Saturday 7 July, 2007

रात के तीसरे पहर रो उठा सितार

उधर नोटिस छपते ही ये खबर अखबारों की सुर्खियां बन गई। उस्ताद के पास फोन पर फोन आने लगे। रिश्तेदारों से लेकर नेताओं और संगीतकार बिरादरी तक में कुतूहल फैल गया। पूरा तहलका मच गया। उस्ताद ने आखिरी कोशिश की और मतीन की अम्मी को उसे बुलाकर लाने को कहा।
आपको बता दें कि अम्मी का नाम कभी मेहरुन्निशा खातून हुआ करता था। लेकिन शादी के बीते चालीस सालों में उनका नाम मतीन की अम्मी, असलम की बुआ और सईद की खाला ही बनकर रह गया है। उस्ताद किसी जमाने में उन्हें बेगम कहकर बुलाते थे। लेकिन मतीन के जन्म, यानी पिछले तेइस सालों से मतीन की अम्मी ही कहते रहे हैं। मेहरुन्निशा का कद यही कोई पांच फुट एक इंच था, उस्ताद से पूरे एक फुट छोटी। दूसरी बंगाली औरतों की तरह उस नन्हीं जान ने कभी पान नहीं खाया। हां, उस्ताद के लिए पनडब्बा ज़रूर रखती थी। बच्चों के अलावा किसी ने बगैर पल्लू के उनका चेहरा नहीं देखा। हमेशा उस्ताद के हुक्म की बांदी थी। लेकिन आज मतीन के पास वे उस्ताद के हुक्म से ज्यादा अपनी ममता से खिंची चली गईं।
- नन्हकू, तू हमेशा मुझसे दूर रहा। कभी पढ़ाई के लिए तो कभी नौकरी के लिए। फिर भी दिल को तसल्ली रहती थी। लगता था कि तू पास में ही है। कभी न कभी तो आएगा। लेकिन इस बार तूने कैसा फासला बना लिया कि कोई आस ही नहीं छोड़ी।
- नहीं, अम्मी। बस यूं ही...
मतीन ने अम्मी का हाथ पकड़ कर कहा। लेकिन हाथ झटक दिया गया। अम्मी की आवाज़ तल्ख होकर भर आई।
- क्या हम इतने ज्यादा गैर हो गए कि एक झटके में खर-पतवार की तरह उखाड़ फेंका। एक बार भी नहीं सोचा कि इन तन्हा मां पर क्या गुजरेगी।...फिर, तू अकेला कहां-कहां भटकेगा, कैसे सहन कर पाएगा इतना सारा कुछ। ये सोचकर ही मेरा कलेजा चाक हुआ जाता है।
ये कहते हुए मेहरुन्निशा के आंसू फफक कर फूट पड़े। अंदर का हाहाकार हरहरा कर बहने लगा। मतीन ने खुद को संभाला, अट्ठावन साल की मेहरुन्निशा खातून को संभाला।
- अम्मी, तू मेरी फिक्र छोड़ दे। सहने की ताकत मैंने तुझी से हासिल की है। फिर, मैं कहीं दूर थोड़े ही जा रहा हूं। जब चाहे बुला लेना। अम्मी यह मेरी लड़ाई है। मुझे ही लड़ने दे। मुझे कमज़ोर मत कर मेरी अम्मा।
अम्मी ने आंसू पोंछ डाले। पल्लू सिर पर डाला और बोली - चलो, अब्बू से मिल लो। नीचे बुलाया है।
मतीन नन्हें बच्चे की तरह मां के पीछे-पीछे दूसरी मंजिल पर अब्बू के उस कमरे में पहुंच गया, जहां वो सितार की तान छेड़ा करते थे, रियाज़ किया करते थे। अब्बू पिछले कई घंटे से वहीं बैठे हुए थे।
- तो जतिन गांधी, कल तक हमारे रहे मतीन मियां, सब कायदे से सोच लिया है न।
लेकिन मतीन की जुबान पर जैसे ताले लग चुके थे।
- मतीन, आखिरी मर्तबा मेरी बात समझने की कोशिश करो। तुम तहजीब और मजहब में फर्क नहीं कर रहे। काश, तुमने मेरा कहा मानकर संगीत में मन लगाया होता तो आज इतने खोखले और कन्फ्यूज नहीं होते। तहजीब ही किसी मुल्क को, किसी सभ्यता को जोड़कर रखती है। वह नदी की धारा की तरह बहती है, कहीं टूटती नहीं। मजहब तो अपने अंदर की आस्था की चीज़ है, निजी विश्वास की बात है। मुश्किल ये है कि तुम्हारे अंदर से आस्था का भाव ही खत्म हो गया है। न तुम्हें खुदा पर आस्था है और न ही ख़ुद पर। मजहब बदलने से तुम्हारी कोई मुश्किल आसान नहीं होगी। तुम्हारे किसी सवाल का जवाब नहीं मिलेगा।
- अब्बू, आप जैसा भी सोचें, आपको कहने का हक है। लेकिन मेरे सामने पूरी ज़िंदगी पड़ी है। मुझे तो लड़-भिड़ कर इसी दुनिया-जहां में अपनी जगह बनानी है। मैं अपनी ताकत इस लड़ाई में लगाना चाहता हूं। फिजूल की परेशानियों में इसे जाया नहीं करना चाहता। बस...मैं आपसे और क्या कहूं?
उस्ताद तैश में आ गए।
- तो ठीक है। कर लो अपने मन की। मुझे भी अब तुमसे कुछ और नहीं कहना है। बड़ा कर दिया। पढ़ा-लिखा दिया। काबिल बना दिया तो उड़ जाओ इस घोंसले से क्योंकि तुम्हारा यहां मन नहीं लगता, तुम्हारे लिए यह तंग पड़ता है। छोड़ जाओ, इस फकीर और उस तन्हा औरत को, जो सिर्फ तुम्हीं में अपनी जन्नत देखती रही है। कौन रोक सकता है तुम्हें....
- अब्बू, इमोनशल होने की बात नहीं है। मेरी अपनी जिंदगी है, मुझे अपनी तरह जीने दें।
- तो जी लो ना। इमोशन का तुम्हारे लिए कोई मतलब नहीं तो ये भी समझ लो कि ये तुम जो ऐशोआराम झेलते रहे हो, ये जो पुश्तैनी जायदाद है, इसमें अब तुम्हारा रत्ती भर भी हिस्सा नहीं रह जाएगा।
- अब्बू, उतर आए न आप अपनी पर। आप तो गुजरात की उस रियासत से भी गए गुजरे निकले जिसने अपने बेटे के गे (समलैंगिक) हो जाने पर उसे सारी जायदाद से बेदखल कर दिया था। अरे, मैं कोई गुनाह करने जा रहा हूं जो आप मुझे इस तरह की धमकी दे रहे हैं।
अब अब्बू के बगल में बैठी अम्मी से नहीं रहा गया। वो पल्लू से आंसू पोंछते हुए तेजी से बाहर निकल गईं। उस्ताद के लिए थोड़ा संभलना अब जरूरी हो गया।
- मतीन बेटा, मुझे अपनी नजरों में इतना मत गिराओ। तुम्हें जो करना है करो। बस, मेरी ये बात याद रखना कि बाहर हर मोड़ पर शिकारी घात लगाकर बैठे हैं। वो तुम्हें अकेला पाते ही निगल जाएंगे।
बाप-बेटे में बातचीत का ये आखिरी वाक्य था। अंतिम फैसला हो चुका था। मतीन को जाना ही था। विदा-विदाई की बेला आ पहुंची थी। उस दिन मतीन उर्फ जतिन गांधी अपने कमरे में पहुंचा तो रात के सवा बारह बज चुके थे। उस्ताद अली मोहम्मद शेख के परिवार में ऐसा पहली बार हुआ था कि सभी लोग इतनी रात गए तक जग रहे थे। नहीं तो दस बजते-बजते अम्मी तक बिस्तर पर चली जाया करती थी। ये भी पहली बार हुआ कि उस्ताद का सितार रात के तीसरे पहर तक किसी विछोह, किसी मान-मनुहार का राग छेड़े हुए था। जारी...

2 comments:

Udan Tashtari said...

बहुत साहसी कथानक है. वैसे इमोशनल होने की बात तो है, अनिल भाई...इन्तजार है अगली कड़ी का.

Sanjeet Tripathi said...

ह्म्म्म, अच्छे मोड़ पर ला रोका है आपने!!
इंतजार!!