
न्यूक्लियस जितनी ही ज्यादा ताकत से इलेक्ट्रॉन को बांधता है, इलेक्ट्रॉन उतनी ही ज्यादा गति से अपने ऑरबिट में धमा-चौकड़ी मचाता है। दरअसल किसी परमाणु में इस तरह बंधे रहने के चलते इलेक्ट्रॉन 1000 किलोमीटर प्रति सेकंड यानी 36 लाख किलोमीटर प्रति घंटा तक की रफ्तार हासिल कर लेता है। इसी तेज़ गति की वजह से परमाणु किसी ठोस गोले जैसे नज़र आते हैं, उसी तरह जैसे हमें तेज़ी से चलता पंखा एक गोलाकार डिस्क जैसा दिखता है। परमाणु को और ज्यादा ताकत से दबाना बेहद कठिन होता है। इसलिए कोई पदार्थ अपनी जानी-पहचानी ठोस शक्ल अख्तियार किए रहता है। इस तरह हम पाते हैं कि असल में जितनी भी ठोस चीजें हैं, उनके भीतर काफी खाली जगह होती है और जो भी चीज़ स्थिर दिखती है, वो अंदर काफी गतिशील होती है, उसके भीतर भारी उथल-पुथल मची रहती है। लगता है कि जैसे हमारे अस्तित्व के हर क्षण में, धरती के कण-कण में शंकर भगवान अपना तांडव नृत्य कर रहे हों।
(डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम की आत्मकथा ‘विंग्स ऑफ फायर’ का एक अंश)
6 comments:
आभार अनिल भाई विंग्स ऑफ फायर का यह अंश प्रस्तुत करने के लिये. बहुत सुन्दरता से पेश किया है.
दर्शन और विज्ञान को जोड़ने के ताओ ऑफ़ फ़िज़िक्स और डान्सिंग वू ली मास्टर्स जैसे जो काम हुए हैं.. उन पर आप कलम चलाएं तो मज़ा आएगा..
ये तो बढ़िया है ही..
अच्छा है। आप की डायरी का फेरा लगाना कुछ ना कुछ दे जाता है
अनिलजी,अर्थपूर्ण जानकारी के लिये धन्यवाद,इसी बहाने कलाम साहब को समझने का मौका मिला,अच्छा लग रहा है, ज़ारी रखें!!!!
ओह, अज्ञानी जीवन!
अनिल भाई आपकी कुछ पोस्ट बीच में पढ़ नहीं पाया था। आज उनमें से कुछ अद्भुत चीजें पढ़ीं। अंतर्मन की खोज में आप अनछुए इलाकों तक पहुंचते हैं। जीवन-जगत-जिज्ञासा से जुड़ी इन कलामी चिंताओं को छूते हुए एक पोस्ट आज मैंने भी डाली है, समय मिले तो देख लीजिएगा।
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