे लोगों के चेहरों की मिलान करता। कभी-कभी कुछ दूसरी खुराफात भी होती थी। जैसे, एक बार नीचे एक 50-60 साल की एक ग्रामीण वृद्धा बैठी थीं। नाक-नक्श बताते थे कि किसी जमाने में बला की खूबसूरत रही होंगी। मैं उनके चेहरे में वही पुराना खूबसूरत चेहरा निहारने लगा और जब उनकी निगाहें मुझ से मिल गईं, तो बेचारी लजा गईं।
चेहरे मैं इंसानों से ही नहीं, जानवरों से भी मिलाया करता था। जैसे मुझे हमेशा से लगता था कि विजय माल्या का चेहरा घोड़ों से मिलता है। बाद में पता चला कि माल्या साहब घोड़ों के बड़े शौकीन हैं। इसी तरह मेरे साथ एक चौधरी जी पढ़ते थे। मैंने उनसे एक दिन पूछा कि क्या तुम्हारे घर के आसपास गधे रहते थे। बोले – हां। मैंने कहा कि तभी तुम्हारे चेहरे में गधे की आकृति अंकित हो गई है। मेरे ऑफिस में भी एक महिला हैं। काफी बुद्धिमान हैं। उनके चेहरे-मोहरे में भी मुझे गधे की आकृति झलकती है। लेकिन वे इतनी संभ्रांत हैं कि उनसे उनकी बचपन की रिहाइश के बारे में पूछने की हिम्मत ही नहीं पड़ती।
इसी तरह चश्मा लगाए मनमोहन सिंह के चेहरे को आप गौर से देखिए तो उसमें आपको लक्ष्मी की सवारी उल्लू के दर्शन हो जाएंगे। पूर्व प्रधानमंत्री चंद्रशेखर के चेहरे में मुझे हमेशा भेड़िया नज़र आता था, जबकि नरसिंह राव के चेहरे में एक चिम्पांजी। सोचता हूं कि लेखक-उपन्यासकार जब किसी चरित्र के साथ कोई चेहरा नत्थी करते होंगे तो शायद इसी तरह के सामान्यीकरण का सहारा लेते होंगे। चलिए, उपन्यासकार बनूं या न बनूं, अभी तो यही सोचकर दिल को तसल्ली दे लेता हूं कि उपन्यासकारों की कुछ फितरत तो अपुन के अंदर भी है।

Tuesday 18 September, 2007

पढ़ब-लिखब की ऐसी-तैसी...

पढ़ाई में फिसड्डी, लेकिन पढ़े-लिखे अपराधियों में पूरे देश में अव्वल। जी हां, देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश का सच यही है। 57.36 फीसदी की साक्षरता दर के साथ यह देश के 30 राज्यों में 26वें नंबर पर है। लेकिन राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के ताज़ा आंकड़ों के मुताबिक ग्रेजुएट और पोस्ट-ग्रेजुएट अपराधियों के मामले में उत्तर प्रदेश देश के हर राज्य से आगे है। ऐसे में मुझे बचपन की दो कहावतें याद आ जाती हैं। एक जिसे मेरा हमउम्र बाबूराम अक्सर दोहराया करता था कि पढ़ब-लिखब की ऐसी-तैसी, छोलब घास चराउब भैंसी। और दूसरी कहावत, जिसे हम बच्चे उलटकर बोला करते थे कि पढ़ोगे-लिखोगे बनोगे खराब, खेलोगे-कूदोगे बनोगे नवाब। आप ही बताइए कि जब एमए-बीए करने के बाद अपराधी ही बनना है तो मां-बाप का पैसा और अपना वक्त जाया करने से क्या फायदा?
एनसीआरबी की रिपोर्ट के मुताबिक साल 2005 में उत्तर प्रदेश के सज़ायाफ्ता मुजरिमों में से 1048 ग्रेजुएट हैं। इसके बाद 651 ग्रेजुएट मुजरिमों के साथ पंजाब दूसरे और 559 ग्रेजुएट मुजरिमों के साथ मध्य प्रदेश तीसरे नंबर पर है। पोस्ट ग्रेजुएट अपराधियों में भी उत्तर प्रदेश 187 के आंकड़े के साथ पहले नंबर पर है, जबकि मध्य प्रदेश के लिए यह आंकड़ा 180, राजस्थान के लिए 130 और छत्तीसगढ़ के लिए 124 का है।
अगर ग्रेजुएट और पोस्ट ग्रेजुएट विचाराधीन कैदियों की बात करें तब भी उत्तर प्रदेश सबसे ऊंचे पायदान पर विराजमान है। वहां के विचाराधीन कैदियों में 2029 ग्रेजुएट और 388 पोस्ट ग्रेजुएट हैं। बिहार, मध्य प्रदेश, पंजाब और दिल्ली में ग्रेजुएट विचाराधीन कैदियों की संख्या क्रमश: 922, 858, 664 और 654 है। पोस्ट ग्रेजुएट विचाराधीन कैदियों में दूसरे, तीसरे और चौथे नंबर पर क्रमश: मध्य प्रदेश (199), झारखंड (178) और राजस्थान (134) आते हैं।
दूसरी तरफ अगर साक्षरता दर की बात करें तो 2001 की मतगणना के मुताबिक साक्षरता का राष्ट्रीय औसत 65.38 फीसदी है, जबकि उत्तर प्रदेश में साक्षरता की दर 57.36 फीसदी है। उत्तर प्रदेश के बाद अरुणाचल प्रदेश (54.74 फीसदी), जम्मू-कश्मीर (54.46 फीसदी), झारखंड (54.13 फीसदी) और बिहार (47.53 फीसदी) का नंबर आता है।
साक्षरता और पढ़े-लिखे अपराधियों के आंकड़ों को आमने-सामने रखकर देखें तो उत्तर प्रदेश की बड़ी विकट तस्वीर सामने आती है। एक तरफ उत्तर प्रदेश के लोग राष्ट्रीय औसत से भी कम पढ़े-लिखे है, दूसरी तरफ जो सबसे ज्यादा पढ़ लिख गए हैं, उनमें पूरे देश की तुलना में सबसे ज्यादा अपराधी निकल रहे हैं। ज़ाहिर है कि उत्तर प्रदेश के पढ़े-लिखे नौजवानों के सामने नौकरी के मौके बेहद कम हैं। और, फिर वह निकल पड़ रहा है अपराध के रास्ते पर।
यह ऐसी क्रूर सच्चाई है, जिसको शायद मायावती की सरकार ज्यादा तवज्जो न दे। इसलिए इस उलटबांसी का जवाब हमें और आपको तलाशना होगा। देश का सबसे बड़ा राज्य अध्ययन का एक मॉडल पेश कर रहा है, एक गुत्थी पेश कर रहा है। इसका व्यावहारिक और तर्कसंगत समाधान निकालना हमारा और आपका दायित्व है।

फाइलें जब बन गई थीं हठी विक्रमादित्य

मानस की ज़िंदगी का वो सबसे बुरा दौर था। चोटी पर पहुंचने के बाद तलहटी का कॉन्ट्रास्ट। वह सामाजिक सम्मान व प्रतिष्ठा के शिखर पर पहुंचकर लौटा ही था कि लोगों ने उसे नज़रों से गिरा दिया। ये सारा कुछ किया उन्होंने जिसे वह दोस्त और गाइड मानता था। इन लोगों ने उस पर ऐसा इल्जाम लगाया जिससे दूर-दूर तक उसका कोई वास्ता ही न था। अचानक उसे कातिल ठहरा दिया गया। कानून ने उसे कातिल नहीं माना तो उसके लिए भी इन्हीं लोगों ने कहा कि उन्होंने ही उसे घूस देकर बचाया है। दूसरी तरफ इन्हीं सबने दिल्ली ही नहीं, मुंबई से लेकर कोलकाता तक लोगों को फोन करके उसके ‘अधम’ होने का यकीन दिलाया।
मानस ने खुद को टटोला कि कहीं वह सचमुच तो परोक्ष रूप से दोषी नहीं है। उसने पाया कि उसने खुद को सालों से लहरों के हवाले छोड़ रखा था। लहरों के थपेड़े जहां ले गए, वहां जा पहुंचा। हां, बराबर यही कोशिश की कि उसके नीचे कोई न दबे, किसी को उससे तकलीफ न हो। उसने कहीं से भी खुद को दोषी नहीं पाया। वह क्या करता? अज्ञातवास में चला गया। सब से खुद को जान-बूझकर काट लिया। उसने अपनी ज़िंदगी के ग्यारह साल यूं नोचकर बाहर निकाले जैसे कोई जंगल में भटकने के दौरान पैरों में घुस गई जोंक को खींचकर बाहर निकालता है।
इसी दौरान उसने अपनी डायरी में लिखा, “इन लोगों ने मेरे मेंटल स्पेस में जो जगह घेर रखी है, उन सभी फाइलों को मैं डिलीट करना चाहता हूं। इसलिए यह जानते हुए भी कि ये लोग मेरे हितैषी नहीं है, मैं इनसे एकाध बार बात करना चाहता हूं ताकि उनके बारे में कोई भ्रम न रह जाए, रत्ती भर भी मोह न रह जाए। समस्या उनकी नहीं, ज़रूरत मेरी है क्योंकि मुझे अपने अंदर का स्पेस खाली करना है।” फिर उसने यही किया। अपनी मेमोरी से उन लोगों और उस दौर से जुड़ी सारी फाइलें डिलीट कर दीं। बिना एक बार भी सोचे कि शायद इनकी कभी ज़रूरत पड़ जाए। ये अलग बात है कि ये फाइलें इतनी जिद्दी थीं कि डिलीट होने के बाद भी किसी वाइरस की तरह बार-बार परेशान करने आ जाती थीं। हठी विक्रमादित्य बन गई थी ये फाइलें। बार-बार शव को कंधे पर लिए चली आती थीं।
उसने दृढ़ निश्चय कर डाला कि अब ज़िंदगी नए सिरे से शुरू की जाएगी। नए दोस्त बनेंगे तो बनाए जाएंगे। नहीं तो किसी की ज़रूरत नहीं है। भाड़ में जाएं ऐसे दोस्त जो लिफाफा देखकर मजमून भांपते हैं, खोलकर नहीं देखते कि असल में लिफाफे के अंदर क्या है। उसने धीरे-धीरे सधे कदमों से चलना शुरू कर दिया, भले ही उसके कदम ज़हर या घनघोर नशे से उबरे शख्स की तरफ काफी दूर तक लड़खड़ाते रहे।
यह उसके लिए पुनर्जन्म का दौर था। सचमुच पुनर्जन्म का, मां की कोख से फिर से जन्म लेने का। सभी छोड़ गए थे। सभी दूर-दूर खड़े उस पर आरोपों के तीर चला रहे थे। साथ थे तो बस बूढ़े मां-बाप। सूरज ढलने पर वह घर नहीं लौटता था कि मां पिताजी को चौराहे तक दौड़ा देती थी कि जाओ देखकर आओ, हमारा लाल कहीं भटक तो नहीं गया। उसे कई महीनों तक अंधेरे में जाने से डर लगता रहा। वह शाम को भी सूनी छत पर जाता तो फौरन डरकर भाग आता था। मां-बाप अगल-बगल सोते थे। बीच में उसे सुलाते थे। जब वह पूरी तरह सो जाता था, तभी दोनों अपने ऊपर नींद को सवार होने देते थे। उसे सचमुच लगा था कि मां-बाप अपने सानिध्य से उसे दोबारा जीवन दे रहे हैं।
मानस के मानस की हालत तो पूछिए ही मत कैसी हो गई थी। वह सड़क चलते किसी को भी देखता तो सोचता यह शख्स मर गया तो कैसा लगेगा। उसे हर किसी में उसकी लाश नज़र आती। वह लोगों के चेहरे से ढंकी हड्डी की खोपड़ी तक पहुंच जाता जैसे उनकी आंखों में कोई एक्स-रे मशीन घुस गई हो। उसने कई बार यह भी महसूस किया कि वह मर चुका है। चादर से ढंकी उसकी लाश साफ चढ़ाई पर लिटाई गई है और वह उस पर मंडराते हुए उसे देख रहा है। मृत्यु के इस मीठे नशे का निर्लिप्त एहसास उसने अभी तक की छत्तीस साल की ज़िंदगी में कभी नहीं किया था।
खैर, वक्त अपनी रफ्तार से चलता रहा। तीन साल के अज्ञातवास के बाद उसने शहर ही छोड़ दिया। जो तथाकथित दोस्त पीछे छूट गए, उनका हालचाल मिलता रहता है। लेकिन वह अब भी इतनी कड़वाहट से भरा हुआ है कि दिन-रात यही बडबड़ाता है, ‘वे अभी तक जिंदा कैसे हैं, मर क्यों नहीं गए? मरना तो छोड़ो वे हरामी लूले, लंगड़े या अपाहिज तक नहीं हुए हैं?’ उसे रहीम का यह दोहा गलत लगता है कि दुर्बल को न सताइए जाकि मोटी हाय, बिना जीभ के स्वास सौं लौह भसम होइ जाए। लेकिन उसे रहीम का ही वह दोहा सही लगता है कि रहिमन विपदा हूं भली, जो थोड़े दिन होय, हित-अनहित या जगत में जानि परत सब कोय।

Monday 17 September, 2007

कितना चौकस है आपका मोबाइल?

इसे आप आसानी से चेक कर सकते हैं। पहले अपने मोबाइल पर *#06# लिखें। इससे आपके मोबाइल का आईएमईआई (international mobile equipment identity) नंबर उसकी स्क्रीन पर आ जाएगा। अब देखें कि इस नंबर का 7वां और 8वां अंक क्या है। इसी से पता चलेगा कि आपका मोबाइल सेट कितना दुरुस्त है।

1. अगर ये अंक 02 या 20 हैं तो आपका मोबाइल संयुक्त अरब अमीरात में असेम्बल किया गया है और यह बेहद घटिया क्वालिटी का है।

2. अगर ये अंक 08 या 80 हैं तो आपका मोबाइल जर्मनी में बनाया गया है और इसकी क्वालिटी ठीकठाक है।

3. अगर ये अंक 01 या 10 हैं तो आपका मोबाइल फिनलैंड में बनाया गया है और इसकी क्वालिटी काफी अच्छी है।

4. अगर 7वां और 8वां अंक 00 हैं तो आपका मोबाइल मूल फैक्टरी में बनाया गया है और इसकी क्वालिटी सर्वोत्तम है।

5. और, अगर ये अंक 13 का बनता है तो समझ लीजिए इसे अज़रबैजान में असेम्बल किया गया है और इसकी क्वालिटी बेहद घटिया है और यह आपके स्वास्थ्य के लिए भी खतरनाक है।

मेरे मोबाइल का 7वां और 8वां अंक 01 है। इसलिए मैं तो निश्चिंत हो गया हूं। अब चेक करने की बारी है आपकी। दो मिनट लगा डालिए। मैंने भी एक साथी का मेल मिलने के बाद इस पर पांच मिनट जाया किए हैं।

9/11 स्वांग था? ग्रीनस्पैन के खुलासे का निहितार्थ

अमेरिका में इन दिनों जबरदस्त चर्चा है कि 11 सितंबर 2001 को वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और पेंटागन पर हुआ हमला प्रायोजित था। यह हमला पूरी तरह बुश प्रशासन द्वारा नियोजित था। पेंटागन को कोई नुकसान नहीं होने दिया गया क्योकि वहां जहाज नहीं मिसाइल दागा गया था और जहां पर यह मिसाइल दागा गया था, पेंटागन का वह हिस्सा पहले ही खाली कराया जा चुका था। यहां तक संदेह किया जा रहा है कि लादेन और बुश प्रशासन में इस हमले के लिए पूरी मिलीभगत थी। इस मिलीभगत से जिस दिन वाकई पूरे प्रमाणों के साथ परदा उठेगा, उस दिन पूरी दुनिया में तहलका मच जाएगा।
ऐसे तहलके का ट्रेलर अमेरिका के केंद्रीय बैंक फेडरल रिजर्व के पूर्व चेयरमैन एलन ग्रीनस्पैन ने आज जारी की गई अपनी किताब ‘The Age of Turbulence’ में दिखा दिया है। ग्रीनस्पैन अमेरिका की मौद्रिक नीतियों के पितामह रहे हैं। वो 1987 से 2006 तक फेडरल रिजर्व के चेयरमैन थे और बुश से लेकर इस दौर के हर राष्ट्रपति ने उनकी तारीफ की है। ग्रीनस्पैन ने इस किताब में लिखा है, “मुझे दुख है कि जो बात हर कोई जानता है उसे स्वीकार करना राजनीतिक रूप से असुविधाजनक है : इराक युद्ध की मुख्य वजह तेल है।”
अमेरिका ही नहीं, पूरी दुनिया में अब तक के सबसे ज्यादा नफरत किए जाने राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू बुश, उपराष्ट्रति डिक चेनी, तत्कालीन रक्षा मंत्री रोनाल्ड रम्सफेल्ड और उप-रक्षा मंत्री पॉल वूल्फोविट्ज ने मई 2003 में ढोल बजा-बजाकर कहा था कि इराक पर हमले की वजह हैं जनसंहारक हथियार। तीन साल बाद खुद रम्सफेल्ड को मानना पड़ा कि इराक के पास जनसंहारक हथियार नहीं हैं। अब ग्रीनस्पैन ने सब कुछ साफ कर दिया है कि इस हमले की असली वजह जनसंहारक हथियार नहीं, बल्कि पेट्रोलियम तेल के विपुल भंडार हैं। वैसे पिछले ही महीने अमेरिका के उप-रक्षा मंत्री वूल्फोविट्ज ने सिंगापुर में यह कहकर फुलझड़ी छोड़ दी थी कि इराक तेल के समुद्र पर तैरता है।
यह सच भी है कि मध्य-पूर्व में दुनिया के दो-तिहाई तेल भंडार हैं और इनकी कीमत भी सबसे कम है। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि जब बुश और चेनी ने सत्ता संभाली थी तब अमेरिका तेल और प्राकृतिक गैस के भयानक संकट से गुजर रहा था। ऊपर से उसे विश्व बाज़ार में घटती आपूर्ति के बीच चीन और भारत जैसे तेज़ी से बढते देशों से होड़ लेनी पड़ रही थी। अमेरिकी कंपनियों की निगाहें इराक के तेल भंडार पर टिकी थीं। पहले 9/11 का स्वांग रचा गया। अफगानिस्तान पर हमला करके अमेरिका ने मुस्लिम आतंकवाद के खिलाफ मुहिम के लिए विश्वसनीयता हासिल करने की कोशिश की। फिर 2003 में इराक पर हमला बोल दिया। अमेरिकी अवाम चुप रहा क्योंकि उसे लगा कि अगर इराक पर हमले से उनकी ऊर्जा ज़रूरतें पूरी हो जा रही हैं तो इसमें हर्ज क्या है।
लेकिन आज अमेरिकी अवाम भी युद्ध की विभीषिका की चुभन महसूस करने लगा है। इस युद्ध में मारे गए इराकियों की संख्या का अनुमान अलग-अलग है। कोई कहता है कि 75,000 लोग मारे गए हैं तो कोई कहता है कि ये संख्या डेढ़ लाख से लेकर 6.55 लाख हो सकती है। अब आप ही बताइये कि इतने लोगों की हत्या और पूरी की पूरी सभ्यता को तबाह करनेवाले युद्ध अपराधी के खिलाफ क्या कार्रवाई होनी चाहिए? जब सद्दाम को फांसी लगाई जा सकती है, सर्बिया के राष्ट्रपति स्लोबोदान मिलोशेविच के खिलाफ अंतरराष्ट्रीय न्यायालय में युद्ध अपराधी का मुकदमा चलाया जा सकता है तो झूठ बोलकर लाखों बेगुनाह इराकियों की हत्या करनेवाले जॉर्ज डब्ल्यू बुश से क्या सलूक किया जाना चाहिए? ग्रीनस्पैन ने सबूत पेश कर दिया है, फैसला विश्व जनमत को करना है, जिसमें हम और आप भी शामिल हैं।

हिचकते क्यों हैं, जमकर लिखिए

हिंदी ब्लॉगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है। हज़ार तक जा पहुंची है। हो सकता है दो साल में बीस हज़ार तक जा पहुंचे। देश में इंटरनेट की पहुंच बढ़ने के साथ यकीनन इसमें इज़ाफा होगा। लेकिन मैं देख रहा हूं कि दिग्गज से दिग्गज लिक्खाड़ भी कुछ समय के बाद चुक जाते हैं। फिर जैसे कोई कुत्ता सूखी हुई हड्डी को चबाकर अपने ही मुंह के खून के स्वाद का मज़ा लेने लगता है, वैसे ही इनमें से तमाम लोग या तो आपस में एक दूसरे की छीछालेदर करते हैं या कोई दबी-कुचली भड़ास निकालने लगते हैं। लगता है कि इनके पास लिखने को कुछ है नहीं। विषयों का यह अकाल वाकई मुझे समझ में नहीं आता।
हमारी अंदर की दुनिया के साथ ही बाहर के संसार में हर पल परिवर्तन हो रहे हैं। मान लीजिए हम अपने अंदर ही उलझे हैं तो यकीनन बाहर के संसार को साफ-साफ नहीं देख पाएंगे। लेकिन अंदर की दुनिया में भी तो लगातार खटराम मचा रहता है। पुरानी सोच निरंतर नई जीवन स्थितियों से टकराती रहती है। संस्कार पीछा नहीं छोड़ते। नई चीजों के साथ तालमेल न बिठा पाने से खीझ होती रहती है। रिश्तों की भयानक टूटन से हम और हमारा दौर गुज़र रहा है। हमने ब्लॉग बनाया है तो यही साबित कर देता है कि इस टूटन की बेचैनी हमारे अंदर भी है। क्या ये अंदर की दुनिया आपको रोज़ नए-नए विषय नहीं देती?
हां, ये हो सकता है कि आत्म-प्रदर्शन आपको बुरा लगता हो। आप अपनी निजता की हिफाजत पूरी शिद्दत से करना चाहते हों। लेकिन नटनी जब बांस पर चढ़ गई तो काहे की शर्म। लिखने बैठ ही गए हैं तो अपने नितांत निजी अनुभवों का सामान्यीकरण करके पेश करने में क्या हर्ज है? ये ब्लॉग है, साहित्य का मंच नहीं। यहां तो आप कच्चा-पक्का कुछ भी लिख सकते हैं। आप जमींदार है, सूखा-गीला कुछ भी करें, आपकी मर्जी। असल में आप लिखते हैं तो बहुत से लोगों को संबल मिल जाता है कि और भी लोग हैं जो हमारी जैसी सोच और उलझनों से गुज़र रहे हैं।
कभी-कभी ये भी हो सकता है कि हमें लगे कि क्या लिखें, दूसरे भी यही कुछ लिख रहे हैं। जैसे मंच पर जब हमारे बोलने का नंबर आता है तो हम बोलने से यह कहते हुए आनाकानी करते हैं कि सब कुछ तो बोला जा चुका है। लेकिन हकीकत यह है कि हम सब कई मायनों में यूनीक हैं जैसे हरेक जेबरा पर पड़ी लकीरें कभी भी एक-सी नहीं होतीं। फिर हमें मंच पर भाषण थोड़े ही देना है! हमें तो अकेले में लिखना है। इसमें काहे की हिचक?
अब मान लीजिए कि आपने अंदर की दुनिया की उलझनें बहुत हद तक सुलझा ली हैं तो बाहर का संसार हर दिन नई चुनौतियां फेंकता है। हम सभी का नज़रिया अलग हो सकता है। हम बाहर के संसार के विभिन्न अंशों को अलग-अलग तरीके से देख सकते हैं, व्याख्यायित कर सकते हैं। सड़क से लेकर दफ्तर तक, मोहल्ले से लेकर शहर तक, राज्य से लेकर देश तक और देश से लेकर विश्व तक हज़ारों नहीं तो कम से कम दसियों चीज़ें तो घटती ही हैं। हम इनमें किसी भी सुविधाजनक विषय पर लिख सकते हैं। विषयों का अंबार है। फिर भी जल बीच मीन पियासी!!!
मैं तो अपने बारे में यही पाता हूं कि अंदर की दुनिया और बाहर के संसार की तब्दीलियां मुझे लगातार आंदोलित किए रहती हैं। इसीलिए कोई व्यक्तिगत फंसान न आए तो मैं तो रोज़ दो पोस्ट लिखने लगा हूं। सुबह की पोस्ट अंदर की दुनिया पर और शाम की पोस्ट बाहर के संसार पर। इसके बावजूद विषयों का बैक-लॉग बढ़ता ही जा रहा है। ऊपर से, ब्लॉग शुरू करने से पहले की टनों सामग्री अलग से माथे में धमाल मचाए रहती है।
बस एक ही बात मुझे समझ में आती है कि धंधे और नौकरी के दबाव में हमें लिखने की फुरसत नहीं मिलती होगी। लेकिन हमारे यहां यह भी तो कहा गया है कि ज़िंदगी जब तक रहेगी, फुरसत न होगी काम से, कुछ समय ऐसा निकालो, प्रेम कर लो राम से। ब्लॉग लिखना राम के प्रेम से कम नहीं है। एक बात और कि किसी और ने कहा हो या न कहा हो, मैं तो यही कहता हूं कि तनावों से भरी आज की ज़िंदगी में लिखना अपने-आप में किसी थैरेपी से कम नहीं है।