महा को-ऑपरेटिव हैं यहां के नेता

मायावती ने उत्तर प्रदेश की 61 को-ऑपरेटिव चीनी मिलों को निजी हाथों में सौंपने का फैसला क्या किया, महाराष्ट्र के नेताओं को जैसे सांप सूंघ गया। मायावती ने तो यह फैसला इसलिए लिया क्योंकि राज्य की ये चीनी मिलें 2000 करोड़ रुपए के घाटे में डूब चुकी हैं और इन्हें 18,000 मजदूरों को तनख्वाह तक देने के लाले पड़ गए हैं। लेकिन महाराष्ट्र के नेता इसलिए खदबदा गए क्योंकि को-ऑपरेटिव आंदोलन की मलाई काटकर उन्होंने करोड़ों कमाए हैं और अगर को-ऑपरेटिव मिलों पर हमला हुआ तो उनकी सारी मौज-मस्ती मिट जाएगी, सारा साम्राज्य डूब जाएगा।
इसकी एक बानगी पेश है। महाराष्ट्र में को-ऑपरेटिव आंदोलन के प्रणेता रहे हैं विट्ठल राव विखे-पाटिल। इन्होंने 1950 में देश की पहली को-ऑपरेटिव चीनी मिल अहमदनगर जिले में लगाई थी। बाद में उन्होंने पल्प और पेपर मिल, बायोगैस प्लांट, केमिकल प्लांट और डिस्टिलरी भी लगा डाली। 1964 में इस परिवार ने प्रवरा एजुकेशन सोसायटी बनाई, जो इस समय आर्ट्स, साइंस और कॉमर्स ही नहीं, मेडिकल, इंजीनियरिंग, होमसाइंस और बायोटेक्नोलॉजी तक के कॉलेज चलाती है। विट्ठल राव भगवान को प्यारे हो गए तो उनके बेटे बालासाहेब ने उनका राजकाज संभाल लिया। इनकी छत्रछाया में प्रवरा समूह ने 1972 में मेडिकल ट्रस्ट बना डाला, जो 800 बिस्तरों का अस्पताल चलाता है। इसके अलावा 1975 में एक को-ऑपरेटिव बैंक भी खोल डाला। इस परिवार की कुल संपत्ति आज करोड़ों में है।
विखे-पाटिल परिवार राजनीतिक रूप से अहमदनगर जिले में अजेय माना जाता है। बालासाहेब विखे-पाटिल आठवीं बार लोकसभा में चुनकर पहुंचे हैं, जबकि उनका बेटा यानी विट्ठल राव का नाती राधाकृष्ण विखे-पाटिल तीसरी बार शिरडी के विधायक हैं और ये महोदय 1998 में महाराष्ट्र सरकार में कृषि मंत्री भी रह चुके हैं। बालासाहेब विखे-पाटिल कांग्रेस छोड़कर एक बार शिवसेना में गए और 1999 में एनडीए सरकार में वित्त राज्यमंत्री और 2002 में भारी उद्योग के मंत्री रहे। 2004 में कांग्रेस में उनकी वापसी हो गई।
इस परिवार की एक और उपलब्धि सचमुच चौंकानेवाली है। इस परिवार ने 1969 में मुळा प्रवरा इलेक्ट्रिसिटी को-ऑपरेटिव सोसायटी नाम की एक बिजली वितरण संस्था बनाई थी, जो अहमदनगर जिले की श्रीरामपुर और राहुरी तहसीलों के 183 गांवों में बिजली बांटने का काम करती है। सोसायटी महाराष्ट्र राज्य बिजली बोर्ड (एमएसईबी) से बिजली खरीदकर गांववालों को बेचती है। लेकिन इसने एमएसईबी को खरीदी गई बिजली के 380 करोड़ रुपए नहीं चुकाए हैं। पैसे लौटाने की बात तो छो़ड़िए, सोसाइटी बोर्ड की किसी नोटिस तक की परवाह नहीं करती। परिवार के राजनीतिक रसूख के चलते सरकार ने भी इस पर कोई कार्रवाई नहीं की। आखिरकार बोर्ड ने जब बॉम्बे हाईकोर्ट की नागपुर बेंच में अर्जी लगाई तो कोर्ट ने इस सोसायटी को खत्म करने का आदेश दे दिया। मगर, इस आदेश के खिलाफ अपील हो गयी तो मामला जहां का तहां अटक गया।
तो ये है महाराष्ट्र में ठीक आजादी के बाद जनता के नाम पर शुरू किए गए को-ऑपरेटिव आंदोलन का हश्र। उस समय किसानों और गांववालों की मदद के नाम पर नेताओं को स्कूल, चीनी मिल, दूध और बैंक की को-ऑपरेटिव सोसाय़टी बनाने के लिए कौड़ियों के दाम सरकारी ज़मीन दी गई। जब ये को-ऑपरेटिव्स चलने लगीं तो उन्हें चलानेवाले अपने इलाके में सत्ता के केंद्र बन गए। को-ऑपरेटिव के सदस्य इन नेताओं के बंधुआ मतदाता बन गए। किसानों की किस्मत इनके हाथों में कैद हो गई।
इनके खिलाफ आज कोई भी राजनीतिक दल आवाज़ नहीं उठाता क्योंकि हर दल के सदस्य या तो खुद को-ऑपरेटिव की मलाई काट रहे हैं या काटने की फिराक में हैं। महाराष्ट्र में एनसीपी के अध्यक्ष शरद पवार से लेकर शायद ही कोई ऐसा नेता हो जिसने सहकारिता के नाम पर करोड़ों का साम्राज्य नहीं खड़ा किया है। ऐसे में अगर यूपीए की राष्ट्रपति पद की प्रत्याशी प्रतिभा ताई पर को-ऑपरेटिव आंदोलन के दोहन का आरोप लगता है तो वह कहीं से भी अतिरंजित नहीं है। लेकिन जब कांग्रेस के प्रवक्ता प्रियरंजन दासमुंशी प्रतिभा पाटिल के कसीदे काढ़ते हुए कहते हैं कि ताई ने अपना करियर को-ऑपरेटिव आंदोलन से शुरू किया था, तो हंसी भी आती है और गुस्सा भी। आखिर यह बात कहकर आप प्रतिभा ताई को बचाना चाहते हैं या साबित करना चाहते हैं कि वो भी सहकारिता की मलाई से उतनी ही पुती हैं जितना महाराष्ट्र का कोई और नेता।
स्रोत : इंडियन एक्सप्रेस में महा-नेक्सस शीर्षक से छपा रक्षित सोनावणे का लेख

Comments

Sanjay Tiwari said…
मेरी समझ यह कहती है कि कोआपरेटिव की अवधारणा में खोट नहीं है. आज जब बरास्ता पूंजी संसाधनों को निजी हांथों का गिरवी बनाया जा रहा है, कोआपरेटिव के विचार को बचाने की जरूरत है. दुर्भाग्य से जिनके हाथों में यह विचार गया, उनकी दृष्टि संकुचित थी.
अगर को-आपरेटिव ब्रांड मैनेजमेंन्ट, स्किल मैंनेजमेनमेन्ट आदि कुछ बातों पर ध्यान दें तो भूमंडलीकरण से लड़ने में यह महत्वपूर्ण हथियार हो सकता है.
संजय जी, यकीनन इसकी अवधारणा में कोई खोट है। लेकिन कैसा राजनीतिक नेतृत्व इसे लागू कर रहा है, उस पर सदस्यों का वाकई कितना नियंत्रण है, उन्हें कितना इम्पावर किया गया है - इसी से ये सफल हो सकता है। रूस और चीन जैसे समाजवादी तक देशों में जिस तरह पार्टी ब्यूरोक्रेसी पनपी है, उसे देखकर महाराष्ट्र में कोई अनहोनी हुई,ऐसा मुझे नहीं लगता।
azdak said…
मार-मार, जूता मार!

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